माया-जाल में फंसे नारद

एक बार नारद जी को यह अभिमान हो गया कि उसने बढ़कर इस पृथ्वी पर कोई दूसरा भगवान विष्णु का भक्त नहीं है।

उनका व्यवहार भी इस भावना से प्रेरित होकर कुछ बदलने लगा। वे भगवान के गुणों का गान करने के साथ-साथ अपने सेवा कार्यों का भी वर्णन करने लगे। भगवान से कोई बात छुपी थोड़े ही रहती है।

उन्हें तुरंत इस बात का पता चल गया। वे अपने भक्त का पतन भला कैसे देख सकते थे ?

इसलिए उन्होंने नारद को इस दुष्प्रवृति से बचाने का निर्णय किया।

एक दिन नारद जी और भगवान विष्णु साथ-साथ वन में जा रहे थे अचानक विष्णु जी एक वृक्ष के नीचे थककर बैठ गए और बोले - भई नारद जी, हम तो थक गए है, प्यास भी लगी है।

कहीं से पानी मिल जाए तो लाओ। हमसे तो प्यास के मारे चला नहीं जा रहा है।

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हमारा गला सुख रहा है।

यह सुनकर नारद जी तुरंत सावधान हो गए, उनके होते हुए भगवान भला प्यासे रहें। वे बोले 'भगवान' अभी लाया आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें।

नारद जी एक ओर दौड़ लिए। उनके जाते ही भगवान मुस्कराए और अपनी माया को नारद जी को सत्य के मार्ग पर लाने का आदेश दिया। माया शुरू हो गई।

नारद जी थोड़ी ही दूर गए होंगे कि उन्हें एक गाँव दिखाई पड़ा, जिसके बाहर कुँए पर कुछ युवा स्त्रियां पानी भर रही थी। कुँए के पास जब वे पहुंचे तो एक कन्या को देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठे, बस उसे ही निहारने लगे।

वह यह भूल गए कि भगवान के लिए पानी लेने आए थे। कन्या भी नारद जी की भावना समझ गई। वह जल्दी-जल्दी जल से घड़ा भरकर अपनी सहेलियों को पीछे छोड़कर घर की ओर लपकी।

नारद जी भी उसके पीछे जो लिए। कन्या तो घर के अंदर चली गई लेकिन नारद जी ने द्वार पर खड़े होकर नारायण, नारायण का अलख जगाया।

गृहस्वामी नारायण का नाम सुनकर बाहर आया। उसने नारद जी को तुरंत पहचान लिया। अत्यंत विनम्रता और आदर के साथ वह नारद जी को घर के अंदर ले गया और उनके हाथ-पैर धोकर स्वच्छ आसन पर बिठाया तथा उनकी सेवा-सत्कार में कोई कमी न छोड़ी।

उनके आगमन से अपने को धन्य बताते हुए गृहस्वामी ने अपने योग्य सेवा के लिए आग्रह किया।

नारद जी बोले - आपके घर में जो आपकी कन्या जल का घरा लेकर अभी-अभी आई है, मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ।

नारद जी की बात सुनकर गृहस्वामी एकदम चकित रह गया लेकिन उसे प्रसन्नता भी हुई कि मेरी कन्या एक ऐसे महान योगी तथा संत के पास जाएगी। उसने स्वीकृति प्रदान कर दी और नारद जी को अपने ही घर में रख लिया।

दो-चार दिन पश्चात शुभ-मुहूर्त में उसने अपनी कन्या का विवाह नारद जी के साथ कर दिया तथा उन्हें गाँव में ही उतनी धरती का टुकड़ा दे दिया खेती करके वे आराम से अपना और अपने परिवार का पेट भर सकें।

अब नारद जी की विणा एक खूंटी पर तंगी रहती, जिसकी ओर उनका ध्यान बहुत कम जाता। अपनी पत्नी के आगे नारायण को वे भूल गए।

दिन भर खेती में लगे रहते। कभी हल चलाते, कभी पानी देते, कभी बीज बोते, तो कभी निराई-गुड़ाई करते। जैसे-जैसे पौधे बढ़ते उनकी प्रसन्नता का पारावार न रहता।

फसलें हर वर्ष पकतीं, कटतीं, अनाज से उनके कोठार भर जाते। नारद जी गाँव के एक सम्पन्न किसान माने जाने लगे। वर्ष दर वर्ष बीतते चले गए और नारद जी की गृहस्ती भी बढ़ती चली गई। तीन-चार लड़के-लड़कियां भी हो गए। अब नारद जी को एक क्षण की भी फुरसत नहीं मिलती थी।

वे हर समय बच्चों के पालन-पोषण तथा पढ़ाई-लिखाई में लगे रहते अथवा खेत में काम करते रहते थे।

अचानक एक बार तेज बारिश हुई। जिसने की दिनों तक बंद होने का नाम ही नहीं लिया। बादलों की गरज और बिजली की कड़क ने सबके हृदय में भय उत्पन्न कर दिया। मूसलाधार वर्षा ने गाँव के पास बहने वाली नदी में बाढ़ की स्थिति पैदा कर दी।

चारों ओर पानी ही पानी फैला गया। कच्चे-पक्के सभी मकान ढ़हने लगे। घर का सामान बह गया। पशु भी डूब गए। उनके व्यक्ति मर गए।

गाँव में त्राहि-त्राहि मच गयी।

नारद अब क्या करें ? उन्होंने भी घर में जो थोड़ा कीमती सामान बचा था उसकी गठरी बाँधी और अपनी पत्नी तथा बच्चों को लेकर जान बचाने के लिए पानी में से होते हुए बाहर निकलने लगे।

नारद जी बगल में गठरी थामें, एक हाथ से एक बच्चे को पकड़े और दूसरे हाथ से अपनी पत्नी को संभाले हुए थे।

पत्नी भी एक बच्चे को गॉड में और एक का हाथ पकड़े धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी।

पानी का बहाव अत्यंत तेज था तथा यह भी पता नहीं चलता था कि कहाँ गड्ढा है और कहाँ टीला ? अचानक नारद जी ने ठोकर खायी और गठरी बगल से निकल कर बह गयी। नारद जी गठरी कैसे पकड़ते, दोनों हाथ तो घिरे थे। मन मसोसकर सोचा फिर कमा लेंगे। कुछ दूर जाने पर पत्नी एक गड्ढे में गिर पड़ी और गोद का बच्चा छूटकर बह गया। पत्नी बहुत रोयी, लेकिन क्या हो सकता था ?

धीरे-धीरे और दो बच्चे भी पानी में बह गए, उन्होंने बहुत कोशिश की बचाने की, लेकिन कुछ न हो सका। दोनों पति-पत्नी बड़े दुखी, रोते, कलपते, एक दूसरे को सांत्वना देते कोई ऊँची जगह ढूंढते रहे। एक जगह आगे चलकर दोनों एक गड्ढे में समा गए।

नारद जी तो किसी प्रकार गड्ढे में से निकल आए, मगर उनकी पत्नी का पता कहीं नहीं चला। बहुत देर तक नारद जी उसे इधर-उधर, दूर-दूर तक ढूंढते रहे लेकिन व्यर्थ रोते-रट उनका बुरा हाल था, हृदय पत्नी और बच्चों को याद कर करके फटा जा रहा था। उनकी तो साडी गृहस्थी उजड़ गई थी। बेचारे क्या करें, किसे कोंसे अपने भाग्य को या भगवान को ?

भगवान का ध्यान आते ही नारद जी के मस्तिष्क में प्रकाश फ़ैल गया और पुरानी सारी बातें याद आ गयीं। वे किस लिए आए थे और कहाँ आ गए ?

ओहो! भगवान विष्णु तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। वे तो उनके लिए जल लेने आए थे और यहां गृहस्थी बसाकर बैठ गए।

वर्षों बीत गए, गृहस्थी को बसने में और फिर सब नष्ट हो गया। क्या भगवान अब भी मेरी प्रतीक्षा में उसी वृक्ष के नीचे बैठे होंगे ?

यह सोचते ही बाढ़ नदारद हो गयी। गाँव अंतर्धान हो गया। वे तो घने वन में खड़े थे।

नारद जी पछताते और शर्माते हुए दौड़े, देखा कुछ ही दूर पर उसी वृक्ष के निचे भगवान लेते हैं।

नारद जी को देखते ही उठ बैठे और बोले - अरे भाई नारद, कहा चले गए थे, बड़ी देर लगा दी।

पानी लाए या नहीं।

नारद जी भगवान के चरण पकड़ कर बैठ गए और लगे अश्रु बहाने।

उनके मुहं से एक बोल भी नहीं फूटा। भगवान मुस्कराए और बोले - तुम अभी तो गए थे। कुछ अधिक देर थोड़े ही हुई है।

लेकिन नारद जी को लगा था कि वर्षों बीत गए। अब उनकी समझ में आया यह सब भगवान की माया थी, जो उनके अभिमान को चूर-चूर करने के लिए पैदा हुई थी।

वे सोचने लगे, उन्हें बड़ा घमंड था कि उनसे बढ़कर त्रिलोक में दूसरा कोई भक्त नहीं है।

लेकिन एक स्त्री को देखकर वे भगवान को भूल गए, उसको पछतावा होने लगा और उनका घमंड जरा-सी देर में ढेर हो गया। वे पुनः सरलता और विनय के साथ भगवान के गुण गाने लगे।