मैं आत्म-विजय का पथिक हूँ

एक बौद्ध ब्रह्मचारी ने कई देशों में घूमकर विभिन्‍न कलाएँ सीखीं ।

एक देश में उसने एक व्यक्ति से बाण बनाने की कला सीखी । कुछ दिनों के बाद वह अन्य देश में गया।

वहाँ उसने नौ-निर्माण कलाएँ सीखीं, क्योंकि वहाँ बहुतायत में जहाज बनाए जाते थे।

फिर वह किसी तीसरे देश में गया तो कई ऐसे व्यक्तियों के संपर्क में आया, जो गृह-निर्माण करते थे।

यहाँ उसने गृह-निर्माण कला सीखी ।

इस प्रकार वह सोलह देशों में गया और कई कलाओं का ज्ञाता होकर लौटा।

जब वह अपने देश पहुँचा तो अहंकार ग्रस्त हो लोगों से पूछता, '' इस संपूर्ण पृथ्वी पर मुझ जैसा कोई चतुर व्यक्ति है? ''

भगवान्‌ बुद्ध ने उस युवा ब्रह्मचारी से घमंड की ऐसी अति देखकर उसे एक उच्चतर कला सिखानी चाही ।

वे एक वृद्ध भिखांरी का वेश बनाकर हाथ में भिक्षापात्र लिये उसके सामने गए ब्रह्माचारी ने बड़े अभिमान से पूछा, ''कौन हो तुम ?

बुद्ध बोले, “मैं आत्मविजय का पथिक हूँ।

ब्रह्मचारी ने उसके कथन का अर्थ जानना चाहा तो वे बोले, '“इषुकर बाण बना लेता है, नौ चालक जहाज पर नियंत्रण रख लेता है, गृह निर्माता घर भी बना लेता है, किंतु वह तो महाविद्वान्‌ नहीं होगा, जो अपने शरीर और मन पर विजय पा सके।

संसार की प्रशंसा व अपशब्द दोनों ही दशाओं में जिसका मन स्थिर रहे, वही साधक शांति व निर्वाण को प्राप्त करता है।

गौतम बुद्ध की इन बातों को सुनकर ब्रह्मचारी को अपनी भूल का एहसास हुआ।

वस्तुत: अहंकार का त्याग ही ईश उपलब्धि का द्वार है, इसलिए ईश्वर की प्राप्ति के इच्छुक भक्त को अहंकार से सर्वथा मुक्त रहना चाहिए।