जब मैंने भूत देखे

अच्छा से याद नहीं है, दिन किस मौसम का था।

पर शायद गर्मी का। मेरा दालान अपने घर से सटे उत्तर की दिशा की ओर है।

दालान में तीन-चार बड़ी चौकियाँ लगी होती थीं।

जिस समय की बात है, उस समय भी जहाँ तक याद है चौकी पर ही कुछ लोगों के साथ सोया था।

इस कारण से यह भी कह सकता हूँ कि मौसम गर्मी का था। या फिर बरसात का भी हो सकता है।

जाड़े का तो सवाल ही नहीं उठता।

क्योंकि जाड़े के दिनों में चौकियों को खड़ा कर दिया जाता था और नीचे पुआल बिछा दिया जाता था।

और जो कुछ भी मैंने उस रात देखा था, चौकियाँ खड़ी रहने पर देखने का प्रश्न न उठ सकता है।

मेरे दालान के आगे मवेशियों के खाने-पीने की नाँदों की एक लम्बी पंक्तियां आज भी है, उस समय भी थीं।

उसके आगे कुछ परती जमीन और उसके बाद कुछ पेड़-पौधे, जो उस समय बिल्कुल छोटे-छोटे होंगे।

पेड़-पौधों के आगे एक बड़ा-सा जलाशय है।

जलाशय का एक बड़ा भाग मेरे दालान की सीध से पश्चिम दिशा में है।

आज की तरह उस समय इसमें मछली-पालन नहीं होता था।

ऐसे स्वाभाविक रुप से उसमें जो मछलियाँ रह रही हों।

मेरे दालान पर मेरे अलावा मेरा छोटा भाई, मेरे छोटे बाबूजी (चाचाजी) और मेरे पड़ोसी :) गया सिंह, जिन्हें मैं ‘गया चा' कहता था, सोते थे।

साथ ही गाँव के ही एक और आदमी, जिनका घर, मेरे घर से लगभग चार-पाँच बाँस की दूरी पर था, सोते थे।

नाम था उनका रमेश सिंह। गया सिंह और मेरे छोटे चाचा तो अब स्वर्गवासी हो गए, पर और लोग भगवान की कृपा से सकुशल हैं।

मैं उस दिन, जिस रात और जिस भोर का वर्णन करने जा रहा हूँ उस दिन भी ये सारे लोग रात को सोए हुए होंगे ही।

जिस समय मेरी नींद खुली थी और वह दृश्य देखा था, मुझे अंदाजा न होगा कि रात्रि का कौन-सा पहर होगा।

पर बाद में पता चला कि रात्रि का तीसरा पहर समाप्त होकर चौथा पहर चढ़ा था।

नींद खुली तो मैंने अपने दालान के सबसे आगे जलाशय के किनारे दीया या लालटेन जैसी कुछ रोशनी जलती देखी।

ध्यान से देखा तो वही (रोशनी) पाई।

कुछ देर बाद सोचा कि शायद कोई अपने बच्चे को टट्टी (पाखाना) करवा रहा होगा।

उस समय सबके यहाँ शौचालय नहीं था।

हालाँकि आज भी जब देश दुनिया यहाँ तक पहुंच गए हैं, गाँव-देहातों में शौचालय की बड़ी कमी है।

सब घर में आज भी शौचालय नहीं है।

जिसके कारण औरतों और लड़कियों को शौच के लिए बाहर जाना पड़ता है। कभी-कभी तो उनके साथ बड़े-बड़े हादसे भी हो जाते हैं।

उन्हें अपने अनमोल रत्न (नारी की अस्मत) से भी हाथ धोना पड़ता है। सुबह उन्हें भोर के अँधेरे में और शाम को रात हो जाने पर ही निकलना पड़ता है।

बीच में उनके लिए काफी परेशानी हो जाती है और शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है।

मैं उस जलती हुई रोशनी को काफी गौर से देख रहा था।

मैं आँखें चीरकर उसके अगल-बगल किसी को देखने का प्रयत्न कर रहा था।

पर आदमी के नाम पर कोई नहीं दिख रहा था, न ही किसी के खाँसने या भुनभुनाने की आवाज आती थी।

थोड़ी देर के बाद जलाशय के उस पार में किसी के खाँसने की दो-चार आवाजें सुनाई पड़ीं। मैंने आवाज को लगभग पहचान लिया था।

छोटा बाबूजी (छोटे चाचा) रात रहते ही उठकर दिशा-मैदान को निकल जाते थे।

और बीड़ी ज्यादा पनि कामते रहते थे। दिशा- मैदान करके आते थे, फिर जाकर जानवरों को बाहर निकालते थे।

या कभी-कभी गर्मी के दिनों में जानवरों को बाहर निकालकर ही दिशा-

- मैदान को जाते थे। उनके खाँसने की आवाज के बाद मैं क्या देखता हूँ कि वह रोशनी अब वहाँ से चल चुकी है।

धीरे-धीरे हमारी ही तरफ, इतना करीब आने पर भी रोशनी के साथ आदमी नाम की कोई चीज दिखाई न पड़ती थी।

मैं काफी आश्चर्य और भय में था। वह क्या-क्या यह? सुना तो बहुत बार है। पर देखा कुछ भी उस तरह का एक बार भी नहीं।

एक दम से बगल में रहने के कारण डरा तो रोज ही रहता हूँ। रात को पेशाब एक बार भी नहीं।

लगने पर उठकर बाहर जाने से पहले सारे रोंगटे खड़े हो जाते थे। उठकर जाने के क्रम में पूरब में तनिक भी झाँकने से पहले पूरी देह काँप जाती थी।

वह तो क्या कहूँ कि नाली उत्तर-दक्षिण की तरफ थी और हमें पश्चिम मुँह करके पेशाब आदि करने के लिए बैठना पड़ता था।

पर लाख काँपती थी देह, लाख सिहरते थे रोंगटे, पर जाने या आने के क्रम में एकाध बार उधर (पूरब की तरफ) डरी नजर अवश्य फेंका जाती थी।

एक बार तो ऐसा लगा था कि आज उसको (भूत को) देख ही लिया क्या ?

प्राण बिल्कुल सूख गए थे, पर अशोक भइया को सामने पाकर जान में जान आई थी- दीपावली का समय था।

हमारे गाँव में इस अवसर पर तीन दिनों तक लगातार होनेवाले नाटकों का रिहर्सल चल रहा था और वे उस रात गढ़ पर (एक जगह) का नाम, जहाँ निकेतन कक्ष भी है, से रिहर्सल करके अपने घर लौट रहे थे।

वे 'जमुना चा, जमुना चा' करते आए और हम सबसे बतियाने लगे थे।

उन्होंने बातचीत के क्रम में बताया कि पूरब तरफ बैगन के पौधों के बीच उजली साड़ी पहने एक औरत को वे कब से देख रहे थे।

पहले उन्हें लगा कि कोई महिला बैगन चुराने के ख्याल से आई होगी और फिर उन्हें देख पौधों के बीच में छिप गई।

फिर सोचा कि इत रात में वह भी मात्र बैगन के लिएँ तभी यह भी सोचा कि चोर चाईं कभी भी कुछ कर सकते हैं और वे छोटे-बड़े क्षुद्र सभी होते हैं।

पर तभी सहसा उनके रोंगटे खड़े हो गएँ अरे यह तो उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि कहीं.....! यह सोच ही रहे थे कि तभी वह महिला एकदम से गायब दिखी।

यह देखकर वे दौड़े-दौड़े हाँफते-हाँफते हमारे दालान में आए और हमसे आपबीती सुनाने लगे।

मुझे तो काटो तो खून नहीं। छोटका बाबूजी जैसा आदमी यह सब देख सुनकर चुप है।

अरे यह तो भूतप्रेत का नाम लेनेवाले लोगों को झकझोर कर रख देते हैं।

औरतों की भाषा में कहूँ तो, मुँह तक नोंच लेते हैं और आज चुपचाप......।

इनसे तो ऐसे ही हम सब (मैं, मेरे भाई-बहन, भतीजी-भतीजियाँ, चचेरे भइया) से काफी डरते थे, भूत-प्रेत के बारे में कुछ सुनकर थोड़ी भी उनसे या उनके सामने चर्चा कर लें तो वे हमारी कचूमर तक निकाल दे सकते थे।

जिस जगह के या उसके आसपास का वर्णन अशोक भइया कर रहे थे उन जगहों के बारे में मैं बहुत सुन चुका था कि उधर भूत मँडराते रहते हैं।

मेरा दालान उन जगहों में बिलकुल सटा था।

अतः जब भी मैं रात को सोकर उठता था और पर-पेशाब लगा होता था, तब जाने से पहले डरकर रह जाता था।

डरते-डरते दौड़ जाता था और जल्द-जल्द पेशाब करके थोड़ा बहुत डरी सहमी निगाहों से उन जगहों पर तका भी जाता था।

पर तब तक कोई वैसी चीज पर नजर न पड़ी थी। पर आज...। तो वह प्रकाश धीरे-धीरे हमारी तरफ आया और फिर मेरे दालान के आगे गोशाले से एक-दो कदम आगे रहकर पूरब की तरफ मुड़ गया।

फिर बढ़ते-बढ़ते दूसरे के घर की तरफ चला गया।

छोटका बाबूजी आए और रफिर अंदर जाकर कुल्ला-कलाला किया। फिर जानवरों को निकालने लगे। मैं चुपचाप लेटा हुआ था। धीरे-धीरे सुबह हो गई।

मैं उठा और दिशा करने उत्तर दिशा की ओर निकल पड़ा।

दिशा-मैदान करके आया और अपने कुएँ पर जाकर कुल्ली-हाथ मुँह धोया। फिर सीधे पहुँचा माँ के पास। माँ को उस घटना से फौरन अवगत कराया।

माँ ने हल्का डाँटा, "क्या जरूरत पड़ी थी, तुम्हें देखने की। जानते हो कि जब उधर भूत-प्रेत रहता है तो चुपचाप सोए रहते।

हमारे दालान में थोड़े आता है।

जीवा-जन्त (जीव जन्तु) हैं, अपना जहाँ रहता है, रहे, उससे हमें क्या।"

पर माँ इतना ही बोलकर चुप नहीं बैठी।

उसने बड़ी हिम्मत जुटाकर छोटका बाबूजी से वह सब पूछ ही दिया। छोटका बाबूजी ने माँ से जो बताया तो भय से होश उड़कर रह गए- क्या वह रोशनी भूत ही थी?

अरे बाप-रे-बाप! आज मुझे भूत दिखाई दे दिया। वैसा होते हैं भूत।

गजब प्रकाश था वह। अरे बाप रे! अब तो दालान में सोने पर काफी डर लगेगा। बाप रे!

अच्छा तो मैं आज अपने दोस्तों को बताऊँगा कि आज मैंने भूत देखा- वैसा भूत, विश्वास न हो तो छोटका बाबूजी से पूछो जाकर।

पर हो सकता है छोटका बाबूजी से मेरे दोस्त पूछने जाएँ तो मुझे दो-चार थप्पड़ों और झिड़कियों का सामना करना पड़ जाएँ पर जो भी हो बताऊँगा तो आज मैं जरुर अपने दोस्त को।

मन में एक गजब उच्छास था, जो मैं अपने साथियों को अपने द्वारा देखे गए भूत का वर्णन करूँगा।

मेरे दोस्त कैसे मुझसे सटकर मेरी बातों को फटी-फटी आँखों और सीना धौंकनी की तरह पचका-फूलाकर सुनेंगे।

और मैं ढूँढने लगा अपने दोस्तों को। और बताने लगा वह सब।

ठीक जैसी कल्पना की थी, उसी ही प्रकार से मेरे दोस्तों ने सुना। पर जैसी शंका थी मेरे मन में वह भी सामने उभरकर आई।

कुछ लोग इसे सत्य मानने लगे, वहीं कुछ लोगों ने इसे झूठ करार दिया। झूठ करार देनेवालों में दो दल थे- एक तो कि मैं बिल्कुल ही झूठ बोल रहा हूँ।

दूसरे में यह भाव था कि मैं सच तो कह रहा हूँ, पर ऐसा सौभाग्य मुझे कैसे प्राप्त हो गया।

अब देखा जाए-जहाँ बच्चे भूत-प्रेत से जितना डरते हैं, मतलब उनका नाम और उनके बारे में सुनकर जिस प्रकार से उनके प्राण निकलने लगते हैं,वे कहानियाँ हो या फिल्म-सबसे ज्यादा भूत-प्रेत को ही सुनना और देखना पसंद करेंगे।

वे सुनते रहेंगे, पढ़ते रहेंगे, देखते रहेंगे। डर-पर-डर लगते रहेगा, उन्हें पर बिना पूरी सुने-देखे छोड़ेंगे नहीं।

तो जब मेरे दोस्तों का वह दल, जो मुझे झूठा करार दे रहा था, इसके साथ मैंने वही हथकंडा अपनाया। मतलब जाकर पूछ लो छोटका बाबूजी से....' बस उनकी हेकड़ी हवा हो गई।

दो पनडुब्बे का। अब दूसरा वर्णन करने जा रहा हूँ- सोन्डी तर (बाँध के बीच बना एक छोटा पुल) वाले

यह बात भी लगभग तब की होगी जब मैं नौ-दस साल का रहा हूँगा।

मौसम संभवतः गरमी का था। आज तो छोड़े काफी वर्ष हो गए, पर उस समय मैं ब्रह्मज्योनार (ब्राह्मण भोज ) करने जाया करता था- बड़ी ललक के साथ।

कभी-कभी तो कुछ लोगों के साथ बड़ी दूर तक चला जाता था। हमारे गाँव के बहुत सारे ब्राह्मण उस दिन नेमा गाँव ज्योनार करने गए थे।

यह गाँव हमारे गाँव से लगभग तीन किलोमीटर उत्तर-पूरब के कोने पर पुनपुन नदी के तट पर अवस्थित है।

उस भोज में मैं भी अपने ग्रामीणों और दोस्तों के साथ खाने गया था। मेरा भगीना ( मेरी चचेरी बहन का लड़का) संजय जो मुझसे कुछ ही छोटा था, मेरे साथ. अक्सर रहा करता था। हमदोनों में अच्छा पटता था।

जब हम भोज खाकर लौट रहे थे तो मुझे पुनपुन नदी पार करने के बाद शौच की हाजत महसूस हुई।

जब मैंने संजय से यह बात कही तो उसने भी वही इच्छा जाहिर की।

और तब हम दोनों लगभग एक-डेढ़ हाथ के फासले पर कच्ची सड़क के किनारे शौच करने बैठ गएँ यह लिखकर एक बड़ी मजेदार बात याद आई बचपन की, जो शायद आज भी गाँव-देहात के बच्चे वैसा करते ही होंगे।

हूँ तो मैं पक्का देत का ही, और देहाती ही कहलाना ज्यादा पसंद करता हूँ।

दर-देहातियों से तो भूलकर ही हिन्दी में कभी बात करूँ, नहीं तो मगही (क्षेत्रीय और मेरी मातृभाषा) में ही बतियाना चाहता हूँ।

जबकि बहुत सारे देहातियों में देखता हूँ कि मैं उनसे मगही में बतिया रहा हूँ और वे अपने को बनाने के फेर में हिन्दी की ओर जा रहे हैं।

अब समझा जा सकता है कि वे कैसी हिन्दी बोल पाएँगे। बोलने में तो वे हिन्दी की टाँग तोड़ ही देते हैं और अपनी भी भाषा से वंचित रह जाते हैं। फलस्वरुप उनके मन की भावना, उनके मन में ही रह जाती है।

वे किसी को अपनी राय, विचार भी सही रुप में देने से असमर्थ हो जाते हैं। साथ ही दूसरे द्वारा सुनने-समझने से भी।

हम दिल से दिल तभी जोड़ सकते हैं जब अपनी बोली की भाषा प्रयोग करें। यह बात मैं अपने बड़प्पन में नहीं कहना चाहता हूँ, पर यह में सरस्वती की कृपा और गुरु-बड़ों के आशीर्वाद का सुफल है कि काम चलने भर मुझे हिन्दी आती है।

कभी-कभी मैं वैसे-वैसे लोगों को डांट भी देता हूँ जो पढ़े-लिखे नहीं के बराबर होते हैं और वे अपनी भाषा में जानकर बात नहीं करना चाहते हैं। उनकी स्थिति त्रिशंकु की तरह होकर रह जाती है।

जो भी भाव इसका लगाइए पर बाहर में मुझे एक-से-एक मजदूर और एक-से-एक विद्वान, साहित्यकार से जान-पहचान है।

विद्वानों में अगर कोई भी थोड़ा भी अपनी क्षेत्रीय भाषा (मगही, भोजपुरी, मैथिली, बज्जिका इत्यादि) में बात करने लगता हूँ तो मैं सहर्ष अविलम्ब अपनी मगधी शुरु कर देता हूँ।

और यह भाव अनपढ़ों में ही ज्यादा देखने को मिलती है कि वे उन्हें जानते नहीं है और उसमें झूठ भूठ का हाथ लगा देते हैं। बीच में यह अनावश्यक वर्णन को भी आवश्यक इसलिए मानता हूँ कि इसी बहाने दिल और जज्बात की कौन सी भाषा होनी चाहिए, का जिक्र तो हो गया।

साथ ही और छोटे-मोटे अनावश्यक वर्णनों को भी इसी प्रकार का सार्थक समझा जाएगा।

तो मैंने भाषा और बोली पर जो बात की चाहे जो हो वह इसलिए कि मैं लगभग चौदह साल से ( 2006 तक के लिए) पटना में रह रहा हूँ। पर मुझे शहर की छाप नहीं के बराबर पड़ी है।

मेरे साहित्य में भी गाँव-देहात की माटी है, पेड़-पौधे हैं, दिल-जजबात और अपनत्व है।

पर जो लिखा कि आज भी गाँव-देहात के बच्चे वैसा ही करते होंगे, वह इसलिए कि बाहर में रहने पर गाँव तो बहुत कम ही जाना पड़ता है।

तो मजेदार बात यह याद आई कि हम बचपन में जब अपने कुछ लंगोटिया यारों (दोस्तों) के साथ दिशा फिरने (टट्टी करने) जाते थे तो एक ही जगह सभी पैंट खोलकर बैठ जाते थे।

यहाँ तक कि कभी-कभी एकदम से सटकर बैठते थे। उसके बाद हम बैठे-बैठे ही धीरे-धीरे बगल की ओर खिसकते थे।

हम आपस में दोनों हाथ कंधे की तरफ फैलाकर कहते थे कि भाई इतना तक दूरी बनाएँ रखें। और हम अंत तक अपने दोनों हाथ की दूरी तक एक-दूसरे के साथ बैठ दिशा फिरते रहते थे।

फिर जाकर बगल के जलाशय, जिससे हमसब गंडी कहते हैं, में जाकर पानी छूते थे।

तो फिर मैं कहानी पर आऊँ- मैं और संजय दोनों ने शौच करने के बाद बगल के गड्ढे में पानी में जाकर पानी छुआ फिर घर की ओर बढ़ चले।

अब लगभग शाम होनेवाली थी। कहीं अँधेरा छा जाए और वे लोग (आगे बढ़े मेरे ग्रामीण) नहीं भेंटे तो हमें काफी डर लगेगा। क्योंकि अभी डेढ़ किलोमीटर के लगभग गाँव हैं।

यह सोचकर हम लपकने लगे। यहाँ तक कि लगभग दौड़ने लगे। थोड़ी ही दूरी तय की थी कि सोंडी पुल (इसे मेरे बाबूजी ने ठेका लेकर बनाया था) के पास लगभग तीन-चार वर्षीय दो बच्चों को पुल पर सोया पाया।

एक पूरा नंगा, दूसरा सिर्फ गंजी पहने हुएँ मुझे याद तो नहीं है।

पर जितना याद है उससे यह कहूँ कि मुझे भय-सी कोई चीज नहीं लगी थी।

मैंने सोचा कि बगल में इनके माँ-बाप मछली मार रहे होंगे और इन्हें पुल पर सुला दिया होगा।

कुछ दूरी से ही उन दोनों बच्चों को दो तरफ सोया देखा था। एक, दो-तीन बार थोड़ा-सा इधर-उधर उछला या लुढ़का था।

जब हम दोनों उन दोनों बच्चों के बीच में आए और उन्हें देखने लगे तो एक स्थिर मन से बच्चे की तरह शांत होकर हमें देख रहा था।

फिर हम कुछ देर वहाँ रुककर उन्हें देखते हुए आगे बढ़ चले।

अब तो अँधेरा छाने पर था। हम दोनों तेजी से दौड़ने लगे। कुछ । ही देर बाद हम दौड़ते-दौड़ते उन तक पहुँच गये।

हमें दौड़ते हुए आता और हाँफते देख उनलोगों को कुछ और ही शक हुआ, जैसे हमारे रोंगटे खड़े कर देने में काफी था।

तीन-चार लोगों ने हमें समवेत रुप में पूछ दिया, "क्या पनडुब्बे ने खदेड़ दिया का रे ?

“ मैं तो भौंचक होकर रह गया, साथ में संजय भी "क्या मतलब- इस अर्थ में हमारी भी भाषा थी।

"दोनों उसी तरह से था रे? अबर एकदम आँखें फट गईं हमारी।

"बोलते क्यों नहीं, कुछ किया न न ?" इस बार मेरे मंझले चाचा ने सशंकित होकर पूछा ?

"म-म- मतलब...।" मैं कुछ समझकर एकदम से हड़बड़ा और डर गया था। इसका जवाब न देकर लगभग समझाने के रुप में बोले नाना ( मँझले चाचा-हमारे भांजे, हमारे जोड़-पार के और कुछ बड़े भी थे, जिनके द्वारा इन्हें नाना-नाना सुनते देख मैं भी इन्हें नाना ही कहता था।

“जब तुम पीछे रह गए थे तो हमें बता भी देते। मैदान करने लगे थे न ?" "हाँ नाना, पर बात क्या है ?"

"सोंडी पर दो लड़के मिले थे तुम्हें ?

“हाँ हाँ दोनों नंग-धडंग, सिर्फ एक लड़का गंजी पहने हुए था, पर बात क्या है ?" मैं उनके साथ-साथ बढ़ते हुए उनसे जा सटा था।

"पनडूब्बे थे दोनों।" " अरे बाप!" मैं तो मारे भय के उछल पड़ा था। लगा कि उनसे (नाना) चिपक जाऊँ।

यही स्थिति संजय की भी थी। मेरा सीना लुहार की धौंकनी की तरह तेजी से पचक-फूल रहा था- तो वे दोनों पनडुब्बे थे ?

दूसरी बात जब जान जाते कि ये पनडुब्बे हैं तब तो वहीं ही हमारे प्राण निकलकर रह जाते। पर बड़ा अच्छा किया भगवान ने जो हमारे मन में यह एहसास नहीं कराया।

नहीं तो उस समय तो हमारी इतनी उम्र थी कि उस उम्र में लोग अकेले में अपरिचित आदमी को भूत तक समझ लेते हैं।

जोर-जोर की बहती हवा भूत के होने का भय दिला जाती - मैं और संजय दोनों इतना डरे थे कि क्या जिक्र किया जाएँ उस समय से हम दोनों उनलोगों के बीच-बीच में ही चलना चाह रहे थे।

उनलोगों से हमें चलते-चलते ही जानकारी मिली कि उन लोगों ने उन दोनों पनडुब्बों को लड़ते हुए देखा था।

खूब उठा-पटक कर रहे थे आपस में दोनों। बाप रे! ऐसा कुछ...। ऐसा भी होते हैं ये लोग।

फिर हम सब घर पहुँच गए थे। अब कितना और किस प्रकार डरे रहे होंगे, बार-बार इस तरह का वर्णन क्या करूँ।

तो यही दो कहानियाँ हैं मेरी, जब मैंने भूत देखे थे। हालाँकि एक और घटना स्मृति हो रही है कि एक बार मैं शाम के समय में मैंने अपने दालान से पश्चिम और थोड़ा उत्तर की तरफ एक जलते हुए आग के तेज और बड़े गोल को धीरे-धीरे चलते हुए देखा था।

आग का वह गोला जमीन से लगभग बीस-बाईस फूट की ऊँचाई पर धीरे-धीरे उड़ रहा था। जहाँ तक याद है कि इसे भी शायद कुछ लोगों ने देखा था और कई तरह की बातें की थीं पर मुझे कुछ स्पष्ट याद नहीं है कि उनलोगों ने क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की थीं।

तो लिखना बंद करने से पहले कहना चाहूँगा कि इसे पढ़कर मात्र मनोरंजन लें, विशेष उलझने की जरुरत नहीं है।

पर जो वर्णन किया, वह बिल्कुल सत्य है।

आज भी साहित्यों में पढ़ने को मिलता है या जो लोग बिना समझे-बुझे देखे चर्चा करते हैं कि भूत-प्रेत नाम की कोई चीज नहीं है, उनका कहना बिल्कुल गलत है।

इस नाम की कोई चीज सच में है।

पर न मैं उन्हें दिखला सकता हूँ, न ही दिखलाना चाहूँगा और न ही उनसे इस विषय पर कुछ वाद-विवाद करना चाहूँगा।

क्योंकि इस प्रकार के साहित्य का उद्देश्य ज्यादा मनोरंजन ही है, जो भी साहित्य कला का एक आवश्यक अंग है।

भले ही आज के साहित्य में इस अंग की चर्चा न हो या न के बराबर हो।