बुद्ध का ग्रंथ

गवान् बुद्ध के उपदेशों का जापानी भाषा में पहले अनुवाद हुआ था।

भगवान् अनुवाद तो हो गया, किंतु वह छपे कैसे ?

उस समय कोई भी धनी व्यक्ति इस ओर ध्यान नहीं दे रहा था।

अंत में एक निर्धन बौद्ध भिक्षु ने यह काम पूरा करने का निश्चय किया।

उसने लोगों से एक-एक रुपया माँगना प्रारंभ कर दिया।

इस प्रकार, उसके पास दस हजार रुपए हो गए। ग्रंथ छपने के लिए इतना ही धन चाहिए था।

अचानक जापान के उस प्रदेश में अकाल पड़ गया।

मनुष्य और पशु-पक्षी अनाज के लिए व्याकुल होकर भटकने लगे।

उस भिक्षु ने दस हजार रुपए अकाल पीड़ितों की सेवा में लगा दिया।

अनेक लोगों ने कहा, "यह तुमने क्या किया ?

अब ग्रंथ कैसे छपेगा ?

" बौद्ध भिक्षु चुप रहा।

अकाल समाप्त होने पर उसने फिर से चंदा माँगना शुरू किया।

उसने फिर दस हजार रुपए इकट्ठे कर लिये, किंतु फिर तभी उस प्रदेश में जोरदार भूकंप आ गया।

उस भिक्षु ने फिर उन रुपयों को भूकंप पीड़ितों की सहायतार्थ खर्च कर दिया।

तब लोगों ने कहा कि भिक्षु पागल हो गया है।

भिक्षु वृद्ध हो गया था।

उसने फिर चंदा माँगने का कार्य शुरू किया।

इस बार फिर उसने दस हजार रुपए एकत्र कर लिये।

सौभाग्यवश इस बार कोई विपत्ति नहीं आई। उसने ग्रंथ छपवाया।

ग्रंथ के मुखपृष्ठ पर छपा था, 'तृतीय संस्करण' ।

उसने नीचे छापा था कि इस ग्रंथ के पहले संस्करण अहुत अच्छे थे।