पुतली रत्नमंजरी की कथा

आखिर वह दिन आया जिस दिन का राजा भोज को बेसब्री से इंतजार था। प्रातः काल वे अपने नित्यकर्मो से निवृत होकर राजा दरबार में आए। ब्राह्मणों ने स्वास्तिवाचन शुरू कर दिया। राजा भोज ने जैसे ही सिंहासन की पहली सीढी पर कदम रखा, सिंहासन में जड़ी सभी पुतलियां खिलखिला कर हंस पड़ी। इस चमत्कार को देखकर सारे राजदरबारी आश्चर्यचकित रह गए। राजा भोज भी सहम गए। एकाएक उन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए और पूछा-"पुतलियों तुम हंसी क्यों? मुझमें ऎसी क्या कमी है?"

तभी सिंहासन से रत्नमंजरी नाम की पहली पुतली राजा भोज के सामने प्रकट होकर बोली-"राजा भोज! जिस सिंहासन पर बैठने के लिए तुम इतने लालायित हो वह किस महापुरुष का है, शायद तुम नहीं जानते। इसलिए हम हंसी थी कि तुम अभी इस सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हो। यह बात सच है कि तुम तेजस्वी, बुद्धिमान, शक्तिशाली और धनवान हो, लेकिन यह सिंहासन जिसका है वह तुम से कहीं ज्यादा तेजस्वी, बुद्धिमान और ऎश्वर्यशाली था। उनका नाम था, राजा विक्रमादित्य। मैं तुमको उनके बारे में एक कथा सुनाती हूँ। उसे सुनने के बाद ही तुम्हें पता चलेगा कि वे कैसे राजा थे।" यह कहकर पुतली ने कथा सुनानी आरम्भ कर दी-

"प्राचीन काल में अम्बावती नामक राज्य में गंधर्वसेन नाम का एक धर्मात्मा एवं प्रतापी राजा राज्य करता था। राजा गंधर्वसेन की चार वर्णो की रानियां थी। एक ब्राह्मणी, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्याणी और चौथी शुद्राणी। चारों रानियों से छः पुत्रों ने जन्म लिया।

ब्राह्मणी से उत्पन्न पुत्र का नाम ब्रह्मणीत था। क्षत्रीय की कोख से तीन संतानें उत्पन्न हुई। जिनमें से एक का नाम शंख, दूसरे का विक्रम और तीसरे का भर्तृहरि था। तीसरी रानी वैश्याणी से चंद्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ और चौथी रानी शुद्राणी से धन्वन्तरि नामक पुत्र जन्मा।

ब्राह्मणी से उत्पन्न पुत्र ब्रह्मणीत सबसे बड़ा था इसलिए राजा गंधर्वसेन ने उसे अपना दीवान बना दिया लेकिन विधाता ने उसके भाग्य में कुछ और ही लिखा था। वह अपनी जिम्मेदारी अच्छी तरह नहीं निभा सका और एक दिन चुपचाप राज्य छोड़ कर कहीं चला गया। कुछ समय भटकने के बाद वह धारानगरी पहुंचा जहां उसके पूर्वज रहते थे। वहां उसने ऊंचा ओहदा प्राप्त किया और एक दिन वहां के राजा का वध करके खुद राजा बन गया।

कुछ वर्षॊं बाद ब्रह्मणीत ने उज्जैन लौटने का विचार किया लेकिन उज्जैन आते ही अचानक एक दिन उसकी मृत्यु हो गई। अब क्षत्रीय के बड़े पुत्र शंख को शंका हुई कि उसके पिता विक्रम को योग्य समझ कर उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकते हैं इसलिए एक दिन उसने अपने सोते पिता पर हमला करके उनकी हत्या कर दी और स्वयं को राजा घोषित कर दिया।

राजा बनने के बाद उसके मन में यही शंका रहती थी कि उसके बाकी चारों भाई उससे राज्य न हथिया लें इसलिए वह उनकी हत्या का षड्यन्त्र रचने लगा लेकिन उसकी यह साजिश सफल हो पाती इससे पहले ही उसके चारों भाईयों को उसके षड्यंत्र का पता चल गया और एक दिन मौका पाकर चारों भाई चुपचाप महल से निकलकर किसी अज्ञात जगह पहुंच गए। कौन कहां चला गया इसकी किसी को भी खबर नहीं थी। इससे शंख की चिन्ता और बढ गई। उसने अपने भाइयों की खोज करने के लिए अपने गुप्तचर सैनिकों को चारों दिशाओं में भेज दिया। गुप्तचरों की काफी खोजबीन के बाद भी उनका पता नहीं चला। तब शंख ने ज्योतिषियों को सहारा लिया। उसने ज्योतिषियों को बुलवाया। ज्योतिषियों ने ग्रहों और नक्षत्रों की विद्या से अपने ज्ञान के अनुसार यह भविष्यवाणी कि की तीन राजकुमार तो जंगली जानवरों के शिकार हो गए तथा चौथा राजकुमार विक्रम घने जंगल में एक सरोवर के किनारे एक कुटिया में रह रहा है और कंदमूल फल खाकर घोर तपस्या में लीन है।

ज्योतिषियों की भविष्यवाणी सुनकर शंख की परेशानी और बढ गई क्योंकि अन्य तीनों भाइयों की अपेक्षा उसे विक्रम से ज्यादा खतरा था। तब उसने ज्योतिषियों से पूछा-"विक्रम से मुझे और मेरे राज्य को कोई खतरा तो नहीं है न?"

ज्योतिषियों ने कहा-"राजन् ने अपनी तपस्या से काफी कुछ हासिल कर लिया है। अब वह पहले जैसा नहीं रहा। अब वह काफी ज्ञान और विवेक का मालिक बन गया है। उससे आपको बहुत खतरा है। वह आपसे आपका राज्य छीनकर यशस्वी सम्राट बनेगा। उसका यश दूर-दूर तक फैलेगा और इतिहास में उसका नाम होगा।" यह सुनकर शंख ज्योतिषियों पर बहुत नाराज हुआ लेकिन अब वह कर भी क्या सकता था। उसकी परेशानी और बढती गई। ज्योतिषियों के जाने के बाद उसने अपने समस्त दरबारियों को बुलाया और उनसे विचार विमर्श कर विक्रम की हत्या की योजना बनाई। उसने अपने गुप्तचरों को विक्रम की खोज के लिए भेजा। काफी खोजबीन करने के बाद आखिर गुप्तचरों को विक्रम का पता मिल गया। गुप्तचरों ने वापस आकर शंख को यह खबर सुनाई। यह सुनकर शंख बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपनी इस योजना में एक तांत्रिक को भी शामिल किया। उसने तांत्रिक से कहा-"तुम विक्रम को भगवती काली की आराधना के लिए तैयार करना मैं वहीं मंदिर के पिछवाड़े छिप जाऊंगा। जैसे ही विक्रम भगवती काली की आराधना के लिए अपना सिर झुकाएगा तभी मैं अपनी तलवार से उसकी गर्दन काट दूंगा।'

यह योजना बना कर शंख तांत्रिक को जंगल में सरोवर के किनारे विक्रम की कुटिया पर गया। तांत्रिक ने विक्रम को भगवती काली की आराधना के लिए राजी कर लिया और उसे लेकर मंदिर में आ गया जहां शंख पहले से ही छुपा बैठा था। तांत्रिक ने विक्रम को भगवती काली की प्रतिमा मे आगे सिर झुकाने के लिए कहा। विक्रम को खतरे का आभास हो गया था। उसने तांत्रिक को अपना सिर झुकाकर सिर झुकाने की विधि दिखाने को कहा। जैसे ही तांत्रिक ने सिर झुकाया विक्रम चालाकी से अपने स्थान से हट गया। मंदिर के पिछवाड़े छिपे शंख ने आकर झट से तलवार निकाली और तांत्रिक को विक्रम समझकर उसकी गर्दन काट दी। तभी मौका पाकर विक्रम ने शंख के हाथ से उसकी तलवार खींच ली और एक ही झटके में शंख की गर्दन धड़ से अलग कर दी। इस तरह विक्रम ने माता-पिता की हत्या का प्रतिशोध लेकर अपना राज्य वापस ले लिया। राज्य पाने के बाद विक्रम ने ऎसा न्याय किया कि प्रजा में उनकी जय-जयकार होने लगी। उन्होंने अपनी प्रजा को सुखी और सम्पन्न बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।'

इतनी कहानी सुनाने के बाद रत्नमंजरी नाम की वह पुतली बोली-"राजा भोज इस तरह विक्रम ने अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त किया और पिता की हत्या का भी प्रतिशोध ले लिया अगर तुमने भी कोई ऎसा ही कार्य किया हो, तो इस सिंहासन पर बैठ सकते हो।"

यह सुनकर राजा भोज चुपचाप खड़ॆ रहे। उनके पास इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं था। तब पुतली हंसती हुई बोली-'और सुनो राजा भोज, राजा विक्रमादित्य के हाथ में यह सिंहासन कैसे आया और वे विक्रम से विक्रमादित्य कैसे बने? मैं यह सब तुम्हें बताती हूँ। सुनो- विक्रमादित्य को शिकार खेलने का बहुत शौक था। एक बार शिकार खेलने के लिए वे जंगल में गए। अचानक एक हिरन का पिछा करते-करते वे जंगल में काफी दूर निकल गए लेकिन हिरण उनके हाथ नहीं लगा। थकहार कर वे एक पेड़ के नीचे बैठ गए और इधर-उधर नजरें दौड़ाने लगे। उन्होनें देखा, वे एक ऎसे वीरान जंगल में हैं जिससे बाहर निकलने का भी रास्ता नजर नही आ रहा था।

तभी उनकी नजर दूर एक चमकदार महल पर पड़ी। वे अपने घोड़े पर बैठे और धीरे-धीरे चलते हुए उस महल तक पहुच गए। वह महल लूतवरण का था। जो कि राजा बाहुबल का दीवाना था। उसने विक्रमादित्य का स्वागत-सत्कार किया। उसने विक्रमादित्य को बताया कि आप यशस्वी राजा बनेगें लेकिन उसके लिए आवश्यकता है कि राजा बाहुबल आप का राजतिलक करें। उसने यह भी बताया की हमारे राजा महादानी हैं। आप अवसर पाकर उनसे अद्भुत् स्वर्ण जड़ित सिंहासन मांग लीजिए जिसे भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उन्हें भेंट स्वरुप प्रदान किया था। वह सिंहासन आप को चक्रवर्ती सम्राट बना देगा।

यह सुनकर विक्रमादित्य राजा बाहुबल के महल में गए। राजा बाहुबल ने उनका उचित स्वागत-सत्कार किया और उनका तिलक करके उन्हें चक्रवर्ती सम्राट घोषित कर दिया। जब विक्रमादित्य ने उनसे रत्नजड़ित सिंहासन की मांग की तो राजा बाहुबल ने उन्हें सिंहासन का सच्चा अधिकारी समझ कर उसे देने में कोई संकोच नहीं किया। कुछ दिन तक राजा बाहुबल का अतिथ्य ग्रहण करने के बाद राजा विक्रमादित्य सिंहासन लेकर अपने नगर लौट आए। सिंहासन को प्राप्त करते ही उनका नाम चारों ओर फैलने लगा। दूर-दूर से राजा-महाराजा राजा विक्रमादित्य को बधाई देने वहां पहुंचने लगे। उस सिंहासन की वजह से सभी राजाओं ने इस बात को मान लिया कि विक्रमादित्य पर देवताओं की असीम कृपा है। सभी ने उन्हें चक्रवर्ती सम्राट मान लिया।" इतना कहकर वह पुतली अदृश्य होकर सिंहासन पर अपने स्थान पर समा गई। कथा सुनकर राजा भोज ने उस दिन सिंहासन पर बैठने का विचार छोड़ दिया और यह सोचकर वापस अपने महल में लौट आए कि अगले दिन अवश्य सिंहासन पर बैठूंगा।