वीर बालक अजीतसिंह और जुझारसिंह

गुरु गोविन्दसिंह आनन्दपुर के किले में थे। उनके साथ जितने सिख-सैनिक थे, उससे लगभग बीस गुनी बड़ी मुसलमानी सेना ने किले को घेर रखा था। किले में जो भोजन सामग्री थी, वह समाप्त होने लगी। सिख-सेना के सरदारों ने गुरुजी पर बार-बार दबाव डालना प्रारम्भ किया-'आप बच्चोंके साथ चुपचाप यहाँ से निकल जायॅं। देशको एवं जाति को विधर्मियों के अत्याचार से बचाने के लिये आपको बचे रहना चाहिये।'

अपने साथियों के बहुत हठ करनेपर एक दिन आधी रात को गुरुजी अपनी माता, पत्नी तथा चार पुत्रों के साथ चुपचाप किले से निकल पड़े। लेकिन वे सुरक्षित दूर नहीं जा सके थे कि मुसलमान-सेना को पता लग गया। शत्रुसेना के घुड़सवार और पैदल सैनिक मशालें ले-लेकर इधर-से-उधर दौने लगे। उन लोगों की दौड़-धूप का यह परिणाम हुआ कि गुरुगोविन्द सिंहजी, उनकी पत्नी, दो पुत्र अजीतसिंह और जुझारसिंह एक ओर हो गये और गुरुजी की माता तथा दो छोटे पुत्र जोरावरसिंह और फतहसिंह दूसरी ओर हो गये।

गुरुजी सुरक्षित निकल जायॅं इसलिए किलेमें जो सिख सैनिक थे, उन्होंने किले से निकलकर मुसलमान-सेनापर आक्रमण कर दिया। रात के अँधेरे में भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो गया। थोड़से सिख-सैनिक प्राणपण से जूझ रहे थे। लेकिन मुसलमान-सैनिक गुरुजी का भी पीछा कर रहे थे। गुरुजी के साथ जो सैनिक थे, वे शत्रु से लड़ते-लड़ते समाप्त हो गये थे। गुरुदेव के बड़े पुत्र अजीतसिंह से यह देखा नहीं गया। वे पिता के पास आये और प्रणाम करके बोले-'पिताजी! हमारे सैनिक हमलोगों की रक्षा के लिए प्राण दे रहे हैं, ऎसी दशामें मैं उन्हें मृत्यु के मुख में झोंककर भागना नहीं चाहता। आप मुझे युद्ध करने की आज्ञा दें।

पुत्र की बात सुनकर गुरुजी ने उन्हें हृदय से लगाया और कहा-बेटा! धन्य हो तुम! अपने देश और धर्म के लिए मर-मिटनेवाले ही अमर हैं। तुम अपने कर्तव्य का पालन करो।'

अजीतसिंह आठ-दस सिख-सैनिकों के साथ शत्रु के दलपर टूट पड़े। उनका आक्रमण शत्रु के लिए साक्षात यमराज के आक्रमण के समान भयंकर सिद्ध हुआ। लेकिन बहुत बड़ी सेना के सामने दस-ग्यारह मनुष्य क्या कर सकते थे। सैकड़ों शत्रुओं को सुलाकर उन्होंने भी वीरोंकी गति प्राप्त की। बड़े भाई के युद्ध में गिर जानेपर उनसे छोटे जुझारसिंह ने गुरुजी को प्रणाम करके कहा-'पिताजी! मुझे आज्ञा दीजिये, ताकि मैं भी अपने बड़े भाई का अनुगामी बन सकूँ। '

धन्य हैं वे पुत्र जो इस प्रकार देश और धर्मपर मरने को उत्सुक होते हैं और धन्य हैं वे पिता जो अपने पुत्रों को इस प्रकार आत्मबलि देने का प्रसन्नता से आशीर्वाद देते हैं। गुरुजी ने जुझारसिंह को आशीर्वाद दिया-'जाओ पुत्र! देवता तुम्हारी प्रतीक्षा करते हैं। अमरत्व प्राप्त करो।

जुझारसिंह भी अपने थोड़े से बचे हुए साथियों के साथ टूट पड़े। थके, भूखे सिख-सैनिक और उनके नेता जुझारसिंह तो अभी बालक ही थे; किंतु जब वे शत्रु से लड़ते- लड़ते युद्ध भूमि में गिरे, उस समय तक शत्रु के इतने सैनिक मारे जा चुके थे कि मुसलमान-सेनाका साहस गुरुजीका पीछा करते आगे बढनेका नहीं हुआ।