एक लड़की : एक जाम

अमृता प्रीतम की कहानियाँ

प्रसिद्ध चित्रकार सुमेश नन्द की यह कहानी असल में मैंने पिछले बरस लिखी थी।

दिल्ली में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी।

हफ्ते भर, रोज़, किसी न किसी पत्र में सुमेश नन्‍दा की कला की आलोचना होती रही।

बड़े समझदार लोग यह प्रशंसात्मक अलोचना करते थे।

मुझे चित्रकला के सम्बन्ध में सिर्फ उतनी ही जानकारी है, जितनी एक कलाविधान से अनजान, पर एक सूक्ष्म अहसास वाले आदमी को होती है।

और प्रदर्शनी के कई चित्रों की खामोश तारीफ करती मेरी आँखें सुमेश नन्‍दा के दो चित्रों के सामने जमकर रह गई थीं।

चित्र के नीचे लिखा हुआ था, “ढाई पत्ती-डेढ़ पत्ती” और दूसरे चित्र के नीचे लिखा हुआ था, "एक लड़की : एक जाम ।

पहला चित्र चाय के बाग में चाय की पत्तियाँ चुनती हुई पहाड़ी लड़कियों का था और इस चित्र का भाव चित्रकार ने ऐसे समझाया था :

चाय के सारे पौधे की अन्तिम कोंपल डेढ़ पत्ती होती है, एक पूरी बड़ी पत्ती और एक उसके साथ जुड़ी हुई छोटी-सी बच्चा पत्ती। उस डेढ़ पत्ती की चमक ही अलग होती है।

उस अन्तिम कोंपल से नीचे ढाई पत्तियाँ उगती हैं, बड़ी नर्म। और फिर उससे नीचे मोटी पत्तियों की कई शाखें ढाई पत्ती और डेढ़ पत्ती अलग तोड़कर रख लेते हैं।

इन पत्तियों से जो चाय बनती है, वह बड़ी महँगी बिकती है। बाकी हम लोग जो चाय खरीदते हैं, वह नीचे की सस्ती, मोटी पत्तियों की चाय होती है।

एक साबुत पौधे से सिर्फ चार छोटी पत्तियां झरती हैं, सारे बाग में से आखिर कितनी पत्तियां झरेंगी ? वह चाय बड़ी महँगी बिकती है, साठ रुपए पौंड से भी महँगी।

सुमेश नन्‍दा के इस चित्र में जो सबसे पहली लड़की थी, उसका मुँह आधे से भी थोड़ा दिखाई पड़ता था। हमारे सामने ज़्यादा उसकी पीठ थी, फिर भी उसके सौन्दर्य की कैसी छवि दिखती थी! लगता था, सारी पहाड़ी लड़कियाँ जैसे चाय का एक पौधा हों, बिखरा-फैला एक पौधा, और यह लड़की, इस पार खड़ी हुई लड़की,

सारे पौधे की अन्तिम कोंपल हो, डेढ़ पत्ती की छोटी, हरी चमकदार कोंपल! .. फ मैंने अपनी बात अपने पास ही रखी और चित्रकार को कुछ नहीं कहा।

दूसरा चित्र, जिसके नीचे लिखा था, 'एक लड़की : एक जाम”, एक पहाड़ी लड़की का अनोखा सौन्दर्य था; जैसे लोग कहते हैं, 'यह चित्र तो मुँह से बोलता है! वाकई ऐसा मुँह से बोलनेवाला चित्र मैंने कभी नहीं देखा था। उसके सम्बन्ध में चित्रकार ने कुछ नहीं कहा था। मैंने ही कहा, “ऐसा जाम पीने के लिए तो एक उम्र भी थोड़ी है!”

चित्रकार ने चौंककर मेरी ओर देखा। कोई साठ साल की उम्र होगी उनकी। जाने कौन-सी जवानी पिघलकर चित्रकार की आँखों में आ गई। बोले, “इस चित्र की यह व्याख्या मैंने और किसी से नहीं सुनी।

यह बिलकुल वही बात है, जो मैंने कहनी चाही थी। और तो और, मेरे मित्रों ने भी इसका यह अर्थ नहीं लगाया था।

मेरे साथ कइयों ने मज़ाक किए, "एक लड़की : एक जाम” ...और जाम नित नया होता है!”

जाने उस चित्र में कौन-सा बुलावा था! हफ्ते-भर वह प्रदर्शनी लगी रही, और मैं उस हफ्ते में तीन बार प्रदर्शनी देखने गई थी-असल में सारे चित्र नहीं, एक चित्र, 'एक लड़की : एक जाम!

किसी कला-मर्मज्ञ होने के ज़ोर से नहीं, सिर्फ मन में कुछ उठते हुए के ज़ोर से मैंने सुमेश नन्‍दा की उस कृति के सम्बन्ध में एक सादी-सी बात कही थी।

और उस सादी-सी बात ने चित्रकार का सारा मन खोलकर उसके होंठों पर ला दिया था।

“काँगड़ा-कलम को जाँचता-परखता मैं कुछ दिन काँगड़े के एक गाँव में रहा था। पालमपुर चाय के बाग अधिक दूरी पर नहीं थे। यह चित्र, 'ढाई पत्ती-डेढ़ पत्ती', मैंने वहीं बनाया था।

यह लड़की, जो इस ओर खड़ी हुई है। ध्यान से देखना, वही लड़की है, जिसे दूसरे चित्र में मैंने लिखा है, 'एक लड़की : एक जाम!”

“यह तो मैंने आपके कहने से पहले नहीं पहचाना था। पर पहले दिन ही यह चित्र देखकर मुझे लगा था, जैसे सारी लड़कियाँ चाय का एक पौधा हों और यह लड़की उस पौधे की सबसे ऊपर की कोंपल हो, छोटी, हरी और चमकदार!”

सुमेश नन्‍दा की बूढ़ी आँखों में फिर एक जवान चमक आई और उन्होंने कहा, “अब तो मैं और विश्वास से भर गया हूँ। तुमने यह बात अपने अधिकार से मुझसे निकलवा ली है। तुमने मेरे दोनों चित्रों के जैसे अर्थ दिए हैं, मेरी कहानी सुनने का तुम्हारा अधिकार हो जाता है। पहले किसी ने मुझसे यह बात नहीं सुनी।

“मैंने इस लड़की को टूणी कहकर बुलाया था। इसका नाम पूछने का भी कष्ट मैंने नहीं किया था। इसी ने, इस चाय की पत्तियाँ चुन रही ने, 'ढाई पत्ती-डेढ़

पत्ती' वाली बात मुझे सुनाई थी और मैंने उसे कहा, 'तू लड़कियों के सारे पौधे की ऊपर की पत्ती है, बड़ी महँगी!...जाने यह चाय कौन पिएगा!

“बरसात के दिन थे। एक नाला ऐसे बहा कि साथ वाले गाँवों को जोड़नेवाली सड़क उसमें डूब गई। गाँवों का आवागमन बन्द हो गया। कोई तीन दिन के बाद सड़क का जिस्म दिखाई दिया। इस तरफ से मैं जा रहा था, उस पार से वह टूणी आ रही थी। मैंने कहा, “आखिर पानी रुक ही गया। एक बार तो ऐसे लगा था, इस पानी का बहाव सूखेगा ही नहीं!

“पता है टूणी ने क्या कहा ?

कहने लगी, बाबू, यह भी कोई आदमी के आँसू हैं जो कभी न सूखें!” मैं टूणी के मुँह की ओर देखता रह गया।

उसका मुँह सुन्दर था, पर ऐसी बात भी कह सकता था, मैं यह नहीं सोच सकता था। कुछ ऐसी बात मैंने पहले एक बंगाली उपन्यास में पढ़ी थी, पर टूणी ने तो कभी बंगाली उपन्यास नहीं पढ़ा था। जाने, सारे देशों के दुःखों की एक ही भाषा होती है!

“मैं उसके घर पर गया। उसका बाप था, माँ थी, दो भाई थे और एक भाभी । मैं उसके घर का भीतर-बाहर टटोलता रहा।

वह कौन-सा दुःख था उसके मन में, जहाँ से उसकी यह बात उगी थी ?

और मैंने उसके दुःख का बीज ढूँढ लिया। उसके बापू के सर पर काफी कर्ज़ा था।

उस ओर लड़कियों की कीमत पड़ती है-तीन-चार सौ से लेकर हज़ार तक।

और कर्जा देनेवाले ने टूणी को पन्द्रह सौ रुपये के बदले उसके बापू से मांग लिया था। और टूणी कहती थी, “वह आदमी आदमी नहीं, एक देव-दानव है! मुझे सपने में भी उससे भय आता है!

“एक दिन मैंने टूणी को अलग बिठलाकर पूछा, “अगर मैं तेरे भय की रस्सी खोल दूँ ?”

“वह कैसे बाबू ?”

“मैं पन्द्रह सौ रुपए भर देता हूँ। तू अपने बापू से कह, वह सगाई तोड़ दे।”

“कोई और लड़की होती, जाने मेरे पैरों को हाथ लगाती। पर उस टूणी ने सीधा मेरे दिल में हाथ डाल दिया। कहने लगी, 'और बाबू, तू मेरे साथ ब्याह करेगा ?”

“कभी मैंने कहा था, 'टूणी! तू चाय के पौधे की सबसे कीमती पत्ती है, यह चाय कौन पिएगा ?”

और आज टूणी ने अपने प्राणों की पत्ती से मेरे लिए वह चाय बना दी थी। पर न मैंने यह बात पहले सोची थी, न मैंने कही थी। मैंने उसे समझाना चाहा कि मेरा यह मतलब नहीं था। पर उसके कपड़ों पर तो जैसे किसी ने चिनगारी फेंक दी हो।

“कहने लगी, “अरे बाबू, मैं कोई भीख माँगनेवाली हूँ ?”

“मेरी ज़िन्दगी कोई अच्छी नहीं थी। कितनी लड़कियाँ आई थीं और फिर

अपनी राह चल दी थीं। मैं ज़िन्दगी की एक छोटी-मोटी सड़क पर ही उनके साथ चल सका था; कोई लम्बा रास्ता मैंने कभी नहीं पकड़ा। और अब मेरा यह विश्वास ही खो गया था कि मैं कभी भी किसी के साथ ज़िन्दगी का सारा सफर चल सकूँगा।

“मेरी ज़िन्दगी में बड़ी तपश है। तू पी नहीं सकेगी, यह मुँह जल जाएगा!” और मैंने लाड़ से टूणी का दिल रखने के लिए उसके होंठों को अपनी अँगुली लगा दी।

“फूँक-फूँककर पी लूँगी, बाबू, यह-जैसी बात मैंने सुनी, और वह जैसा टूणी का मुँह मैंने देखा। मुझे लगा, यही टूणी है, यही टूणी, जिसके साथ मैं ज़िन्दगी का सारा रास्ता चल सकता हूँ।

“अपने और उसके फैसले को मैंने चाँदी के रुपए की भाँति फिर ठनकाकर देखा। मैंने कहा, “तुझे पता नहीं, पहले कितनी लड़कियाँ मेरी ज़िन्दगी में आ चुकी हैं। हर लड़की को मैंने शराब के एक जाम की तरह पिया और फिर एक जाम के बाद मैंने दूसरा जाम भर लिया!

“टूणी हँस दी। कहने लगी, 'क्यों बाबू तेरी प्यास नहीं मिटती ?'

“मैंने अभी कुछ नहीं कहा था कि टूणी फिर बोली, “अच्छा, एक वादा कर ले बाबू! जब तक मेरे दिल का प्याला खत्म न हो जाए, तू उतनी देर किसी दूसरे प्याले को मुँह न लगाएगा।'

“मुझे लगा, मैंने आज तक जितने भी जाम पिए थे। वे जिस्मों के जाम थे, बिलकुल जिस्मों के जाम! उनमें दिल का जाम कोई नहीं थां। अगर होता तो शायद जब तक उस प्याले की शराब खत्म न हो जाती, मैं दूसरे प्याले को मुँह न लगा सकता ।...और शायद दिल के प्याले में से शराब कभी खत्म नहीं होती।

“मैंने अपने फैसले का रुपया ठनकाकर देख लिया। टूणी का फैसला तो था ही खरा...टूणी के माँ-बाप ने हम दोनों का फैसला मान लिया। और मैं रुपयों का प्रबन्ध करने के लिए शहर में आ गया।”

सुमेश नन्‍दा ने जब अपनी यह कहानी आरम्भ की थी, उस समय आठ बजने वाले थे। आठ बजे प्रदर्शनी खत्म हो जाती थी, इसलिए कमरे में से चित्र देखने वाले लोग लौट गए थे, और नया कोई आने वाला नहीं था। कहानी भंग नहीं हुई थी। पर कहानी को यहाँ तक पहुँचाकर चित्रकार ने स्वयं ही अपनी खामोशी से उस कहानी को खड़ा कर लिया।

मैं चित्रकार को देखती रही; खड़ी हुई कहानी को देखती रही। चित्रकार जैसे एक समाधि में डूब गया था।

चपरासी प्रदर्शनी के कमरे का दरवाज़ा बन्द करने के लिए बाहर दहलीज़ों

के पास आ गया था। मैंने हाथ के इशारे से उसे खामोश रहने के लिए कहा और इन्तज़ार करने लगी, शायद यह खड़ी हुई कहानी कोई कदम उठा ले।

चित्रकार की बन्द आँखों से आँसू टपकने लगे शायद । उस पानी ने कहानी को बहाव में डाल दिया।

“मैं जब रुपए लेकर वापस गया, किस्मत ने मेरा जाम मेरे हाथों से छीन लिया धा।”

“क्या बाप ने टूणी का ज़बरदस्ती ब्याह कर दिया था ?” मैंने कॉपकर पूछा

“इससे भी भयँकर बात !...टूणी जिसे देव-दानव कहती थी, उस बूढ़े साहूकार ने अपना सौदा टूटने की खबर सुन ली थी और उसने धोखे से किसी के हाथों ट्णी को ज़हर पिला दिया था...

“टूणी की चिता में थोड़ी-सी सेंक बाकी थी, थोड़ी-सी आग। मैंने उस आग को साक्षी बनाया और चिता के गिर्द घूमकर जैसे फेरे ले लिए ।”

शायद तीस-पैंतीस बरस की उम्र में चित्रकार ने वे फेरे लिए होंगे। अगले तीस बरस उसने कैसे उन फेरों की लाज रखी होगी, यह उसके साठवें-बासठवें बरस से भी पता चलता था, कोई पूछने की बात नहीं थी। मुझे लगा, सारी बीसवीं सदी उसे प्रणाम कर रही है।

धीरे-धीरे चित्रकार के होंठ फड़के, “टूणी ने कहा था, 'एक वादा कर ले, बाबू! जब तक मेरे दिल का प्याला खत्म न हो जाए, तू उतनी देर किसी दूसरे प्याले को मुँह न लगाएगा ...वह सामने खड़ी हुई टूणी गवाह है, मैंने किसी दूसरे प्याले को मुँह नहीं लगाया।”

सामने टूणी का चित्र था। टूणी एक लड़की, एक जाम!...मौत ने चित्रकार के हाथों से वह जाम छीन लिया, पर कोई मौत उसकी कल्पना में से वह जाम न छीन सकी...और चित्रकार की सारी उम्र पीते हुए बीत गई; उस जाम की शराब खत्म न हुई!

लगभग एक बरस हो चला है, मैंने सुमेश नन्‍्दा के मुँह से यह कहानी अपने कानों से सुनी थी, और फिर अगले हफ्ते अपने हाथों से लिखी थी, पर तब उन्होंने मुझे छपाने की आज्ञा नहीं दी थी। तब मैंने कहानी थें उनका एक कल्पित नाम लिखा था। उन्होंने कहा था, 'जब तक मेरी उम्र का अन्तिम दिन नहीं आता, मेरा कोई दावा नहीं बनता। इस जाम को पीते हुए मुझे उम्र का अन्तिम दिन भी खत्म कर लेने दो, फिर इस कहानी को छपाना; अभी नहीं। और तब, बेशक मेरा नाम भी बदलकर न लिखना ।'

और अब, पिछले हफ्ते, आपने पत्रों में पढ़ा होगा, प्रसिद्ध चित्रकार सुमेश नन्‍दा

की मृत्यु हो गई। चित्रकार की कला के सम्बन्ध में पत्रों के कई कालम भरे हुए थे और एक-दो पत्रों में यह भी लिखा हुआ था, “जिस कमरे में चित्रकार ने अन्तिम साँस ली, उस कमरे में उनकी बनाई हुई एक ही तस्वीर लगी हुई थी, 'एक लड़की : एक जाम'।

उम्र छोटी थी, जाम बड़ा था-आज चित्रकार का दावा सत्य हो गया है। इस कहानी में आज मैंने कुछ नहीं बदला, सिर्फ उनका असली नाम लिख दिया है, उन्हीं के कहने के अनुसार!