किंरसा अंधे फकीर का

मुल्ला नसरुद्दीन कहानी - Mulla Nasruddin

ब्ंगदाद के खलीफा हारुन रशीद एक दिन अपने महल में उदास बैठे थे।

तभी वजीर जाफर किसी काम से वहां आ पहुंचा।

बादशाह को चिंतित देखकर वह चुपचाप हाथ बांधकर एक तरफ खड़ा हो गया।

थोड़ी देर बाद खलीफा ने आंख उठाकर उसकी तरफ देखा और फिर नजरें नीची कर लीं लेकिन बोले कुछ नहीं।

यह हाल देखकर वजीर से न रहा गया।

सिर झुका कर वह अदब से बोला - “हुजूर, आज यह कैसी उदासी आप पर छाई है, काहे का सोच है जो इतने फिक्रमंद हैं।

खलीफा बोले कोई खास बात नहीं है।

कभी-कभी मेरी हालत ऐसी हो जाती है।

अब तुम कोई तरकीब सुझाओ कि तबियत हमारी कुछ बदले और दिल से यह बोझ उठे।

इस पर वजीर ने कहा कि हुजूर का हमेशा से यह दस्तूर रहा है कि अकसर भेस बदल कर प्रजा का हाल जानने को शहर में गश्त लगाया करते हैं।

आज का दिन तो खास तौर से हुजूर ने इसी काम के लिए तय कर रखा है इसलिए बेहतर हो अगर कुछ वक्‍त इसी काम में लगाया जाए।”

खलीफा यह सुनकर उठे और मुस्कराकर वजीर से बोले - यह बात तूने अच्छी याद दिलाई।

जा, जल्दी भेस बदल कर आ।

तब तक हम भी पोशाक बदल लेते हैं।

फिर दोनों दो घड़ी शहर का चक्कर लगाएंगे और अपनी प्रजा का हाल मालूम करेंगे।

थोड़ी देर बाद दोनों अपना-अपना भेस बदल कर सौदागरों का भेस बना कर शहर का हाल-चाल मालूम करने निकल पडे।

चलते-चलते वे शहर से बाहर निकल गए।

आगे एक नदी थी।

नदी पर पुल बना था।

दोनों चाहते थे कि नदी पार कर बस्तियों में कुछ देर घूमा जाए।

तभी पुल के नुक्कड़ पर बैठे एक अंधे फकीर की आवाज उनके कानों में पडी।

दोनों रुक गए फिर फकीर ने आवाज लगाई - ओ जाने वालों!

अल्लाह के नाम पर इस अंधे फकीर को भी कुछ देते जाओ।

खलीफा ने अपनी जेब से एक अशर्फी निकाली और उसके हाथ पर रख दी।

इस पर अंधे ने खलीफा का हाथ पकड़ कर कहा - ऐ मेरे दाता, यह खैरात देकर तूने इस अंधे पर बड़ा एहसान किया।

अब एक और मेहरबानी कर दो। खलीफा ने पूछा - वह क्या ?

फकौर बोला एक धौल मेरे सिर पर लगा कि मैं इसी सजा के लायक हूं बल्कि इससे भी ज्यादा के।

और यह कह कर उसने खलीफा का हाथ छोड कर उसका दामन पकड़ लिया।

खलीफा अंधे की इस हरकत पर बडे हेरान हुए।

बोले - ऐ भले आदमी तेरे सिर पर धौल लगाकर अपनी खैरात के पुण्य को क्‍यों नष्ट करूँ ?

भला यह कोई बात हुई ? यह कह कर उन्होंने अपना दामन छुड़ाकर आगे बढ़ना चाहा।

मगर फकीर ने दामन ओर कसकर पकड़ लिया और कहा कि ऐ . मेरे मेहरबान, मेरी इस गुस्ताखी को माफ कर और एक धौल मेरे सिर पर जरूर लगा।

नहीं तो अपनी यह खेरात की हुई अशर्फी वापस ले ले क्योंकि मैंने कसम खा रखी है कि बिना धौल लगवाए खैरात नहीं लूंगा और मैं इस कसम को नहीं तोड़ूंगा।

अब खलीफा क्या करते।

मजबूर होकर आहिस्ता से एक धौल उस अंधे के सिर पर मारा और वजीर को आगे बढ़ने का इशारा किया।

अंधे ने खलीफा का दामन छोड़ दिया और दोनों हाथ उठाकर उन्हें दुआ दी।

वजीर और खलीफा दोनों वहां से आगे बढ़े।

लेकिन चंद कदम आगे जाकर खलीफा ने वजीर को हुक्म दिया - इस फकीर को कल दोपहर की नमाज के बाद हमारे दरबार में हाजिर होने का हुक्म दिया जाए।

हम इसकी अजीब कसम की वजह मालूम करना चाहते हैं।

वजीर ने वापस जाकर फकीर से कहा - वह जिन्होंने तुझे अभी अशर्फी खेरात में दी है, बगदाद के खलीफा हैं।

तू कल दोपहर को नमाज के बाद उनके दरबार में हाजिर हो।

वह तुझसे कुछ पूछना चाहते हें।

अगले दिन दोपहर की नमाज के बाद वह अंधा फकीर खलीफा के दरबार में हाजिर हुआ और उसने खलीफा को सलाम किया।

खलीफा ने पूछा - तेरा नाम क्‍या है ?

उसने कहा - बाबा अब्दुल्ला।

खलीफा ने कहा - कल मैंने एक अशर्फी तुझे दी थी तो तूने उसको लेकर क्‍यों मुझसे जिद की थी कि मैं तुझे एक धौल मारूँ या अपनी खैरात फेर लूं ?

तूने कसम क्‍यों खाई है कि जो कोई तुझे खैरात दे वह तुझे एक धौल भी मारे ? अपनी इस अजीबोगरीब कसम की वजह फौरन सच-सच बयान कर।

खलीफा का यह हुक्म सुनकर बाबा अबदुल्ला ने अपने सिर को जमीन तक झुकाया और फिर अदब से हाथ बांधकर बोला - हुजूर, पहले मेरी गुस्ताखी जो कल मैंने बेपहचाने आपके हुजूर में की थी, माफ करें ओर फिर मेरी दास्तान सुनें।

हुजूर, मैं इसी बगदाद शहर का रहने वाला हूं।

मेरा जन्म यहीं हुआ था।

मेरे मां-बाप बहुत सारी दौलत मेरे लिए छोड़कर मरे, लेकिन मैं इतना नासमझ निकला कि अपने आवारा दोस्तों के साथ उसको जल्दी ही बर्बाद कर डाला। जब पास में कुछ न रहा तो वे दोस्त भी मुझे अपने हाल पर रोता छोड़ कर अपने-अपने रास्ते चले गये। मैं सोचता रह गया कि क्‍या करूं ?

कभी दोस्तों की बेवफाई पर सिर घुनता, कभी अपनी कमअक्ली पर पछताता।

पर अब क्‍या हो सकता था ? लाचार होकर जो कुछ जमा-पूंजी बाकी रह गई थी, उसे इकट्ठा किया और किसी तरह उससे कुछ ऊंट खरीदे और उन ऊंटों को किराये पर चलाने लगा।

अब चूंकि समझ आ गई थी, इसलिए बहुत सोच-समझ कर खर्च करता और कुछ आगे के लिए भी बचा कर रखता।

जब इतना रुपया इकट्ठा हो जाता कि एक ऊंट खरीदा जा सके, तो उससे ऊंट खरीद लेता।

इस तरह होते-होते मेरे पास अस्सी ऊंट हो गए।

उन ऊंटों के किराये से मुझे काफी आमदनी होने लगी और मैं फिर से ठाठ-बाठ से अपनी जिंदगी गुजारने लगा।

लेकिन अभी मुझे पूरी तरह अक्ल कहां आई थी, हुजूर ? अगर आ गई होती तो आज इस हालत में क्यों पहुंचता ?

इतना कहते-कहते बाबा अबदुल्ला की आंखों में आंसू आ गए।

उन्हें किसी तरह अपने कुरते की आस्तीन से पोछते हुए वह बोला - खुदाबंद अब आगे का हाल अर्ज करता हूं।

एक दिन का जिक्र है।

मैं एक सौदागर का माल जहाज में लद॒वाकर अपने खाली ऊंटों को लिए बगदाद को लौट रहा था।

रास्ते में क्या देखता हूं कि एक बहुत बड़ा हरा-भरा चरागाह सामने है।

मैंने सोचा, दो घड़ी आराम कर लिया जाए।

इतनी देर में ऊंट भी अपने पेट भर लेंगे और मैं भी थोड़ा आराम कर लूंगा।

यही सोच कर मैंने ऊंटों को उस चरागाह में चरने के लिए छोड़ दिया।

खुद एक पेड के साए में आराम करने के लिए लेट गया। इतने में एक फकीर जो बगदाद से पैदल चला आ रहा था, वहां आ पहुंचा। वह उसी पेड के नीचे आकर मेरे पास बैठ गया। हम दोनों में दुआ-सलाम हुई। फिर आपस में बातचीत होने लगी।

थोड़ी देर बाद मैंने खाना निकाला, खुद खाया और फकीर को खिलाया। फकीर इस पर बहुत खुश हुआ ओर बोला यहां से बहुत ही नजदीक एक जगह हे।

वहां पर एक छिपा खजाना है, जिसमें बेशुमार दौलत है। इतनी बेशुमार कि अगर तुम उससे अपने सारे ऊंट भी भर लो तो भी ऐसा लगे कि खजाना ज्यों-का-त्यों है।

यह सुनकर मैं बहुत खुश हुआ और फकीर से बोला - आप तो फकीर हैं खुदा से लो लगाए हैं।

इसलिए दुनिया की दौलत से आपको क्‍या लेना-देना लेकिन मैं हूं दुनियादार आदमी। मेहरबानी करके मुझे उस खजाने का अता-पता बता दीजिए।

मैं अपने ऊंटों को वहां ले जाऊंगा। अगर आपका जी चाहे तो आप भी दौलत से लदा एक ऊंट ले लेना।

मैं खुशी-खुशी आपको भेंट कर दूंगा। मैंने हुजूर, यह बात कहने को तो कह दी लेकिन मेरा मन भीतर से मुझे कोस रहा था कि एक ऊंट बिना वजह इस फकीर को देने का वादा किया।

यह उसका क्‍या करेगा ? लेकिन वह फकीर भी एक ही था। बोला - वाह! एक ऊंट के

लिए मैं तुम्हें इतने कौमती और बड़े खजाने का पता क्‍यों बतलाऊं? हां, एक सूरत में उस खजाने का पता बता सकता हूं कि तुम सब ऊंट मेरे साथ ले चलो।

उस खजाने से उन्हें भर लाएंगे। फिर उन अस्सी ऊंटों में से आधे तुम्हारे, आधे हमारे। अगर मेरी यह शर्त तुम्हें मंजूर नहीं, तो तुम अपनी राह लगो और मैं अपना रास्ता पकड़ता हूं।

इस पर मैंने सोचा, चालीस ऊंटों पर लदा हुआ खजाना भी क्‍या कम हे? मेरी आने वाली सात पुश्तों को काफी होगा।

सो फौरन राजी हो गया और ऊंटों को लेकर उसके साथ चल पड़ा। थोड़ा सफर करने के बाद हम दोनों एक पहाड॒ के दर्रे में पहुंचे, जिसकी राह बहुत तंग थी।

इसलिए ऊंटों को कतार बांधकर वहां से ले जाना पड़ा।

थोड़ा आगे जाकर उस फकीर ने मुझसे कहा - अब तुम यहीं पर ऊंटों को बिठाकर मेरे साथ आओ।

मैं उन सबको वहीं बिठाकर उनके साथ हो लिया।

फकीर ने थोड़ी लकडियां जमा करके एक पथरी और लोहे का टुकड़ा अपने पास से निकालकर आग पैदा की और उनको जलाया।

फिर आग पर कोई खुश्बूदार चीज डालकर कुछ मंत्र पढ़े, जिन्हें मैं कतई न समझ सका।

मंत्रों के पढ़ते ही आग से गहरा धुआं उठा और ऊपर जाकर फट गया। अब जहां वह धुआं फटा था, वहां एक टीला नजर आने लगा। जो पहले दिखाई नहीं पड़ता था।

फिर मेरे देखते-देखते हमारी जगह से उस टीले तक एक रास्ता-सा बन गया।

गौर से देखा तो पाया कि वह रास्ता टीले के ऊपर एक बडे मकान के दरवाजे तक जाता था।

दरवाजा उस वक्‍त खुला हुआ था।

हम दोनों ऊंटों समेत उस मकान में पहुंचे।

भीतर जाकर देखा कि बेशुमार दौलत अशर्फियां, हीरे-जवाहरात और सोने-चांदी के रूप में वहां बड़े-बडे ढेरों में सजाकर रखी हुई हैं।

बस फिर क्‍या था, हम दोनों ने उस धन को ऊंटों पर लादना शुरू किया और बहुत देर की मेहनत के बाद हम सब ऊंटों को हीरों और अशर्फियों से भरकर बाहर लाए।

खजाने का दरवाजा बंद किया और चलने का इरादा करने लगे।

लेकिन तभी वह फकौर उस खजाने का दरवाजा खोलकर एक बार फिर उसके भीतर गया और वहां से एक संदूक में से एक लकड़ी की डिबिया निकालकर लाया और मुझे दिखाकर उसने वह डिबिया अपनी जेब में रख ली।

फिर हम उन ऊंटों को आधे-आधे बांटकर उस पहाडी दर्र से बाहर निकले।

थोड़ी दूर आगे जाकर एक-दूसरे से जुदा हुए।

फकीर अपनी राह पर आगे बढ़ा और मैं बगदाद के लिए रवाना हुआ।

चलते वक्‍त मैंने उस फकीर का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा किया कि उसकी मेहरबानी से मुझे इतनी दौलत मिली लेकिन अभी मैं चंद कदम ही आगे बढ़ा होऊंगा कि मुझ पर शैतान सवार हो गया।

मेरे दिल में लालच ने सिर उठाया और कहा कि यह फकीर जिसके आगे-पीछे दुनिया में कोई नहीं, इतनी दोलत का क्या करेगा ?

उल्टे इतनी दौलत और इतने ऊंयें की सार-संभाल में इसका सारा वक्‍त लगने लगेगा।

फिर यह खुदा को किस वक्‍त याद किया करेगा। यह सोच कर मैं वापस मुड़ा और उस फकीर को आवाज लगाई।

फकीर मेरी आवाज सुनकर रुक गया।

नजदीक पहुंच कर मैंने उससे कहा - बाबा आप तो फकीर हैं आप इतने धन-दौलत का क्‍या करेंगे ?

फिर आपको इतने ऊंटों की देखभाल करने में भी तकलीफ होगी।

इससे बेहतर है कि मुझे दस ऊंट और दे दो।

इस पर वह फकीर बोला कि भैया, सच कहता है कि इतने ऊंटों को रखना मेरे बस का नहीं।

तू जितने इनमें से लेना चाहे, ले ले।

लेकिन मेरे मुंह से तो दस की बात निकली थी, सो मैं दस ही लेकर वापस हो लिया। लेकिन तभी ख्याल आया कि जब इस फकीर ने दस ऊंट बिना किसी मलाल के दे दिए तो दस उससे और मांग लेने चाहिए।

यह सोचकर में फिर उस फकीर के पास गया और कहा - बाबा आप तीस ऊंटों का भी क्‍या करेंगे ? दस मुझे और दे दो। इस पर फकीर

बोला अच्छा भाई तेरी मर्जी है तो इनमें से दस और ले लो। मेरे लिए बीस ऊंट बहुत हैं।

मैं इस फकीर के हिस्से में से दस ऊंट और लेकर चला। लेकिन मेरे ऊपर तो लालच का भूत सवार था। थोड़ी दूर आगे बढ़ कर फिर मेरे दिल में ख्याल आया कि बीस ऊंटों का भी वह फकीर कया करेगा।

दस और मांग लेने चाहिए। मैं फिर उसके पास पहुंचा और दस ऊंट उससे और ले लिए लेकिन फिर भी मेरा लोभ नहीं मिटा। मैं फिर वापस लोट आया और दम-दिलासा देकर उसके पास से बाकी के सभी दस ऊंट भी ले लिए।

फकीर ने भी सबके-सब ऊंट मुझे हंसी-खुशी दे दिए और खाली हाथ वह अपनी राह चलने लगा। लेकिन मेरे सिर पर तो शामत सवार थी। शैतान ने मेरी मति हर ली थी। लोभ ने मेरे दिल में घर कर लिया था। सो हुजूर, मैं किस्मत का मारा, इतनी दोलत पर भी संतोष न कर सका।

इतना कहते-कहते बाबा अबदुल्ला का गला भर आया और डबडबाई अंधी आंखों को पगड़ी के छोर से पौंछ कर वह फकीर आगे बोला -

हुजूर पता नहीं उस दिन मेरे सिर पर कौन-सी बला सवार थी। थोड़ी दूर जाकर मेरे दिल में अचानक ख्याल आया कि वह डिबिया जो फकीर ने मुझे दिखाकर अपनी जेब में रख ली थी, वह तो फकीर के पास ही रह गई। पता नहीं उसके भीतर के मरहम में कया खूबी है उसे भी उस फकीर से मांग लेना चाहिए। वह उसका क्‍या करेगा ?

आखिर मैंने वापस जाकर उस फकीर से कहा - तुम उस डिबिया को जिसमें मरहम है, अपने पास रखकर क्या करोंगे? उसे भी मुझे दे दो। फकीर ने उसे देने से इंकार कर दिया। इस पर उसे पाने की इच्छा मेरे मन में और बलवती हुई। मैंने मन ही मन सोचा कि अगर यह फकीर उस डिबिया को राजी-खुशी नहीं देता तो उसे जबरदस्ती छीन लूंगा। शायद फकीर ने मेरे मन की बात भांप ली। उसने उस डिबिया

को अपनी जेब से निकाला और मुझे देकर कहा अगर तेरी खुशी इसी को लेने में है तो यह भी हाजिर है मगर ध्यान से सुन, तुझे इस मरहम की तासीर बताए देता हूं। यह सुनकर मैं बहुत खुश हुआ। झट डिबिया उसके हाथ से लपक कर अपनी जेब के हवाले करके बोला - हां बाबा, मेरे ऊपर आपने जब इतनी मेहरबानी की है, तब यह आखिरी मेहरबानी और कर दो। मैं सारी उम्र आपका एहसानमंद रहूंगा। बताओ, मरहम की तासीर क्‍या है?”

इस पर फकीर ने उस मरहम की यह तासीर बताई कि अगर इसको बाईं आंख बंद करके पलक के ऊपर लगाओ तो दुनिया में जितने खजाने जहां-जहां छिपे पड़े हैं, सब नजर आने लगेंगे और अगर इसी मरहम को दाईं आंख पर लगाओ तो तुम दोनों आंखों से अंधे हो जाओगे।

उस फकीर की यह बात सुनकर मैंने वह डिबिया उसे देकर कहा- “जरा इसे मेरी बाईं आंख पर लगा कर दिखाओ ताकि आपकी बात कौ सच्चाई का पता चले।” बस मैंने अपनी बाईं आंख बंद कर ली।

फकीर ने वह मरहम उसकी पलक पर लगा दिया और लो कमाल हो गया। सारी दुनिया के खजाने नजर आने लगे। तब मैंने इस लाभ में कि दाईं आंख पर मरहम लगाने से ज्यादा नजर आएंगे, अपनी दाईं आंख बंद करके फकीर से कहा कि अब जरा इस आंख पर भी लगा दो। इस पर फकीर बोला - “तुम इस आंख पर मरहम मत लगवाओ। नाहक में अंधे हो जाओगे और बाद में पछताओगे।” मगर मेरे सिर पर तो लोभ का भूत सवार था। मैं न माना। वह फकीर ज्यों-ज्यों मुझे समझाता, मेरी हठ उतनी ही और बढ़ती जाती। मैंने कहा - “बाबा, क्‍यों बहकाते हो? यह कैसे हो सकता है कि एक ही मरहम की दो तासीर हों ?” फकीर ने

मुझे बहुत समझाया लेकिन मेरे तो सिर पर शामत सवार थी, मैं किसी तरह भी न माना।

बस मेरी हठ पर उसने वह मरहम मेरी दाईं आंख पर लगा दिया और जब मैंने आंख खोल कर देखा तब अपने को दोनों आंखों से अंधा पाया। मैंने अपना सिर अपने हाथों से पीट लिया। रो-रोकर उस फकीर से कहने लगा - “जो तुम कहते थे आखिर वही हुआ। हाय! हाया बाबा, तुमने यह क्‍या कर डाला? काश! तुम मुझे वह खजाना न दिखाते तो मेरे सिर पर लालच का यह भूत न चढ़ता। हाय! अब मैं क्या करूं? बाबा तुम ये दौलत अपने साथ ले जाओ और मेरी आंखें दे दो। आंखों की रोशनी से बढ़कर दुनिया में कोई दौलत नहीं होती।”

इस पर फकीर बोला - “भाई, इसमें मेरा क्या कसूर है? मैंने तो तुम्हारे साथ ऐसी नेकी की थी कि कभी किसी ने किसी के साथ न की होगी। मगर तुमने मेरी नसीहत नहीं सुनी और इतनी दौलत पाने पर भी सब्र नहीं किया। मैंने जो कुछ किया और कहा उसे फरेब समझा। अब तुम्हें इसकी सजा भुगतनी ही होगी। इससे बचने का कोई उपाय नहीं।

मैंने रो-रोकर उस फकीर के पांव पकड़े, हाथ जोड़े बहुत-बहुत खुशामद की। लेकिन फिर उसने मेरी किसी बात का जवाब नहीं दिया। वह मुझे उसी हालत में रोता-बिखलता छोड़कर धन-दौलत से लदे वे अस्सी ऊंट अपने साथ लेकर पता नहीं किस तरफ रवाना हो गया। मैंने चिल्ला-चिलला कर उससे यहां तक कहा कि कम से कम मुझे अपने साथ शहर तक तो ले चलो, लेकिन उसने मेरी एक नहीं सुनी। बस में रोता-भटकता उस जंगल में जहां-तहां फिरने लगा। ये तो मेरे अच्छे भाग्य थे कि एक काफिला उन्हीं जंगलों से गुजर रहा था। मैं उसी के साथ बगदाद आ गया। यहां मुझ अंधे को कौन पहचानता? कौन मेरी बात का यकीन करता? और तब मैंने भूख और गरीबी से तंग आकर यह कसम खाई कि आइंदा भीख मांग कर अपना पेट भरूंगा। जो कोई मेरे हाल पर तरस खाकर भीख देना चाहेगा, उसे मेरे सिर पर एक धौल भी मारना होगा, नहीं तो वह भीख मैं नहीं लूंगा और तब से

हुजूर, बस इसी तरह बीस सालों से मैं भीख मांग कर किसी तरह अपना पेट भरता हूं। यही वजह थी खुदाबंद कि कल मैंने आपकी शान में भी गुस्ताखी की। उम्मीद है, जहांपनाह मेरी यह दास्तान सुनकर मुझे माफ कर देंगे। इतना किस्सा कहकर बाबा खामोश हो गया। और खलीफा हारुन रशीद बोले - “बाबा, तुम्हारे लालच की सजा तुम्हें मिल रही है। शायद खुदा की यही मरजी है। लेकिन हमें तुम्हारी दास्तान सुनकर बड़ा दुख पहुंचा है। हमें तुम्हारे साथ बहुत हमदर्दी है। हम तुम्हें आंखें तो नहीं दे सकते लेकिन इतना जरूर कर सकते हैं कि तुम्हें आइंदा भीख न मांगनी पड़े। इतना कहकर खलीफा ने अपने वजीर को हुक्म दिया कि बाबा अब्दुल्ला की गुजर-बसर का माकूल इंतजाम आइंदा शाही खजाने से किया जाए।”

यह कहानी सुनाकर ख़ोजा ने बादशाह से पूछा - “आलीजाह! कैसी लगी यह कहानी ?”

“बहुत अच्छी! बेहद दिलचस्प!” बादशाह बोला, “ऐसी ही दिलचस्प कोई और कहानी सुनाओ न ख़ोजा ?”

“टीक है!” खोजा बोला, “मैं आपको वह कहानी सुनाता हूं, जो मैंने एक फकीर के मुख से सुनी थी।”