भस्म हुआ भस्मासुर

एक बार देवर्षि नारद भूमण्डल में घूम रहे थे तो उन्हें वृकासुर नामक राक्षस मिला।

नारद को देखते ही उनसे कहा-'देवर्षि! आप अच्छे अवसर पर आए।

मैं आपसे एक सलाह लेना चाहता हूँ। बताइए ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कौन देवता ऎसे हैं जो शीघ्र और थोड़ी ही तपस्या में प्रसन्न हो जाते हैं?'

नारद ने सोचा, यह असुर इस समय जैसा अपना जीवन बिता रहा है, आगे भी ऎसे ही बिता सकता है, पर लगता है अब यह त्रयदेवों में किसी की विशेष आराधना कर बलशाली होना चाहता है।

वर पाने के बाद इसकी आसुरी शक्ति बहुत ही प्रबल हो जाएगी। फिर यह ब्राह्मणॊं, ऋषियों तथा देवॊं को सताया करेगा। नारद यह सोच तो रहे थे, पर वृकासुर के प्रश्न का उत्तर टालने का मतलब था, अपने लिए संकट पैदा करना।

यह सोच विचार करके देवर्षि नारद ने वृकासुर से कहा-'वृकासुर, वैसे तो तीनों देवों में से तुम किसी की भी तपस्या कर अपना मनोरथ पूरा कर सकते हो।

ब्रह्मा और विष्णु जल्दी प्रसन्न नहीं होते, उनके लिए बहुत वर्षों तक कठिन तपस्या करनी पड़ती है।

यह भी हो सकता है कि तुम्हारी आयु समाप्त हो जाए और तपस्या पूरी न हो।

हाँ, भगवान शंकर ही ऎसे हैं जो थोड़ी आराधना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। औधड़दानी तो ऎसे कि अपने भक्त की इच्छा की पूर्ति के लिए कुछ सोच-विचार ही नहीं करते । भक्त ने जो मांगा तत्काल दे दिया। तुम्हारी ही जाति के रावण तथा वाणासुर ने भगवान शिव की तपस्या से कितना वरदानी वर पाया था। अब तुम स्वयं विचार कर लो कि किसकी आराधना करनी चाहिए, जिससे शीघ्र फल मिले।'

नारद जी के मुख से ऎसी बात सुनकर वृकासुर ने भगवान शंकर की ही आराधना करने का निश्चय किया और हिमालय के केदार क्षेत्र में जाकर शिव की आराधना करने लगा। उसकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट होकर बोले-'वत्स, मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ। निःसंकोच कहो, क्या चाहते हो, वर मांगो।'

वृकासुर हाथ जोड़कर बोला-'प्रभु! नारद ने कहा था कि आप शीघ्र ही प्रसन्न होकर वर देते हैं, पर इतने वर्षों की आराधना के बाद आपने दर्शन दिए। आप शीघ्र प्रसन्न नहीं हुए, इसका मतलब नारद ने मेरे साथ छल किया। अब आप प्रसन्न होकर वर देना चाहते हैं तो मैं भी वैसा ही कठिन वर चाहता हूँ। आप कृपा कर मुझे 'मारण-वर' दीजिए।

मैं जिस किसी प्राणी के सिर पर मात्र हाथ भर रख दूं, उसी का प्राणान्त हो जाए। आप प्रसन्न हैं तो यही वर दीजिए।' शंकर जी वृकासुर की यह आसुरी मांग सुनकर हतप्रभ हो गए। पर देवता का वचन था, पूरा करना था, अन्यथा मर्यादा नष्ट होती। बोले-'जाओ, ऎसा ही होगा। तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी।'

वृकासुर बोला-'प्रभो! आपका यह वर सत्य है या नहीं, इसकी परीक्षा लेना चाहता हूँ। इसलिए पहले आपके सिर पर ही हाथ रख कर देखता हूँ कि इस वर में कितनी सत्यता है?'

असुर की ऎसी बात सुनकर भगवान शंकर अपने ही जाल में फंस गए। अब क्या करें? वह राक्षस न कुछ सुनेगा न मानेगा-ऎसा सोच कर भगवान शंकर भागे। शंकर को भागता देख उसका क्रोध बढ गया, वह उनका पीछा करने लगा। कहने लगा-'नारद की तरह आपने भी मुझसे छल किया है। वरदान की परीक्षा से डर कर क्यों भाग रहे हो?'

भागते-भागते अंत में शिव विष्णुलोक पहुँचे और विष्णु को अपनी विपदा सुनाई। विष्णु ने हंस कर कहा-'बिना सोचे-विचारे वर देने का परिणाम अब पता चला। खुद ही प्राण बचाते भागते फिर रहे हो, बताओ मैं क्या करूं? आपके वर की सत्यता तो उसे सिद्ध करनी ही होगी। किसका सिर उसके आगे करूं? शिव ने कहा-'नारायण -नारायण, मुझे कोसने से मेरा संकट दूर नहीं होगा, कुछ करिए, अन्यथा वह यहाँ भी पहुँच जाएगा।

भगवान विष्णु ने योग माया से एक वृद्ध तेजस्वी ब्रह्मचारी का स्वरूप बनाया और उधर चल पड़े जिधर से वृकासुर आ रहा था। कुछ दूर जाने पर वृकासुर आता दिखाई दिया। आगे बढकर उसे प्रणाम कर कहा-'असुरराज! कहाँ भागे जा रहे हो, लगता है आप बहुत थक गए हैं। शरीर को विश्राम दीजिए। शरीर से ही सारे कार्य सिद्ध होते हैं। इसलिए इसे अधिक कष्ट मत दीजिए। आप सब प्रकार से समर्थ हैं, फिर भी मेरे योग्य कोई कार्य हो तो बताइए।'

एक तेजस्वी ब्रह्मचारी की बातें सुनकर वृकासुर ने शिव के वरदान तथा उसकी परीक्षा की बात बताई।

इतना सुनते ही ब्रह्मचारी हंसा-'असुरराज! तुम किसके वर की परीक्षा लेना चाहते हो? उस शिव की? जिसका अपना कोई घर-बार नहीं।

जो भूत-प्रेतों के साथ घूमता रहता है, वह भला किसी को क्या वर देगा। वर देने वाले तो दो ही देवता हैं, एक ब्रह्मा दूसरा विष्णु तुम उनकी आराधना करते।

शिव के पीछे बेकार दौड़ रहे हो। वर देने वाला तो स्वयं इतना शक्तिशाली होता है कि उसके वर का असर खुद उस पर नहीं हो सकता।

उन्होंने तो तुम्हें झूठ-मूठ का वर दिया है। तुम्हारी तपस्या तो व्यर्थ गई।' ब्रह्मचारी की ऎसी बात सुनकर वृकासुर बड़ा निराश हुआ। उसका मनोबल टूट गया। कहने लगा- 'मुझे तो देवर्षि नारद ने कहा था कि शिव की आराधना करो। वे शीघ्र ही प्रसन्न होकर मनचाहा वर दे सकते हैं।'

ब्रह्मचारी ने कहा-'तुम बड़े भोले हो, नारद पर विश्वास कर लिया। अरे वह तो ऎसा घुमक्कड़ साधु है जो सबको उल्टी ही सलाह देता है। उसकी सलाह से कभी किसी का भला होता ही नहीं। तुम्हें मेरी बात का विश्वास न हो तो खुद अपने ही सिर पर हाथ रख कर देखो, कि कैसे शिव ने तुम्हें झूठा वर देकर बहकाया है। उनकी झूठ की पोल न खुल जाए, इसलिए भाग गया।'

वृकासुर का मनोबल इतना टूट चुका था कि उसे उस ब्रह्मचारी की बात में विश्वास हो गया कि शिव ने भी उसके साथ छल किया-उसे झूठा वर दिया है।

उसका विवेक नष्ट हो गया। ऎसा सोचते हुए वर की सत्यता की परख करने के लिए उसने अपने ही सिर पर हाथ रख लिया। सिर पर हाथ रखते ही भयंकर अग्नि-पुंज प्रकट हुआ और वृकासुर उसमें भस्म होकर राख की ढेर बन गया। चूंकि वृकासुर स्वयं अपने हाथों भस्म हुआ था इसलिए इसका नाम भस्मासुर भी पड़ गया।