पारिवारिक कहानी में बहुत कुछ सिखने को मिलते है और बच्चे अपने साक्षरता कौशल में सुधार करने के साथ-साथ पारिवारिक विरासत के बारे में भी सीख सकते हैं। परिवार-आधारित लेखन परियोजनाओं का उपयोग करके, आप माता-पिता के साथ संबंध बना सकते हैं, और बच्चों को उनकी अपनी विरासत और उनके आस-पास की विविधता में मूल्य देखने में मदद कर सकते हैं।
परिवार हमारी लाइफ का सबसे जरुरी हिस्सा है, जो हर सुख-दुख में आपका सपोर्ट सिस्टम बनती है।
कुछ बातें एक उम्र गुजर जाने के बाद ही समझ में आती हैं।
मां की हर बात का फलसफा मुझे अब समझ आने लगा है।
क्या करूं मां बन कर, सोचना जो आ गया है
मैं अकेली बैठी धूप सेंक रही हूं. मां की कही बातें याद आ रही हैं।
मां को अपने पास रहने के लिए ले कर आई थी।
मां अकेली घर में रहती थीं।
हमें उन की चिंता लगी रहती थी।
पर मां अपना घर छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं चाहती थीं।
एक बार जब वे ज्यादा बीमार पड़ीं तो मैं इलाज का बहाना बना कर उन्हें अपने घर ले आई।
पर पूरे रास्ते मां हम से बोलती आईं, ‘हमें क्यों ले जा रही हो ?
क्या मैं अपनी जड़ से अलग हो कर तुम्हारे यहां चैन व सुकून से रह पाऊंगी ?
किसी पेड़ को अपनी जड़ से अलग होने पर पनपते देखा है।
मैं अपने घर से अलग हो कर चैन से मर भी नहीं पाऊंगी।
’ मैं उन्हें समझाती, ‘मां, तुम किस जमाने की बात कर रही हो।
अब वो जमाना नहीं रहा. अब लड़की की शादी कहां से होती है,
और वह अपने हसबैंड के साथ रहती कहां है. देश की तो बात ही छोड़ो, लोग अपनी जीविका के लिए विदेश जा कर रह रहे हैं।
मां, कोई नहीं जानता कि कब, कहां, किस की मौत होगी।
‘घर में कोई नहीं है. तुम अकेले वहां रहती हो. हम लोग तुम्हारे लिए परेशान रहते हैं।
यहां मेरे बच्चों के साथ आराम से रहोगी. बच्चों के साथ तुम्हारा मन लगेगा।’
कुछ दिनों तक तो मां ठीक से रहीं पर जैसे ही तबीयत ठीक हुई, घर जाने के लिए परेशान हो गईं।
जब भी मैं उन के पास बैठती तो वे अपनी पुरानी सोच की बातें ले कर शुरू हो जातीं।
हालांकि मैं अपनी तरफ से वे सारी सुखसुविधाएं देने की कोशिश करती जो मैं दे सकती थी पर उन का मन अपने घर में ही अटका रहता।
आज फिर जैसे ही मैं उन के पास गई तो कहने लगीं, ‘सुनो सुनयना, मुझे घर ले चलो।
मेरा मन यहां नहीं लगता. मेरा मन वहीं के लिए बेचैन रहता है।
मेरी सारी यादें उसी घर से जुड़ी हैं।
और देखो, मेरा संदूक भी वहीं है, जिस में मेरी काफी सारी चीजें रखी हैं।
उन सब से मेरी यादें जुड़ी हैं. मेरी मां का (मेरी नानी के बारे में) मोतियों वाला बटुआ उसी में है।
उस में तुम लोगों की छोटीछोटी बालियां और पायल, जो तुम्हारी नानी ने दी थीं, रखी हैं।
तुम्हारे बाबूजी की दी हुई साड़ी, जो उन्होंने पहली तनख्वाह मिलने पर सब से छिपा कर दी थी, उसी संदूक में रखी है।
उसे कभीकभी ही पहनती हूं।
सोचा था कि मरने के पहले तुझे दूंगी।’
मैं थोड़ा झल्लाती हुई कहती, ‘मां, अब उन चीजों को रख कर क्या करना।’
आज जब उन्हीं की उम्र के करीब पहुंची हूं तो मां की कही वे सारी बातें सार्थक लग रही हैं।
आज जब मायके से मिला पलंग किसी को देने या हटाने की बात होती है तो मैं अंदर से दुखी हो जाती हूं
क्योंकि वास्तव में मैं उन चीजों से अलग नहीं होना चाहती।
उस पलंग के साथ मेरी कितनी सुखद स्मृतियां जुड़ी हुई हैं।
मैं शादी कर के जब ससुराल आई तो कमरे का फर्श हाल में ही बना था, इसलिए फर्श गीला था।
जल्दीजल्दी पलंग बिछा कर उस पर गद्दा डाल कर उसी पर सोई थी।
आज भी जब उस पलंग को देखती हूं या छूती हूं तो वे सारी पुरानी बातें याद आने लगती हैं।
मैं फिर से वही 17-18 साल की लड़की बन जाती हूं।
लगता है, अभीअभी डोली से उतरी हूं व लाल साड़ी में लिपटी, सिकुड़ी, सकुचाई हुई पलंग पर बैठी हूं।
खिड़की में परदा भी नहीं लग पाया था. चांदनी रात थी।
चांद पूरे शबाब पर था और मैं कमरे में पलंग पर बैठी चांदनी रात का मजा ले रही हूं।
कहा जाता है कि कभीकभी अतीत में खो जाना भी अच्छा लगता है।
सुखद स्मृतियां जोश से भर देती हैं, उम्र के तीसरे पड़ाव में भी युवा होने का एहसास करा जाती हैं।
पुरानी यादें हमें नए जोश, उमंग से भर देती हैं, नब्ज तेज चलने लगती है और
हम उस में इतना खो जाते हैं कि हमें पता ही नहीं चलता कि इस बीच का समय कब गुजर गया।
मैं बीचबीच में गांव जाती रहती हूं।
अब तो वह घर बंटवारे में देवरजी को मिल गया है पर मैं जाती हूं तो उसी घर में रहती हूं।
सोने के लिए वह कमरा नहीं मिलता क्योंकि उस में बहूबेटियां सोती हैं।
मैं बरामदे में सोती हुई यही सोचती रहती हूं कि काश, उसी कमरे में सोने को मिलता जहां मैं पहले सोती थी।
कितनी सुखद स्मृतियां जुड़ी हैं उस कमरे से, मैं बयान नहीं कर सकती।
ससुराल की पहली रात, देवरों के साथ खेल खेलने, ननदों के साथ मस्ती करने तक सारी यादें ताजा हो जाती हैं।
अब हमें भी एहसास हो रहा है कि एक उम्र होने पर पुरानी चीजों से मोह हो जाता है।
जब मैं घर से पटना रहने आई तो मायके से मिला पलंग भी साथ ले कर आई थी।
बाद में नएनए डिजाइन के फर्नीचर बनवाए पर उन्हें हटा नहीं सकी।
और इस तरह सामान बढ़ता चला गया. पुरानी चीजों से स्टोररूम भरता गया।
बच्चे बड़े हो गए और पढ़लिख कर सब ने अपनेअपने घर बसा लिए।
पर मैं ने उन के खिलौने, छोटेछोटे कपड़े, अपने हाथों से बुने हुए स्वेटर, मोजे और टोपियां सहेज कर रखे हुए हैं।
जब भी अलमारी खोलती हूं और उन चीजों को छूती हूं तो पुराने खयालों में डूब जाती हूं।
लगता है कि कल ही की तो बातें हैं।
आज भी राम, श्याम और राधा उतनी ही छोटी हैं और उन्हें सीने से लगा लेती हूं।
वो पुरानी चीजें दोस्तों की तरह, बच्चों की तरह बातें करने लगती हैं और मैं उन में खो जाती हूं।
वो सारी चीजें जो मुझे बेहद पसंद हैं, जैसे मांबाबूजी, सासूमांससुरजी व दोस्तों द्वारा मिले तोहफे भी।
सोनेचांदी और आभूषणों की तो बात ही छोडि़ए, मां की दी हुई कांच की प्लेट भी मैं ने ड्राइंगरूम में सजा कर रखी हुई है।
मां का मोती वाला कान का फूल और माला भी हालांकि वह असली मोती नहीं है शीशे वाला मोती है पर उस की चमक अभी तक बरकरार है।
मां बताती थीं कि उन को मेरी नानी ने दी थी।
मैं ने उन्हें भी संभाल कर रखा हुआ है कि नानी की एकमात्र निशानी है।
और इसलिए भी कि पुरानी चीजों की क्वालिटी कितनी बढि़या होती थी।
आज भी माला पहनती हूं तो किसी को पता नहीं चलता कि इतनी पुरानी है।
वो सारी स्मृतियां एक अलमारी में संगृहीत हैं, जिन्हें मैं हर दीवाली में झाड़पोंछ कर फिर से रख देती हूं. राधा के पापा कहते हैं,
‘अब तो इन चीजों को बांट दो.’ पर मुझ से नहीं हो पाता।
मैं भी मां जैसे ही सबकुछ सहेज कर रखती हूं।
उस समय मैं मां की कही बातें व उन की भावनाएं नहीं समझ पाती थी।
अब मेरे बच्चे जब अपने साथ रहने को बुलाते हैं तो हमें अपना घर, जिसे मैं ने अपनी आंखों के सामने एकएक ईंट जोड़ कर बनवाया है,
को छोड़ कर जाने का मन नहीं करता. अगर जाती भी हूं तो मन घर से ही जुड़ा रहता है।
पौधे, जिन्हें मैं ने वर्षों से लगा रखा है, उन में बच्चों जैसा ध्यान लगा रहता है।
इसी तरह और भी कितनी ही बेहतरीन यादें सुखदुख के क्षणों की साक्षी हैं जिन्हें अपने से अलग करना बहुत कठिन है।
अब समझ में आता है कि कितनी गलत थी मैं. मेरी शादी गांव में हुई।
पति के ट्रांसफरेबुल जौब के चलते इधरउधर बहुत जगह इन के साथ रही।
सो, अब जब से पटना में घर बनाया और रहने लगी तो अब कहीं रहने का मन नहीं होता।
जब मुझे इतना मोह व लगाव है तो मां बेचारी तो शादी कर जिस घर में आईं उस घर के एक कमरे की हो कर रह गईं।
वे तो कभी बाबूजी के साथ भी रहने नहीं गई थीं।
इधर आ कर सिर्फ घूमने के लिए ही घर से बाहर गई थीं।
पहले लोग बेटी के यहां भी नहीं जाते थे. सो, वे कभी मेरे यहां भी नहीं आई थीं।
घर से बाहर पहली बार रह रही थीं. ऐसे में उन का मन कैसे लगता।
आज उन सारी बातों को सोच कर दुख हो रहा है कि मैं मां की भावनाओं की कद्र नहीं कर पाई।
क्षमा करना मां, कुछ बातें एक उम्र के बाद ही समझ में आती हैं।