कलिंग पर मगध की विजयपताका फहराने के बाद जब अशोक खुशीखुशी कलिंग की धरती को देखने निकला
तो उसे हराभरा कलिंग मरघट सा दिखाई दिया।
अचानक इस भयानक निस्तब्धता को चीरती हुई एक आवाज आई, "पानी.... पानी.... पानी....
बात है हजारों साल पहले की। उस समय मगध के राजा अशोक एवं कलिंग के राजा के बीच घमासान युद्ध हुआ था।
भारत के इतिहास में कलिंग का युद्ध एक महत्त्वपूर्ण घटना है।
यह कथा कलिंग युद्ध की ही है। सम्राट अशोक की तूती सर्वत्र बोल रही थी। पहले उस ने गिरिनार और गांधार पर विजय हासिल की।
फिर तक्षशिला और उस के बाद कलिंग पर चढ़ाई कर दी। कलिंग उन दिनों बड़ा सजासंवरा राज्य हुआ करता था।
वहां का राजकवि एक ब्राह्मण रत्नाकर
था. उस की आवाज हजारों में भी
आसानी से पहचानी
जा सकती थी।
वह था भी काफी खूबसूरत।
सिर के केश घुंघराले थे, जिस की कई लटें उस के चेहरे पर झूलती रहती थीं
और उस की सुदर्शनता को बढ़ाती रहती थीं।
अशोक ने भी
राजकवि रत्नाकर के संबंध में काफी सुन रखा था।
मगर उसे देखने का अवसर अभी तक नहीं मिल पाया था।
अशोक की पत्नी विदिशा भी राजकवि रत्नाकर के गायन की खूब प्रशंसा करती थी।
मगध सम्राट अशोक के आक्रमण से कलिंग नरेश घबराया नहीं, बल्कि मुकाबले के लिए युद्ध भूमि में उतर आया।
राजकवि रत्नाकर भी छाया की भांति कलिंग नरेश के साथ रहता था।
उस की वीरता भरी कविताएं सुन कर वीरों की भुजाएं फड़क उठीं।
ऐसा लगा, मानो रणचंडी ने प्रलय राग छेड़ दिया हो।
अशोक की सेना मैदान छोड़ कर भागने लगी।
भागती हुई सेना को देख कर अशोक दुखी हो उठा।
किंतु ज्यादा विलंब न कर अशोक ने सेना को फिर से सुसज्जित किया और लड़ाई जारी रखी।
कलिंग नरेश वीरता से लड़ते हुए मारा गया। कलिंग पर मगध की पताका फहरा दी गई।
उस जीत से अशोक की खुशी का ठिकाना न रहा। वह अपने कुछ सैनिकों को साथ ले कर कलिंग की धरती देखने पहुंच गया।
कुछ दिनों पूर्व का हंसताखेलता हराभरा कलिंग मरघट सा सूना पड़ा था।
चारों ओर एक दमघोंटू आवरण पड़ चुका था।
अचानक इस भयानक निस्तब्धता को चीरती हुई एक आवाज आई, “पानी... पानी... पानी...'
अशोक उस कराहती आवाज की तरफ बढ़ गया. एक रणबांकुरा भूमि पर पड़ा,
अपने जीवन की अंतिम घड़ियां गिन रहा था। उस का सारा शरीर खून से लथपथ था।
तलवार के वार से युवक की एक आंख बाहर निकल आई थी और एक पैर भी आधा कट कर झूल रहा था।
अशोक एकटक उस योद्धा की ओर देखने लगा। उसी समय युवक ने करवट बदली और बोला, “हे धरती मां,
मुझे बहुत दुख है कि मैं तुम्हारे चरणों में बेड़ियां डालने वाले शत्रु का सिर काट कर नहीं डाल सका।
पर मां, हमारा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा...आह... पानी...पानी..."
“कौन हो तुम?” अशोक ने पूछा।
“तुम कौन हो?” योद्धा ने उलट कर प्रश्न किया।
अशोक सकपका गया।
योद्धा ने पुनः पूछा, “कौन हो तुम? मेरे अंतिम समय में विघ्न डालने क्यों आ पहुंचे?"
“मैं भी यही जानना चाहता हूं कि तुम कौन हो?"
युवक हंसा, “कौन हूं मैं? मैं कलिंग का एक अदना सा कण हूं, महाशय।
मैं ने सोचा था कि दूसरे की धरती पर अधिकार करने वाले अशोक का सिर
काट दूंगा. किंतु यह संभव नहीं हो पाया।
मैं इस दुख को लिए जा रहा हूं।
” घायल योद्धा की बात सुन कर मगध सम्राट अशोक रो पड़ा।
वह दुखी मन से बोला, “युवक, मैं ही अशोक हूं।
मेरी युद्धलिप्सा के कारण ही तुम्हारा यह हाल हुआ है.
किंतु अब मैं क्षमा मांगता हूं। चलो, तुम्हें अपने शिविर तक ले चलूं।
मैं तुम्हारा इलाज कराऊंगा।”
योद्धा फिर कटुता से हंसा और बोला, “सम्राट, मैं अंतिम घड़ी में अपने प्राणों से प्यारी धरती को क्यों छोडूं।
अपनी मातृभूमि की मर्यादा की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करना ही मेरे जीवन का अंतिम लक्ष्य है।”
“क्या तुम मेरी बात नहीं मानोगे?”
अशोक बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा।
फिर वह योद्धा के कंधे पर हाथ रख कर बोला, “तुम्हारी देशभक्ति ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी है।
मैं आज के बाद कभी भी युद्ध न करने का प्रण करता हूं।
पर तुम मेरे लायक कोई सेवा तो बताओ।
“अशोक, यदि तुम कुछ करना ही चाहते हो तो कलिंग की इस लाल के रक्त से सिंचित है।
' मिट्टी को माथे से लगाओ और इसे भी अपनी मां कहो, क्योंकि यह वीरों
“योद्धा, मैं इस लाल मिट्टी को मां कह कर प्रणाम करता हूं, जिस में तुम जैसे देशभक्त बेटे हैं।
अब तो तुम मुझे अपना परिचय दे दो।”
“मेरा नाम रत्नाकर है. मैं कलिंग दरबार का राजकवि हूं।”
इतना कह कर घायल रत्नाकर ने एक गहरी आह भरी।
फिर सदा के लिए चिरनिद्रा में
सो गया.
अशोक रो पड़ा। किंतु वह अब क्या कर सकता था। बस, दुखी हो कर
अपने शिविर में लौट आया।