नामी से नाम बड़ा

लंका विजय के पश्चात जब राम अयोध्या लौटे और राजतिलक हो गया तो एक दिन राजदरबार में महर्षि वशिष्ट, विश्वामित्र, नारद तथा अन्य की ऋषि धार्मिक विषयों पर विचार-विमर्श के लिए पधारे।

जब उसी प्रकार के विषयों पर चर्चा चल रही थी तो देवर्षि नारद ने एक प्रश्न उठाया कि नाम और नामी में कौन श्रेष्ठ है ? ऐसे प्रश्न को सुनकर ऋषियों ने कहा - नारद जी! नामी से तुम्हारा क्या तात्पर्य है, स्पष्ट करो।

नारद जी ने कहा - ऋषियों नाम तथा नामी से तात्पर्य है कि भगवान नाम का जप-भजन श्रेष्ठ है या स्वयं भगवान श्रेष्ठ हैं ?

नारद जी की बात सुनकर ऋषियों ने हंसकर कहा - अरे नारद! तुमने यह कैसे बच्चों जैसा प्रश्न किया है।

निश्चय ही भगवान श्रेष्ठ हैं क्योंकि उन्हीं के नाम का तो जप किया जाता है।

नारद ने कहा - नहीं आपकी यह धारणा ठीक नहीं है। मेरे विचार से भगवान से बढ़कर उनका नाम है।

भक्त को भगवान के नाम के जप से ही शक्ति मिलती है।

क्योंकि नाम के भजन के बिना भगवान कहाँ कृपा करते हैं।

पर यह बात सबने आसानी से स्वीकार नहीं की तो नारद ने कहा - अपने मत की प्रतिष्ठा के लिए मैं इसे उचित समय पर प्रमाणित करूंगा।

इसके कुछ देर बाद राजदरबार स्थगित हो गया। हनुमान उस दिन दरबार में उपस्थित नहीं थे इसलिए हुनमान को इस विवाद के बारे में कुछ नहीं पता था।

दूसरे दिन राजदरबार लगने से पहले नारद ने हनुमान को बुलाया और कहा - हनुमान! राजदरबार में जाने पर तुम श्रीराम तथा उपस्थित ऋषियों को विनय पूर्वक प्रणाम करना। पर विश्वामित्र को प्रणाम मत करना। वे भले ही ऋषि का चोला धारण किए है पर वे ब्राह्मण नहीं हैं। क्षत्रियों की पूजा ब्राह्मणों जैसी नहीं होती।

हनुमान ने सोचा नारद देवताओं के ऋषि हैं, ठीक ही कह रहे होंगे। उनकी बात अवश्य माननी चाहिए। उन्होंने कहा - ठीक है देवर्षि, मैं ऐसा ही करूंगा।

दरबार में भगवान श्रीराम सिंहासन पर बैठे थे। मंत्री तथा ऋषि आदि भी अपने-अपने आसन पर विराजमान थे। थोड़ी ही देर में हनुमान जी आए। भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया फिर ऋषियों का चरण स्पर्श कर प्रणाम किया फिर उन्हीं के बीच बैठे विश्वामित्र को न तो उन्होंने प्रणाम किया और न किसी प्रकार का आदरभाव दिखाया। हनुमान के इस व्यवहार से विश्वामित्र ने अपने को बड़ा अपमानित समझा।

वे राजा तथा ऋषियों के बीच इस प्रकार अपनी उपेक्षा था अपमान को सहन न कर सके। तत्काल ही क्रोध में उठ खड़े हुए और श्रीराम से बोले- श्रीराम! तुमने अपने इस मुंहलगे सेवक की धृष्टता देखी ?

भरे दरबार में इसने किस प्रकार मेरी उपेक्षा की तथा उद्धत भाव से मेरा अपमान किया।

श्रीराम ने कहा - गुरुदेव शांत हो जाइए। मैं हनुमान से इस धृष्टता का कारण पूछूंगा।

विश्वामित्र का क्रोध शांत नहीं हुआ, उन्होंने कहा - यह तो आपने प्रत्यक्ष देखा, पूछने की क्या आवश्यकता है ?

अस्त्र-शस्त्र के क्षेत्र में मैं तुम्हारा गुरु रहा हूँ। यह गुरु-आज्ञा है, इसे दण्ड दीजिये।

नारद ने भी विश्वामित्र की हाँ में हाँ मिलाई तथा कहा - भगवान! विश्वामित्र ठीक कहते हैं। हनुमान ने इनका प्रत्यक्ष अपमान किया है। आपके उदण्ड सेवक को दण्ड मिलना चाहिए।

नारद की बार सुनकर हनुमान असमंजस में पड़ गए। भरे दरबार में अपनी स्थिति देखकर कुछ बोल तो न सके, पर सोचने लग गए कि जिस नारद के कहने से मैंने ऐसा किया, व्ही नारद अब मेरा बचाव न करके मुझे दण्ड देने की बात में सहमति जता रहे हैं।

नारद का यह चरित्र समझ में नहीं आता। इधर की उधर लगाना और दो लोगों के बीच भ्रम पैदा करके उन्हें लड़ने में इन्हें कौन-सा आनंद आता है ? भले काम को बिगाड़ने वाला यह कैसे ऋषि है ?

भगवान श्रीराम किसी प्रकार की दण्ड की घोषणा करते इससे पहले ही नारद ने कहा - भगवन! इस संबंध में शांत भाव से विचार कर कल दण्ड दीजिएगा। उत्तेजित अवस्था में अभी इस समय हनुमान को दण्ड देना उचित नहीं।

सबने इस सुझाब को स्वीकार किया और सभा स्थगित हो गई।

रात को हनुमान नारद के आश्रम में आए और कहा - देवर्षि! आप यह कौन-सा खेल खेल रहे हैं ? मेरा वध कराकर आपको क्या मिलेगा ? मैंने तो जो कुछ अविनय किया वह आपकी आज्ञा से ही किया था।

नारद हंस कर कहा - हनुमान निराश मत होओ। चिंता मत करो। मेरे कहने से तुमने जो किया है, उसके लिए दिए जाने दण्ड से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। तुम्हें दण्ड मिलेगा, पर तुम्हारा बाल भी बांका नहीं होगा।

मैं जैसा कहता हूँ, बस वैसा ही कल करना।

कल प्रातः काल सूर्य तट पर 'ऊँ रां रामाय नमः ' इस मंत्र का जाप करते रहना। कोई कुछ कहे, तुम कुछ मत सुनना, बस यह मंत्र प्रेम-भाव से जपते रहना।

प्रातः हुई। हनुमान जी स्नान कर सरयू तट पर खड़े होकर मंत्र जाप करते। दरबार लग जाने पर जब हनुमान दरबार में उपस्थिति न हुए तो श्रीराम ने पूछा - हनुमान कहाँ है अभी तक नहीं आए ?

विश्वामित्र ने कहा - आप आज दण्ड देने वाले थे शायद इसलिए डर कर नहीं आया।

नारद ने कहा - मैंने अभी थोड़ी देर पहले सरयू तात पर उसे स्नान ध्यान करते हुए देखा है।

भगवान राम ने कहा - यह हनुमान की एक और उद्दण्डता है। हम स्वयं तात पर जाकर वहीं हनुमान को दण्डित करेंगे।

राम विश्वामित्र, ऋषियों तथा मंत्रियों के साथ सरयू तात पर हनुमान को दण्ड देने के लिए पधारे। श्रीराम अपने भक्त को बार-बार करुणा भरी दृष्टि से देखते तथा सोचते कि अपने दुर्दिन के साथी ऐसे परम् भक्त पर कैसे बाण चलाए।

उधर गुरु विश्वामित्र के कोप का डर भी उन्हें सत्ता रहा था।

गुरु की मर्यादा की रक्षा के लिए उन्होंने हनुमान को दण्ड देने का निश्चय किया। श्रीराम ने धनुष पर बाण चढ़ाए और हनुमान को लक्ष्य बनाकर बाण छोड़ दिए। अरे यह क्या ? बाण तो हनुमान जी के शरीर से कुछ दुरी पहले ही रुक गया। राम बाण पर बाण मारते रहे पर एक भी बाण हनुमान के शरीर को नहीं छुआ। उधर हनुमान राम के बाणों के प्रहार से निश्चित नारद के बताए मन्त्र का जप करते रहे।

वह मन्त्र जैसे हनुमान का कवच बन गया।

यह देखकर श्रीराम को बड़ा आश्चर्य हुआ। हनुमान में यह कैसी शक्ति आ गयी है।

उनके दण्ड का प्रयास व्यर्थ हो रहा था। विश्वामित्र को लग रहा था कि राम अपने भक्त को बचाने के लिए जानबूझ कर इस तरह बाण चला रहे हैं कि उनको चोट न पहुंचे।

अपनी इस असफलता से विचलित होकर राम ने ब्रह्मास्त्र उठा लिया।

राम ने ब्रह्मास्त्र हाथ में लिया तो हाहाकार मच गया। नारद ने कहा - ऋषिवर विश्वामित्र, हनुमान के अपराध को क्षमा करें। अगर राम का ब्रह्मास्त्र छूट गया तो सिर्फ हनुमान ही नहीं मरेंगे बल्कि सारे लोक में प्रलय मच जाएगा।

ब्रह्मास्त्र से निकली ज्वाला देखकर विश्वामित्र भी डर गए।

उन्होंने राम को रोकते हुए कहा - राम ब्रह्मास्त्र को वापस तूणीर में रखिए। हनुमान के अविनय को मैंने क्षमा किया। इतना सुनते ही हनुमान को जैसे जीवनदान मिला। राम को धर्म-संकट से मुक्ति मिली।

सब लोग प्रसन्न हुए।

हनुमान ने आकर विश्वामित्र से क्षमा मांगी और नारद जी की और देखा। नारद ने हंस कर कहा - प्रभु इसका कारण मैं हूँ। मैं कहा था ना भगवान से बढ़कर भगवान का नाम-जपना श्रेष्ठ है। उसे प्रत्यक्ष सिद्ध कर दिया।

हनुमान ने इष्ट देव भगवान राम के नाम के बीज-मन्त्र से भगवान की शक्ति क्षीण कर दी। जिस प्रभु के नाम का जप होता है, वह प्रभु अपने नाम-जाप की शक्ति के आगे शक्तिहीन हो जाते हैं।

इसलिए कहता हूँ कि नामी से नाम बड़ा। यह कहकर नारद देवलोक को चले गए।