राहुल त्रिवेदी नाम का एक होटल मैनेजर अपनी पत्नी, ।
दो बच्चों और बूढ़ी मां के साथ दिल्ली के बिलासपुर में रहा करता था ।
उसकी मां का नाम था सावित्री देवी, उन्हें शुगर और बीपी की बीमारी थी,।
उनकी हाथ व मुंह की झुरिया साफ नजर आती थी,।
सावित्रि को अपने बेटे से बहुत स्नेह था, बचपन से ही वह अपने बेटे को पलकों पे बिठा कर रखा करती थी और उसकी सारी फरमाइशों को पूरा करती थीं ।
वो कहते है ना कि बच्चे कब बड़े हो जाते हैं मां बाप को पता ही नहीं चलता है।
राहुल का होटल मैनेजर के तौर पर जॉब हो गया था।
और उसे अच्छी तनख्वा भी मिलने लगी थी।
एक दिन वह अपनी मां से कहता है कि –“ जब तक घर का मरम्मत का काम खत्म नहीं हो जाता है आप वृद्धा आश्रम में रह लो..।
ममता से भरी मां बेटे की बातो को सुनकर वृद्धा आश्रम जाने को तैयार हो जाती है।
उस बड़े घर में कई बुजुर्ग स्त्री और पुरुष भी थे. उन्हीं में से एक ने सावित्री से कहा-"आपको भी बेटे ने घर से निकाल दिया ?"
सावित्री ने चिढ़ कर एवं बड़े अभिमान से कहा- “नहीं... नहीं, मेरा बेटा ऐसा नहीं है।
वह तो श्रवण कुमार है, वो तो उसके घर में मरम्मत का काम होने वाला है, इसलिए एक सप्ताह के लिए मैं यहां रहने आयी हूं"।
“रहने दीजिए सावित्री जी, ये सब बहाने हैं". बुजुर्ग ने कहा।
सावित्री का समय उन नये दोस्तों के साथ कटने लगा, पर उसका ध्यान घर पर ही लगा रहता।
सात दिन बीत चुके थे, पर सावित्री का बेटा नहीं आया और न ही उसका कोई फोन आया।
तब सावित्री ने ही बेटे को फोन लगाया और पूछा- "कब आ रहे हो लेने ?"
बेटे ने काम का बहाना करके फोन काट दिया कुछ और दिन बीत गये, पर वह नहीं आया।
अब तो वह फोन भी नहीं उठाता था. सावित्री के सात दिन सात महीने में बदल गये, पर वह नहीं आया।
आखिरी सांस तक यह इंतजार इंतजार ही रह गया ।