कान्यकुब्ज में द्रुमिल नाम का एक शूद्र रहता था।
उसकी पत्नी कलावती बांझ होने पर भी पतिव्रता थी। उसके बांझपन का कारण उसके पति में दोष होना था।
एक बार उसके निवास क्षेत्र के समीप महातपस्वी कश्यप जी का शुभ आगमन हुआ तो द्रुमिल ने अपनी पत्नी को महर्षि कश्यप से गर्भाधान कराने का आदेश दिया।
पति की अनुमति से कलावती प्रसन्न मन से कश्यप के समीप गई, परन्तु कश्यप जी के तेज को न सह पाने के कारण वह दूर ही खड़ी रही, उनके निकट न जा सकी।
मुनि ने कामपीड़ित कलावती को अपने आश्रम के निकट देखा तो उससे उसका परिचय और वहाँ आने का प्रयोजन पूछा।
कलावती ने अत्यंत विनम्र स्वर में अपना परिचय देते हुए अपने आने का उद्देश्य पुत्र प्राप्ति की कामना को बताया।
कलावती ने यह भी निवेदन किया कि रति-याचना करने वाली स्त्री को निराश करने से पुरुष को बहुत दोष लगता है।
इसके अतिरिक्त जिस प्रकार अग्नि को कोई दोष नहीं लगता, उसी प्रकार समर्थ पुरुष के लिए कुछ भी अनुचित नहीं होता। कलावती के अनुचित प्रस्ताव को सुनकर महर्षि कश्यप ने उसकी भर्त्सना की और शूद्र पत्नी से रमण करने से ब्राह्मण के चाण्डाल बन जाने के विधान की ओर संकेत करते हुए उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी।
कश्यप जी ने अपनी स्त्री को परपुरुष की अंकशायिनी बनने की अनुमति देने के लिए द्रुमिल को भी अपशब्द कहे। इसी बीच कश्यप जी ने मेनका को आकाश मार्ग से जाते देखा तो उसके रूप को देखकर ही मुनि का वीर्यपात हो गया।
कलावती ने वह पान कर लिया और पति के समीप जाकर सारा वृत्तांत यथावत कह सुनाया। द्रुमिल ने ब्रह्मवीर्य की यत्न से रक्षा करने और समय पर वैष्णव पुत्र उत्पन्न करने का निर्देश कलावती को दिया।
द्रुमिल अपनी वंश वृद्धि की संभावना से संतुष्ट होकर बदरीबन में चला गया और वहाँ तपश्चरण करते हुए प्राण त्याग दिए। कलावती को जब पति की मृत्यु का पता चला तो वह सती होने को उद्यत हो गई।
जब वह रोते हुए सती होने जा रही थी उसी समय रास्ते में उसे एक ब्राह्मण मिले। ब्राह्मण ने रोती जा रही कलावती को रोककर पूछा कि क्यों रो रही हो, कहां जा रही हो?
उसके पति ने तो तपस्या करते हुए प्राण त्यागे हैं परंतु वह क्या करने जा रही है?
अपने साथ एक गर्भ में पलने वाले शिशु की हत्या करने का उसे कोई हक नहीं है।
उसी ब्राह्मण ने कलावती को अपने यहां शरण दे दिया साथ ही उसे गर्भ की रक्षा करने का निर्देश भी दिया। यथा समय ब्राह्मण के घर में ही कलावती ने अत्यंत तेजस्वी, सुन्दर एवं गुणी पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम नारद रखा गया।
पाँच वर्ष का होने पर बालक को पूर्वजन्म की स्मृति हो गई और वह श्रीकृष्ण के मंत्र का जाप, भजन तथा उनके पुण्य कथाओं का श्रवण करने लगा। खेलकूद में ही बालक नारद श्री कृष्ण की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजा करने लगा।
जब माँ उसे बुलाती तो बालक यही उत्तर देता कि पूजा से निवृत होकर आ जाऊंगा। इस प्रकार ब्राह्मण के घर बालक उत्तरोत्तर बढने लगा।
ब्राह्मण कलावती को अपनी पुत्री मानकर उसका और उसके बालक का यथोचित पालन-पोषण करने लगा।
एक दिन ब्राह्मण के घर पंचवर्षीय चार तेजस्वी ब्राह्मण बालक आए तो गृहस्थ ब्राह्मण ने अभ्यागतों का मधुपर्क आदि से यथोचित स्वागत-सत्कार किया और प्रणाम करके उन्हें फल-पुष्पादि अर्पित किए। चारों ने स्वेच्छा से कुछ फल खाए और शेष फल उस बालक[नारद ] को दे दिए।
उनमें से एक बालक को भगवान श्रीकृष्ण का मंत्र दिया और बालक ने माता की आज्ञा से उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।
एक बार रात्रि के समय जब बालक नारद की माता मार्ग से निकल रही थी तो उसे सांप ने काट लिया और वह श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए उसी समय मृत्यु को प्राप्त हो गई।
प्रातःकाल बालक नारद को अपनी माँ के अवसान का पता चला तो उस समय ब्राह्मण ने उसे तत्वज्ञान का उपदेश दिया, जिससे उसका....अज्ञान जाता रहा और वह गंगा जी में स्नान करके गंगावट के निर्जन स्थान पर अवस्थित अश्वत्थ[पीपल ]के मूल के समीप योगासन लगा कर भगवान श्रीकृष्ण का भजन करने लगा।
जब दिव्य सहस्र वर्ष व्यतीत हो गए तो उसे भगवान श्रीकृष्ण ने बाल मुकुन्द के रूप में अपनी झलक दिखाई। बालक नारद ने उस अनुपम रूपराशि को जब पुनः देखना चाहा तो वह झलक उसे दृष्टिगोचर न हुई, इससे वह खिन्न होकर रुदन करने लगा।
इस बीच उसे आकाशवाणी सुनाई दी-हे वत्स! मेरी जिस दिव्य आभा के तुमने एक बार दर्शन किए हैं उसे तुम दिव्य शरीर धारण करने पर ही पुनः देख पाओगे।
यह सुनकर बालक नारद निश्चिंत हो गया। यथा समय भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए उसका जन्म-मरण से पीछा छूट गया और उसका जीवन ब्रह्म में लीन हो गया। इस प्रकार नारद जी शाप से मुक्त हो गए।