कश्यप तेजस्वी और धर्मात्मा महर्षि थे। उनकी भी पत्नी का नाम अदिति था।
अदिति उनकी दिन-रात सेवा करती।
एक दिन कश्यप ने प्रसन्न हो, अदिति से कहा- "मैं तुम्हारी सेवा से प्रसन्न हूँ।
आज तुम मुझसे मन चाहा वर मांग लो।"
यह सुनकर अदिति खुश हो गई। वह बोली-'हे नाथ! देवताओं ने मेरे सौ पुत्र मार डाले हैं। अब आप मुझे ऎसा पुत्र दें, जिसे देवता न मार सकें।
'ऎसा ही होगा, लेकिन तुम्हारे उस पुत्र को सिर्फ भगवान शंकर ही मार सकेंगे। कश्यप ने अदिति से कहा।
समय गुजरा।
अदिति के एक पुत्र पैदा हुआ।
उसके हजार सिर, दो हजार पांव तथा दो हजार आँखें थी। वह घमण्ड से चूर होकर अंधे की तरह चलता था। इसलिए उसका नाम भी अंधक पड़ गया। वह अत्याचारी था। सभी उससे डरते थे।
अंधक युवा हो चला था। अब उसके अत्याचार भी बढते ही जा रहे थे। वह यज्ञ करने साधु-संन्यासियों का अपहरण कर लेता। उन्हें परेशान करता। फलतः धार्मिक अनुष्ठान बंद हो गए। महर्षि कश्यप और अदिति ने अंधक को बहुत समझाया। लेकिन सब बेकार। वह एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता।
देवता परेशान हो उठे। वे अंधक से मुक्ति पाने के लिए उपाय सोचने लगे। उन्हें पता भी था कि अंधक को केवल शंकर भगवान ही मार सकते हैं। देवता शंकर जी से मिलने चल पड़े। रास्ते में उन्हें देवर्षि नारद मिल गए। देवताओं की बात सुनकर वह चिंतित हो उठे। वह बोले-'मैं इसके लिए कोई उपाय खोजता हूँ। इसका हल शीघ्र ही निकल जाएगा। आप निडर होकर अपने-अपने घर जाइए।'
देवता नारद जी का यह आश्वासन पाकर देवता लौट गए। नारद जी वहीं विचार करने लगे। उनके दिमाग में एक युक्ति आ गई। वह वहाँ से चल दिए। वह मंदार पुष्प की माला पहन, अंधक के पास पहुंचे। मंदार की महक अंधक को भा गई। वह नारद जी से बोला-'हे मुनि! यह कौन-सा पुष्प है? यह कहाँ मिलता है?
नारद जी ने मुस्कराते हुए कहा-'यह मंदार पुष्प है और मंदार पर्वत पर स्थित काम्यक उपवन में ही मिलता है।'
भगवान शंकर ने अपने हाथों से काम्यक उपवन का निर्माण किया है। उपवन सुरक्षा के लिए वहाँ अनेक गण तैनात रहते हैं। वे गण तुम्हें पुष्प कैसे लेने देंगे?' नारद जी ने अपनी आशंका व्यक्त की।
अंधक ने पूछा-'शंकर ने इस पुष्प की इतनी सुरक्षा की है? नारद ने कहा-'मंदार साधारण पुष्प नहीं है। इसकी सुगंध का असर तो तुमने देख ही लिया है। इससे मनुष्य की मनोकामना पूर्ण होती है।'
नारद की बात सुनकर अंधक बोला-'अच्छा! ऎसी बात है तो मैं इस फूल को प्राप्त करके ही रहूंगा, चाहे इसके लिए मुझे शंकर से युद्ध ही क्यों न करना पड़े।
नारद जी की युक्ति काम कर गई।
वे मुस्कराते हुए देवलोक की ओर चल दिए और अंधक मंदार पर्वत की ओर चल दिया। वह पर्वत पर पहुँचा और देखते ही देखते उसने पर्वत को उखाड़ फेंका।
भगवान शंकर यह सब देख रहे थे।
उन्होंने तुरंत पर्वत का दोबारा निर्माण कर दिया। अंधक ने उसे भी नष्ट कर दिया। शंकर जी ने फिर पर्वत को खड़ कर दिया।
अब अंधक बार-बार पर्वत को उखाड़ता और भगवान शंकर हर बार एक नया पर्वत बनाकर खड़ा कर देते।
यह देख अंधक क्रोध से पागल हो गया। उसने पर्वत को ललकारते हुए कहा-'तुम मेरे साथ छल मत करो। अगर तुममें या तुम्हारे स्वामी में साहस है, तो मेरे सामने आकर युद्ध करो।'
अंधक की बात सुनकर भगवान शंकर हाथ में त्रिशूल लिए वहाँ उपस्थित हो गए।
क्रोध से उनकी आँखें लाल थी। अंधक शंकर जी को देख कर कांप गया।
तभी उसे अपने पिता का आधा वचन याद आ गया। परन्तु वह शंकर जी के हाथों मृत्यु वाली एक बात को भूल गया था। वह अहंकार में शंकर जी को ललकारने लगा-'तुम हो पर्वत के स्वामी! तुम मुझे मंदार पुष्प दे दो। वरना मैं तुम्हारा वध कर दूंगा।'
शंकर जी ने अपना त्रिशूल उठाया और अंधक की ओर फेंकते हुए बोले-'दुष्ट! मैं तेरे घमण्ड को अभी चूर करता हूँ।' यह कहकर शिव ने अपना त्रिशूल अंधक की छाती में लगा दिया। वह दर्द से कराहता हुआ जमीन पर गिर पड़ा। कुछ देर में वह मर गया।
उसी समय नारायण-नारायण कहते देवर्षि नारद वहाँ आए और बोले-'भगवन! मैंने ही इसे आपके पास भेजा था ताकि आप इसे मार कर इसके आतंक से मुक्ति दिला सकें।'
यह कहकर महर्षि नारद देवलोक चले गए। अंधक के मरने का समाचार देवताओं ने सुना, तो वे प्रसन्न होकर पुष्प वर्षा करने लगे।