तमसा नदी के तट पर घने जंगलों में कुछ जंगली जातियां रहती थीं। वे लोगों को लूट-मार कर अपना भरण-पोषण करतीं थीं। डाका तथा लूट-पाट ही उनका मुख्य कर्म था। उनका सरदार क्रूरसेन बड़ा निर्दयी था। उसके कोई संतान नहीं थी। इसके कारण उसकी पत्नी बड़ी दुखी रहती थी।
एक दिन उसने अपने पति से कहा-'तुम डाकुओं के सरदार हो। लूट-पाट कर इतना धन लाते हो, पर हमारे बाद इसे कोई खाने वाला तो है नहीं, फिर इस पाप की कमाई का क्या होगा? सोचो।'
क्रूरसेन ने कहा-'इसका दुख क्यों मनाती है? अभी तक राहगीरों को ठगता-लूटता हूँ, उनका धन छीन लेता हूँ किसी दिन कोई बालक लूट कर लाऊंगा और उससे तेरी गोद भर दूंगा।'
उसकी पत्नी थोड़ी दयावान थी, बोली-हे भगवान! कैसी बात करते हो? सोचो, उस माँ का क्या हाल होगा जिसका बच्चा तुम उसकी गोद से छीन कर उठा लाओगे?
क्रूरसेन ने कहा-'थोड़ा रो-धो लेगी, फिर संतोष कर लेगी। जब उसे दूसरा बच्चा हो जाएगा तो पहले वाले को भूल जाएगी। तुझे अपना बच्चा कभी नहीं होगा। इसलिए तेरी खुशी के लिए मुझे ऎसा करना ही पड़ेगा।
एक दिन सचमुच क्रूरसेन किसी ब्राह्मण के बच्चे को उठा लाया। उसकी पत्नी ने उसे माँ जैसा प्यार देकर पाला। उसका नाम रखा रत्नाकर। बच्चा धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। जिस तरह निर्दयी डाकुओं के बीच वह पल रहा था, वैसे ही संस्कार उसमें आने लगे। बड़ा होकर उसने भी अपनी जीविका इसी प्रकार लूट-मार से शुरू कर दी।
क्रूरसेन अब बूढा हो चुका था। उसके इस बेटे ने उसी के काम को अपना लिया। माँ को थोड़ा बुरा लगता था कि यह न जाने किस भले घर का लड़का है, हम लोगों की संगति-संस्कार से लुटेरा बन गया है। पर कह कुछ नहीं पाती थी। लड़का जब जवान हो गया तो उसकी शादी कर दी गई। उसके घर में एक बच्चा भी हो गया। उन घने जंगलों से जो भी यात्री आते-जाते, वह उनका धन, सामान लूट लेता।
एक दिन उस रास्ते से पाँच-छः ऋषि किसी यज्ञ में भाग लेने जा रहे थे। साथ में नारद जी भी अपनी वीणा बजाते ईश्वर का भजन करते चले जा रहे थे। वे सभी साधु महात्मा थे, उनको किसी का क्या डर। न उनके पास कोई धन था, न किसी से बैर, इसलिए निर्भय थे। रत्नाकर ने एक साथ इतने साधुओं को आते देखा तो सोचने लगा-'आहा! आज तो खूब अन्न-धन मिलेगा। ये साधु यजमानों से खूब धन पाए होंगे।' अपने हथियारों से लैस होकर अचानक साधुओं के सामने आया और डांटकर बोला-'हे साधुओं! तुम्हारे पास जो भी अन्न, धन, वस्त्र हो सब रख दो और चुपचाप चले जाओ। अगर तनिक भी प्रतिरोध किया तो जान से हाथ धोना पड़ेगा, सबको मार डालूंगा।'
अचानक सामने आए डाकू की ऎसी बात सुनकर साधुओं की तो डर के मारे घिग्घी बंध गई। डरने से तो संकट से छुटकारा मिलेगा नहीं, यह सोचकर नारद जी ने साहस से कहा-'भाई, हम लोग साधु-संन्यासी हैं। हमारे पास धन कहाँ। हमलोग एक यज्ञ में जा रहे हैं। यज्ञ की समाप्ति पर ही कुछ दक्षिणा मिलेगी। अभी तो हमारे पास कुछ भी नहीं है।'
रत्नाकर कड़क कर बोला-'मैं कुछ नहीं जानता। मुझे धन चाहिए। ऎसे न जाने दूंगा। हो सकता है-तुमने अपने इस तंबूरे में छिपा रखा हो। चुपचाप सीधी तरह दे दो, अन्यथा मैं तुम्हारा तंबूरा तोड़ता हूँ। यह कह कर उसने नारद जी की वीणा छीन ली।
नारद ने सोचा-'बड़े संकट में आ गए हैं। अब क्या करें? एक तो यह कर्म से डाकू और बुद्धि से मूर्ख। इसे तो दूसरी तरह से समझाना होगा। यह सोचकर नारद ने कहा -'वीणा मत तोड़ो। हमारे पास जो भी होगा वह तुम्हें देंगे।
तुम जो यह लूटपाट करते हो, यह बुरा काम है, इसका पाप भी लगता है। अपने परिवार के जिन लोगों के लिए तुम यह काम करते हो, उनसे जाकर पूछो कि लूट का माल खाने-पीने, मौज करने में तुम सब मेरे भागीदार हो, पर इस बुरे काम का जो पाप-फल है, क्या तुम सब मेरे भागीदार हो, पर इस बुरे काम का जो पाप-फल है, क्या तुम सब उसमें भी मेरे भागीदार रहोगे? मेरे मरने के बाद जब मेरे कर्मो का हिसाब-किताब यमराज के यहाँ होगा, तुम सब उस कर्मफल में भी हिस्सा लोगे?
रत्नाकर ने कहा-'अरे, ऎसी बात तो किसी ने नहीं कही। विद्वान साधु हो, इसलिए ऎसी बात कर रहे हो, पर चतुर भी हो। मैं यह सब पूछने जाऊं और तुम सब यहाँ से मौका पाकर भाग जाओ।'
नारद जी ने हंस कर कहा-'ऎसी बात नहीं। ऎसा करो, तुम हम सबको एक रस्सी से किसी पेड़ के साथ बांध दो। हम यहाँ बंधे रहेंगे, तुम निश्चिंत होकर जाकर पूछ आओ।
रत्ना की समझ में यह बात आ गई। उसने सब साधुओं को एक पेड़ के साथ रस्सी से बांध दिया और घर जाकर सब सदस्यों को बुलाकर कहा-'मैं आज एक बात आप सबसे पूछना चाहता हूँ। लोगों को लूट-पाट कर मैं आप सब का भरण-पोषण कर रहा हूँ। एक तरह से देखा जाए तो निरीह लोगों को लूटना-मारना बुरा काम है। बुरे कामों का फल भी बुरा होता है। लूट-पाट से आए धन-अन्न में जैसे आप सब भागीदार हो, क्या ऎसे ही भागीदार मेरे पाप का फल भोगने में भी होगे?
आज बेटे के मुंह से दान-पुण्य और उसके फल की बात सुनकर माँ चौंकी। सोचा जरूर कोई बात है। तत्काल जवाब दिया-'पुत्र हर एक व्यक्ति को अपने कर्मों का फल अकेले ही भोगना पड़ता है।
कर्मफल में कोई किसी का भागीदार नहीं होता। तुम्हारा काम परिवार का पालन-पोषण करना है, वह तुम किस तरह करते हो, यह तुम्हें सोचना चाहिए। हमारा भरण- पोषण करना तुम्हारा धर्म है। हम खा-पी रहे हैं। बुरे काम से यह सब लाते हो तो इस पाप-कर्म का फल भी तुम्हें ही अकेले भोगन पड़ेगा।
माँ के साथ पत्नी और बेटे ने भी ऎसा जवाब दिया। सुनकर रत्नाकर की आँखें खुल गईं। वह भागकर साधुओं के पास आया और माँ, पत्नी तथा बेटे का उत्तर बताया।
नारद जी ने कहा-'देखा, पाप-कर्म के फल में कोई साथी नहीं होता। इसलिए अपना जीवन नष्ट मत करो, यह सब छोड़कर अच्छे काम करो।'
रत्नाकर को बड़ी ग्लानि हुई। उसने साधुओं को छोड़ दिया और नारद के चरण पकड़ कर कहा-'देवर्षि! आपने मेरी आँखें खोल दीं। मैं अब जीवन की राह बदल दूंगा। मुझे अब परिवार से कुछ लेना देना नहीं। आप मुझे अपने साथ ले चलो और रास्ता दिखाओ। आपकी संगति में मैं इस पाप-कर्म से छुटकारा पा जाऊंगा।'
रत्नाकर नारद के पास रहा। नारद ने उसे शिक्षा तथा ज्ञान दिया और तपस्या की विधि बताई। रत्नाकर सब भूल कर ऎसा तप करने बैठा कि अपना तन-मन सब भूल गया। जहाँ वह समाधि लगा कर बैठा था उसके चरों ओर मिट्टी का वल्मीक बन गया। उसी के बीच वह तपस्या में समाधि लगाए रहा।
एक दिन नारद के साथ सरस्वती देवी आई। वर्षा से मिट्टी का वल्मीक घुल गया। रत्नाकर की समाधि भंग कर नारद ने कहा-'रत्नाकर उठो! तुम्हारी साधना-तपस्या सफल हुई। वीणावादिनी सरस्वती तुम्हें महाकाव्य लिखने की प्रतिभा प्रदान करने आई हैं। अब तुम्हारा नाम वल्मीक से प्रगट होने के कारण वाल्मीकि होगा। समझो तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ।'
वाल्मीकि ने नारद और सरस्वती को प्रणाम किया। इन्होंने आगे चलकर भगवान राम के जीवन पर रामायण लिखी, जो वाल्मीकि रामायण नाम से प्रसिद्ध है।