शिव की सेना

दो बलशाली राक्षस थे-हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। ये दोनों भाई थे। उन दोनों ने देवों पर चढाई कर इंद्रलोक को जीत लिया। मगर समय की गति बलवान है। हिरण्याक्ष एक नौका दुर्घटना में मारा गया और हिरण्यकशिपु को नृसिंह देव ने मारा था। हिरण्यकशिपु के मरने के बाद उसका बेटा प्रहलाद सिंहासन पर बैठा, मगर भगवान भक्त प्रहलाद को हिरण्याक्ष के बेटे अंधक ने हराकर उससे राज्य छीन लिया।

अंधक ने प्रहलाद को बंदी बना लिया और स्वयं असुरों का राजा बन बैठा। अंधक के मन में देवों के लिए पुराना बैर था। उसने अपनी सेना की शक्ति बढा ली और अमरावती पर चढाई करने की तैयारी करने लगा। इंद्र को यह बात पता चली, तो वह चिंतित हो उठा। इंद्र जानता था कि अकेले देव इतने शक्तिशाली नहीं हैं जो अंधक और उसकी विशाल सेना का सामना कर सकें। इसीलिए इंद्र ने निश्चय किया कि वह मनु की प्रतापी संतानों को अपनी सहायता के लिए बुलाए। उस समय धरती पर दक्ष प्रजापति जैसे प्रतापी राजा थे।

इंद्र ने नारद जी को बुलाया और कहा-'नारद जी, तुम अश्विनी कुमार और दक्ष प्रजापति के पास जाओ। देवों पर विपत्ति के बादल घिरे हैं। उनसे कहो कि इस युद्ध में वह हमारी सहायता करें।'

प्रजापति दक्ष की राजधानी महान नदी सरस्वती के तट पर थी। नारद और उनके साथी वहाँ पहुँचे। शाम का समय था। उन्हें पता चला कि इस समय दक्ष अपनी बड़ी बेटी सती और पत्नी वीरिणी के साथ सरस्वती तट पर घूमने गए हैं। देवर्षि नारद ने सोचा-'जरूरी काम है। महल में बैठकर प्रतीक्षा करने में विलम्ब हो जाएगा।' इसीलिए वह दक्ष से मिलने नदी तट की ओर ही चल पड़े।

कुछ दूर चलने पर ही उन्होंने एक तेजस्वी पुरुष को नदी के तट पर टहलते हुए देखा, उनके बगल में एक प्रौढा और एक युवती भी चल रही थी। युवती की सुन्दरता देखकर अतिरथ बोला-'नारद जी, यह अप्सराओं में श्रेष्ठ युवती यहाँ कैसे आ गई?' नारद जी हंस कर बोले-'मित्र, यह प्रजापति दक्ष की बड़ी पुत्री सती है। कुछ ही दिनों में इसका विवाह होने वाला है। पता नहीं, किस भाग्यशाली को यह वरण करेगी और दूसरी है दक्ष की पत्नी वीरिणी।'

यह कहकर नारद जी आगे बढे और दक्ष के पीछे जाकर बोले-'दक्ष प्रजापति मैं नारद, देवलोक से आया हूँ।

दक्ष ने पूछा-'कहो, देवराज इंद्र तो कुशल हैं। अमरावती के क्या हाल-चाल हैं? नारद जी ने कहा-'देवराज तो कुशल हैं, किन्तु एक संकट इंद्रलोक पर मंडरा रहा है। इसी कारण मैं इंद्र का संदेश लेकर यहाँ आया हूँ।

इसके बाद नारद जी ने अंधक के हमले के संभावित खतरे की बात बताते हुए कहा-'देवता एक युद्ध में उससे हार चुके हैं। वह फिर आगे बढता चला आ रहा है।'

दक्ष बोले-'इंद्र की सहायता करना मेरा सौभाग्य होगा। मैं सेना सहित जरूर जाऊंगा। दक्ष ही आशा थे, जो मान गए, फिर नारद जी ने कहा हमने धरती के दूसरे राजाओं को भी बुलवाया है। आपकी नजरों में ऎसा कौन है, जिसकी सहायता हमारे लिए जरूरी है।'

दक्ष ने कहा-'एक विलक्षण व्यक्ति है, जिसका प्रभाव जन जातियों पर बहुत है। वह शिव के नाम से जाने जाते हैं। सब मनुष्य उन्हें देवाधिदेव मानकर पूजते हैं। तप, बुद्धि और योग में उनसे बढकर कोई नहीं। यदि वह इंद्र की सहायता करने को तैयार हो जाएं, तो देवों की निश्चय विजय होगी।'

'मुझे विश्वास है कि नारद यह कार्य अवश्य कर पाएंगे।' अतिरथ ने कहा।

दक्ष ने मुस्कराकर कहा-'मैं नारद जी के गुणॊं से भलीभांति परिचित हूँ, पर तुम शिव को नहीं जानते। वह प्रकांड पंडित हैं। वह महान शिल्पी भी हैं। उन्हें अनेक सिद्धियां प्राप्त हैं। उनकी नगरी काशी इस धरती की अनुपम नगरी है। असुर,नाग, यक्ष और गंधार्व उनकी पूजा करते हैं।"

दक्ष की बात का सभी पर प्रभाव पड़ा। सती ने पूछा- "पिता जी, अगर ऎसा व्यक्ति हमारी सहायता करे, तो विजय निश्चित ही है।"

नारद जी ने शंका प्रकट की- "मैंने शिव का नाम सुना है, मगर वह तो असुरों के पक्षपाती हैं।"

"नहीं, ऎसा नही है। शिव देव और असुरों से अलग हैं। देव उनसे घबराते हैं। इसीलिए उनसे अलग रहते हैं, मगर असुर बड़े चतुर हैं। असुर उनकी शरण में जाकर उनसे वरदान पाते रहते हैं। इसी से वे बलशाली बने हैं।' दक्ष ने कहा।

सती ने फिर पूछा-'देवों ने उन्हें प्रसन्न क्यों नहीं किया?

यह सुनकर दक्ष गंभीर हो गए। बोले-'देव अहंकार में डूबे रहे। मगर यह सत्य है कि यदि शिव प्रसन्न हो गए, तो देवासुर संग्राम हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा।

दक्ष को यह पता नहीं था कि उनकी बात का सती पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। वास्तव में शिव की महानता सुनकर सती अनजाने में शिव की ओर आकर्षित हो रही थीं।

नारद जी ने दक्ष से कहा-'प्रजापति! मैं पूरा प्रयत्न करूंगा कि शिव को देवों की ओर कर सकूं। मगर यह बताओ कि शिव कहा मिलेंगे? क्या हम काशी जाएं?

दक्ष ने कहा-'तुम काशी की ओर जाओ। क्या पता रास्ते में ही शिव मिल जाएं। लोगों का यही कहना है कि शिव को मन में याद करो, तो वह मिल जाते हैं।

देवर्षि नारद ने अपने साथियों के साथ काशी की ओर प्रस्थान कर दिया। आगे एक घना जंगल था। सहसा एक जगह बहुत से स्त्री-पुरुषॊं ने उन्हें घेर लिया। उनके हाथों में तेज धार वाले हथियार थे। दक्ष ने अपना एक सेवक रास्ता दिखाने के लिए उनके साथ भेजा था। उसका नाम करंथ था। करंथ ने उन लोगों से उन्हीं की भाषा में कहा-'हम आपके मित्र हैं। हम महान योगीराज शिव के भक्त हैं। उनसे मिलने जा रहे हैं।

शिव का नाम सुनते ही उन लोगों ने अपने हथियार नीचे कर लिए। फिर उनके मुखिया ने पूछा-'तुम लोग शिव के पास क्यों जा रहे हो?

नारद जी ने मुखिया से कहा-'हम पर भीषण आपत्ति आ पड़ी है। हम शिव की सहायता लेने आए हैं। हमें शिव कहाँ मिलेंगे?

मुखिया ने कहा-'यह तो मुझे भी पता नहीं। फिर भी मैं आप लोगों का संदेश बस्ती-बस्ती पहुँचाए देता हूँ। हो सकता है कि शिव तक यह संदेश पहुँच जाए।' और सचमुच हुआ भी यहीं। अगले दिन वे एक बस्ती में थे, तभी 'जय महादेव' का नारा गूंज उठा। नारद ने देखा कि बाघम्बर पहने एक तेजस्वी पुरुष हाथ में त्रिशूल लिए चले आ रहे थे। उनके विशाल नेत्रों से इतना तेज टपक रहा है कि दृष्टि बरबस नीचे झुक जाती थी। उन्हें देखते ही सब प्राणियों ने जमीन पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया।

शिव आगे बढे और नारद जी के पास जाकर बोले-'कहो नारद, कैसे आना हुआ? नारद जी ने हाथ जोड़ कहा-'भगवन! देवों पर भयंकर विपत्ति आ रही है। मुझे इंद्र ने भेजा है। आप ही देवों की रक्षा करें।

यह सुनकर शिव हंसकर बोले-'हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु से हारकर देवों को अब इस मानवलोक की याद आई है।'

भगवान शिव की बात सुनकर नारद का सिर झुक गया। शिव फिर बोले-'मैं जानता हूँ कि शक्ति पाकर असुर अन्यायी हो उठे हैं। किन्तु याद रखना-यह धरती सभी की है। वेद, असुर, मानव सभी इस धरती पर मिलकर रहेंगे।'

नारद जी बोले-'हम भी यही चाहते हैं भगवान!"

शिव फिर हंसे और बोले-'नारद, अंधक का काल उसके उपर नाच उठा है। मैं युद्ध में जाऊंगा। यह कहकर शिव चले गए। पता ही नहीं चला कि क्षण में वे कहाँ लोप हो गए।

शीघ्र ही एक विशाल घाटी में दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हो गई। अंधक विशाल सेना लेकर आया था। उधर देवों की शक्ति भी कम न थी। शिव का त्रिशूल अनेक योद्धाओं का रक्त पी चुका था उनकी सेना भूतों के समान शत्रु सेना में घुस गई। वे भयानक संहार कर रहे थे। तभी शिव ने इंद्र की ओर इशारा किया। इंद्र तुरंत आए। शिव बोले-'देवराज, इतनी हत्या व्यर्थ है। हमारा उद्देश्य शत्रु को हराना है। व्यर्थ रक्त बहाना नहीं।'

इंद्र की समझ में कुछ नहीं आया। शिव ने त्रिशूल छोड़कर धनुष उठा लिया। फिर बोले-अंधक कहाँ है? मुझे बताओ।'

शिव का रौद्र रूप देखकर इंद्र भी कांप उठे। बोले-'भगवन वह बिजली के समान अश्व पर मुकुट लगाए, जो तेजी से मार-काट मचाता घूम रहा है, वही अंधक है। लेकिन वह दूर है। निशाना लगाना कठिन है।

शिव ने मुस्कुराकर इंद्र की ओर देखा। फिर प्रत्यंचा खींच कर बाण छोड़ दिया। बाण बाज पक्षी की तरह लपका और पलभर में अंधक का सिर जमीन पर लोटने लगा।

युद्ध समाप्त हो गया। इंद्र प्रसन्न था। वह शिव को धन्यवाद देने के लिए देवों को लेकर चला, मगर तभी उसे मालूम हुआ कि शिव अपनी सेना के साथ अंतर्धान हो गए.

इस युद्ध के बाद सभी देव जुटे। सभी ने देवासुर संग्राम में दक्ष प्रजापति की वीरता की सराहना की और उन्हें धन्यवाद दिया।

देवर्षि नारद बोले-'देवराज! हमें दक्ष प्रजापति की नहीं, भगवान शिव का धन्यवाद करना चाहिए। युद्ध में विजय हमें उन्हीं के कारण मिली।