एक बार राक्षस राज रावण कैलाश पर्वत पर महादेव जी की आराधना करने लगा।
वहाँ महादेव जी को प्रसन्न न होते देख वह हिमालय के वृक्ष खण्डक नामक दक्षिण भाग में जाकर तपस्या में लीन हो गया।
वहाँ भी जब उसने शिवजी को प्रसन्न होते नहीं देखा, तब वह अपना मस्तक काटकर शिवलिंग पर चढाने लगा। नौ मस्तक काटकर चढा देने के बाद जब एक मस्तक बचा, तब शंकर जी प्रसन्न हो गए और बोले- "राक्षसराज! अभिष्ट वर मांगो।"
रावन ने कहा- "भगवान! मुझे अतुल बल दें और मेरे मस्तक पूर्ववत हो जाएं।"
भगवान शंकर ने उसकी अभिलाषा पूर्ण की। इस वर की प्राप्ति से देवगण और ऋषिगण बहुत दुखी हुए। उन्हों ने नारद जी से पूछा- "नारद जी, इस दुष्ट रावण से हम लोगों की रक्षा किस प्रकार होगी?"
नारद जी ने कहा- "आप लोग जाएं, मैं इसका उपाय करता हूँ।" यह कह कर नारद जी, जिस मार्ग से रावण जा रहा था, उसी मार्ग पर वीणा बजाते हुए उपस्थित हो गए और बोले-'राक्षसराज! तुम धन्य हो, तुम्हें देखकर मुझे असीम प्रसन्नता हो रही है। तुम कहाँ से आ रहे हो और बहुत प्रसन्न दिख रहे हो?
रावण ने कहा-'देवर्षि! मैंने आराधना करके शिव जी को प्रसन्न किया है।' यह कह कर रावण ने सारा वृत्तांत देवर्षि नारद के सामने प्रस्तुत कर दिया।
यह सुनकर नारद जी ने कहा-'राक्षसराज! शिव तो उन्मत हैं, तुम मेरे प्रिय शिष्य हो इसलिए कह रहा हूँ, तुम उस पर विश्वास मत करो और लौट कर उसके दिए हुए वरदान को प्रमाणित करने के लिए कैलाश पर्वत को उठाओ। यदि तुम उसे उठा लेते हो तो तुम्हारा अब तक का प्रयास सफल माना जाएगा।'
अभिमानी रावण देवर्षि नारद की बातों में आ गया और लौटकर कैलाश पर्वत उठाने लगा। ऎसी स्थिति देख कर शिव जी ने कहा-'यह क्या हो रहा है?
तब पार्वती जी ने हंसते हुए कहा-'आपका शिष्य आपको गुरु दक्षिणा दे रहा है। जो हो रहा है, वह ठीक ही है। 'यह अभिमानी रावण का कार्य है, ऎसा जानकर शिव जी ने उसे शाप देते हुए कहा-'अरे दुष्ट! शीघ्र ही तुम्हें मारने वाला उत्पन्न होगा।'
यह सुनकर नारद जी वीणा बजाते हुए चल दिए और रावण भी कैलाश पर्वत को वहीं रख कर विश्वस्त होकर चला गया।