त्रेता युग में कौशिक नाम के एक ब्राह्मण रहते थे।
भगवान में उनका अत्यधिक अनुराग था।
खाते-पीते, सोते-जागते प्रतिक्षण उनका मन भगवान में लगा रहता था।
उनकी साधना का मार्ग था संगीत।
वे भगवान के गुणॊं और चरित्रों को निरंतर गाया करते थे। उनके बहुत से शिष्य हो गए थे, शिष्यों को योग मिलने से कौशिक का गान और हृदयाकर्षण हो गया था।
बहुत वर्षो के बाद जब कौशिक की मृत्यु हुई, तब ब्रह्मा जी ने बड़े आदर के साथ लोकपालों के द्वारा उन्हें और उनके साथियों को अपने लोक बुला लिया और उनके स्वागत में संगीत का विशाल आयोजन किया।
विश्व के गायक तुम्बुरु गंधर्व बुलाए गए।
भगवान दिव्य सिंहासन पर विराजमान थे। संगीत गाती हुई माता लक्ष्मी भी आ विराजीं।
साथ ही वीणा के गुण के तत्व को जानने वाली करोड़ों अप्सराएं वाद्य विशारदॊं के साथ वहाँ आ पहुँचीं।
पहले से ही वह स्थल ब्रह्मलोक वासियों से पूरी तरह भरा था।
देवर्षि नारद भगवान के बिल्कुल समीप में आकर खड़े हो गए पर संगीत न जानने के कारण उन्हें भी दूर हटा दिया गया।
संगीतज्ञ तुम्बुरु को लक्ष्मी और भगवान विष्णु के समीप बैठाया गया।
यह नारद जी को बहुत खला।
वे समझ गए कि मेरा इतना बड़ा अध्ययन, इतनी बड़ी तपस्या आदि सब संगीत के सामने तुच्छ-सा हो गया।
इस पर वे भी संगीत के ज्ञान के लिए उत्सुक हो गए और घोर तप करने लगे।
हजारों वर्ष बीतने पर आकाशवाणी हुई-"नारद! यदि तुम संगीतज्ञ बनना चाहते हो तो मानसरोवर के उत्तर शैल पर चले जाओ, वहाँ गानबंधु नामक उलूक रहते हैं, उनसे सीख कर संगीत के जानकार हो जाओगे।'
देवर्षि नारद अविलम्ब मानसरोवर के उत्तर शैल पर जा पहुँचे।
वहाँ नारद ने देखा कि गानबंधु बीच में बैठे हैं और उन्हें चारों ओर से घेर कर गंधर्व, किन्नर, अप्सराएं और यक्ष बैठे हुए हैं।
ये सब के सब गानबंधु से गाना सीख कर गान विद्या में पारंगत हो चुके थे और आनन्द की लहरों में डूब-उतर रहे थे।
देवर्षि नारद को अपने पास आया देख गानबंधु ने उठकर नमस्कार किया।
जब गानबंधु ने जाना कि देवर्षि नारद मुझसे संगीत सीखना चाहते हैं तब उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई।
देवर्षि नारद ने एक हजार दिव्य वर्ष तक संगीत की साधना की।
संगीत सीख लेने पर देवर्षि नारद ने गानबंधु को दक्षिणा देनी चाही।
गानबंधु ने कहा-'मैं चाहता हूँ कि संगीत द्वारा लम्बी अवधि तक भगवान की सेवा करता रहूँ। इसके लिए आवश्यक है कि मेरी आयु लम्बी और स्वास्थ्य सुदृढ हो।'
देवर्षि नारद ने उनकी आयु एक कल्प की कर दी और स्वास्थ्य भी सुदृढ कर दिया। साथ ही यह भी वरदान दिया कि 'अगले कल्प में आप गरुड़ होंगे।'
देवर्षि नारद संगीत सीखकर भगवान के पास पहुँचे। भगवान ने उनका गाना सुनकर कहा-'अभी तुम तुम्बुरु के समकक्ष नहीं हुए हो। कृष्णावतार में मैं तुम्हें सर्वोच्च ज्ञान से सम्पन्न कर दूंगा।'
देवर्षि नारद वीणा पर भगवान का गुणगान गाते हुए तीनों लोकों में विचरने लगे।
उनके आनन्द की सीमा न रही। कृष्णावतार होने पर वे भगवान के पास पहुँचे। भगवान ने उन्हें संगीत सीखने के लिए जाम्बवती के पास भेज दिया।
रानी जाम्बवती ने एक वर्ष तक देवर्षि को संगीत की शिक्षा दी।
दूसरी बार भगवान ने देवर्षि नारद को सत्यभामा के पास भेजा।
एक वर्ष बीतने के बाद देवर्षि को महारानी रुक्मिणी के अनुशासन में रखा।
महारानी रुक्मिणी ने उन्हें तीन वर्षो तक संगीत सिखाया।
तत्पश्चात भगवान ने स्वयं देवर्षि को संगीत सिखलाया।
इसके बाद भगवान ने देवर्षि से कहा-'अब आप तुम्बुरु से आगे बढ गए हैं। इस तरह बहुत दिनों के बाद देवर्षि नारद की संगीत साधना पूरी हुई।