हिमालय की बेटी

दक्ष राजा की कन्या सती ने भगवान से यह वर प्राप्त कर लिया था कि हर जन्म में वह शिव को पति रूप में प्राप्त करती रहे। पार्वती के रूप में उसने पर्वतराज हिमालय के घर में जन्म लिया। उसके जनमते ही हिमालय का महत्व और अधिक बढ गया। दूर-दूर से आकर ऋषि-मुनि आश्रम बनाकर रहने लगे। हिमालय ने भी उनको पर्याप्त मान-सम्मान दिया।

चारों ओर सुंदर पर्वत पर सदैव फल-फूल उनके नवीन वृक्ष प्रकट हुए। वहाँ पर नाना प्रकार की मणियों की खानें प्रकट हो गई। सब नदियां पवित्र जल को लेकर बहने लगीं। पशु-पक्षी आपस में प्रेम पूर्वक रहने लगे। सब जीव-जंतुओं ने वैमनस्यता को त्याग दिया। पार्वती के आने से हिमालय हर प्रकार से समृद्ध हो गया। नारद जी को इसकी खबर लगी तो वह वीणा बजाते हुए हिमालय से मिलने चल दिए। पर्वतराज ने आदर से सम्मानपूर्वक, उनका स्वागत किया। चरण धोकर सुन्दर आसन पर बैठाया। नारद जी के आने से हिमालय ने अपने भाग्य की सराहना की। पार्वती के विषय में पूछा।

नारद जी ने हंसकर कहा-'पर्वतराज! तुम्हारी यह कन्या सब गुणॊं की खान है। यह स्वभाव से ही सुन्दर, सुशील और चतुर है। उमा, अंबिका तथा भवानी इनके नाम हैं। यह कन्या समस्त सुलक्षणों से सम्पन्न है। यह अपने स्वामी को सदैव प्यारी होगी। इसका सुहाग अचल रहेगा तथा इसके माता-पिता यश पाएंगे।

आपकी यह कन्या सारे संसार में पूज्य होगी, इसकी सेवा करने वालों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा। इसका नाम स्मरण करके स्त्रियां संसार में पतिव्रत रूपी तलवार की धार पर चढ जाएंगी। तुम्हारी इस सुशील कन्या का विवाह शिव जी से होगा। शिव जी को प्राप्त करने के लिए इसे तपस्या करनी पड़ेगी, तपस्या कुछ कठिन जरूर है, पर इससे डरने की आवश्यकता नहीं। भगवान शिव तपस्या से शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं। यह कहकर नारद जी सबको आशीर्वाद देकर वहाँ से चले गए।

पर्वतराज को एकान्त में पाकर उनकी पत्नी रानी मैना ने कहा-'हे नाथ! मैं तो देवर्षि की बात समझ नहीं पाई। कन्या के योग्य घर, वर और कुल उत्तम हो तभी विवाह कीजिए, नहीं तो कन्या कुंआरी रखना ही ठीक है। उमा मुझे प्राणॊं से भी अधिक प्यारी है। योग्य वर के हाथ कन्या को न देने पर सब लोग हमें मूर्ख बताएंगे।'

पर पार्वती जी ने अपने मन में निश्चय कर लिया था कि वह शिव को ही अपना पति बनाएंगी। माता-पिता की आज्ञा पाकर पार्वती वन में जाकर तपस्या करने लगी। पार्वती का शरीर कठोर नहीं था। कोमल शरीर लेकर उसने तपस्या आरंभ कर दी। आरंभ में वह फूल-फल खाकर दिन व्यतीत करती रही। बाद में उसने इसे भी छोड़ दिया।

पार्वती की कठोर तपस्या से आकशवाणी हुई 'पार्वती, अब तुम्हें तपस्या करने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा मनोरथ सिद्ध हुआ। तुम्हें भगवान शिव वर के रूप में अवश्य मिलेंगे।

इतने में सप्त ऋषियों ने पार्वती की परीक्षा लेनी चाही। वे पार्वती के पास आए। ऋषिगणॊं ने पार्वती जी के पास आकर पूछा-'पार्वती? तुम यह कठोर तपस्या किस हेतु कर रही हो? किसकी आराधना कर रही हो और क्या चाहती हो? हमसे स्पष्ट कहो।

ऋषिगणॊं की बात सुनकर पार्वती ने लज्जाते हुए कहा-'मुनिवर! मैंने शिव को अपना पति बनाने के लिए यह तपस्या की। देवर्षि नारद जी के कहने पर मैंने यह तपस्या की। पार्वती की बात सुनकर ऋषिगण हंस पड़े। उन्होंने कहा-'पर्वत की बेटी होने के कारण तुम्हारा नाम पार्वती है। तुम्हारा विचार दृढ होना चाहिए। नारद जी का उपदेश सुनकर किसका भला हुआ है?

'नारद जी ने दक्ष-पुत्रों को जाकर उपदेश दिया। चित्रकेतु का घर उन्होंने बिगाड़ा। हिरण्यकशिपु का भी ऎसा ही हाल किया।'

ऋषियों ने आगे कहना जारी रखा, 'नारद जी की सलाह पर चलने वाले स्त्री-पुरुष भिखारी हो जाते हैं। मन के वह बड़े कपटी हैं। शरीर उनका अवश्य साफ है। वह अपने ही समान सबको बनाना चाहते हैं।'

तुम बहुत भोली लड़की हो जो उनकी बातों मे विश्वास करके ऎसे पति की कामना करने लगीं जो उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, घरहीन, बुरे वेश वाला, मुण्डमाल-धारी, कुलहीन, नंगा और सांपों को धारण करने वाला है। ऎसा वर तुम्हें कौन-सा सुख देगा।'

'ठग ने तुम्हें अच्छी तरह भ्रमित कर दिया है। सती की कहानी नहीं जानती। उसने भी शिव से विवाह किया। शिव ने उसे यज्ञ में मरवा डाला।'

'शिव जी अब निश्चिंत हैं। उन्हें किसी बात की चिन्ता नहीं। भीख मांगकर खाते हैं। श्मशान घाट में भभूति लगाए घूमते रहते हैं। ऎसे फक्कड़ बाबा के घर में कोई स्त्री कैसे सुख से रह सकती है? अपना भला चाहो तो उन्हें वर के रूप में प्राप्त करने का विचार त्याग दो। हम तुम्हारा विवाह बैकुण्ठ में रहने वाले श्रीपति भगवान विष्णु से कर देंगे।'

ऋषियों से इतना सब सुनने के बाद पार्वती जरा भी विचलित न हुई। बोली-'आप लोगों ने जो कहा सब सत्य है, पर मेरी प्रतिज्ञा भी अटल है। मैं शिव जी के अतिरिक्त किसी दूसरे को अपना पति नहीं बनाऊंगी।

पार्वती के अटल निश्चय के सामने ऋषिगण हार गए। वे पार्वती के मन को डिगा न सके। अंत में उन्होंने कहा-'जगत माता भवानी! आपकी जय हो।' यह कह कर ऋषिगण वहाँ से चले गए और पार्वती पिता के साथ अपने घर आ गई।

उन्हीं दिनों की बात है। तारक नाम का एक महाबली दैत्य था। उसने सारे देवताओं को परास्त करके उनकी सम्पत्ति हड़प ली थी। देवगण उससे युद्ध करने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। सब देवता दुखी मन से ब्रह्मा जी के पास पहुँचे। उन्होंने ब्रह्मा जी को व्यथा सुनाई। ब्रह्मा जी ने कहा-'राक्षस का अंत शिव जी के पुत्र द्वारा ही संभव हो सकेगा। अतः शिव जी का पुत्र होना जरूरी है।'

'पर इन सबके पहले कामदेव को शिव जी के पास भेजना जरूरी है। बिना कामदेव के जाए शिव जी का गृहस्थ ध्रर्म में प्रवेश करना असंभव है। देवताओं ने कामदेव से विनती की। कामदेव ने सारी बात सुनकर कहा- शिव जी से विरोध करने में मेरी भलाई नहीं है। पर मैं तुम लोगों की सहायता अवश्य करूंगा।'

जहाँ शिव जी ध्यान मग्न बैठे थे, वहाँ कामदेव ने जाकर अपना चमत्कार दिखाना आरंभ किया। देव, दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी सब काम के वशीभूत होने लगे। पेड़, पौधे भी इसके प्रभाव से युक्त हुए बिना नहीं रह सके। दो घड़ी तक सारे ब्रह्माण्ड में कामदेव का चमत्कार फैल गया।

किसी तरह कामदेव डरते-डरते शिव जी के सामने पहुँचे। सौभाग्य से शिव जी का उसी समय ध्यान टूटा। उन्होंने अपनी आँखें खोलीं। सामने कामदेव खड़ा था। शिव जी की नजर उस पर पड़ते ही वह भस्म हो गया।

कामदेव की पत्नी जब सुना कि उसके पति का शिव की दृष्टि ने भस्म कर दिया है तो वह रोती-चिल्लाती शिव जी के पास पहुँची। शिव जी की प्रार्थना करते हुए वह दया की भिक्षा मांगने लगी। शिव जी उसकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर बोले-'रति! आज से तुम्हारे पति का नाम 'अनंग' होगा। वह बिना शरीर के ही सबको प्रभावित करेगा।'