अब राजकुमार बड़े हो चले थे।
राजा दशरथ ने उनको सुयोग्य शिक्षकों के आश्रम में भेजा राजकुमारों ने थोड़े ही समय में वेद, शास्त्र, पुराण और राजनीतिक प्राप्त कर ली।
धनुविद्या और धनुर्वेद में वे कुशल हो गए। वीरता तो उनके रक्त में ही थी। चारों भाई सब विद्याओं में निपुण और पराक्रमी थे।
उनमें राम सर्वोपरि थे। बलविक्रम के साथ उनमें शील विनय आदि गुण भी थे। अपने पुत्रों के रूप, गुण और शील-स्वभाव को देखकर माता-पिता हर्ष से फूले नहीं समाते थे।
राजकुमारों के युवा होने पर राजा को उनके विवाह की चिंता हुई। वे इस विषय में एक दिन मंत्रियों और पुरोहित से बातचीत कर ही रहे थे कि द्वारपाल ने समाचार दिया, महाराज, महर्षि विश्वामित्र पधारे।
सुनते ही राजा दशरथ सिंहासन छोड़कर उनके स्वागत के लिए आगे बढ़े। राजा ने मुनि को सादर प्रणाम किया, उन्हें उचित आसान पर बैठाया और सेवा सेवा-सत्कार से संतुष्ट किया। इसके बाद राजा दशरथ हाथ जोड़कर बोले,
भगवान आपके पधारने से हमारी नगरी धन्य हुई। अब आज्ञा करें कि क्या सेवा करूं। विश्वामित्र प्रसन्न होकर बोले,
राजन विशेष कार्यवश ही आपके पास आया हूँ। हमारे यज्ञ में राक्षस विघ्न डाल रहे हैं। राक्षस-राज रावण के दो अनुचर मरीच और सुबाहु हमें यज्ञ नहीं करने देते।
यज्ञ की रक्षा के लिए हम आपके वीर पुत्र राम को मांगने आए है। मेरे साथ उन्हें भेज दीजिये। आप डरे नहीं, राम की भी इसमें भलाई है। मैं आज ही लौट जाना चाहता हूँ।
इतना सुनते ही राजा के प्राण सूख गए। वे गिड़गिड़ा कर विश्वामित्र से बोले - ऋषिराज यह आपने कैसी बात कह दी ?
रावण के सामने तो देवता, दानव, गंधर्व कोई खड़ा भी नहीं हो सकता।
उससे वैर मोल लेना हंसी-खेल नहीं।
मेरा राम तो अभी बालक ही है। मैं अपनी सेना लेकर आपके साथ चलता हूँ और आपके यज्ञ की रक्षा करूंगा। मेरे प्राणप्यारे राम पर कृपा कीजिये। बुढ़ापे में पुत्र-वियोग से मुझे दुःखी न कीजिये। इतना कहकर राजा विश्वामित्र के चरणों पर गिर पड़े।
विश्वामित्र रुष्ट होकर बोले, राजन आपका आचरण तो रघुवंशियों जैसा नहीं है। लो मैं जाता हूँ। तब राजगुरु वशिष्ठ ने राजा को समझाया - महर्षि विश्वामित्र सिद्ध पुरुष हैं, तपस्वी हैं और अनेक गुप्त विद्याओं के पंडित हैं। वे कुछ सोच-समझकर ही आपके पास आए हैं। राम को जाने दें। कोई इनका बाल भी बांका न कर सकेगा।
तब राजा दशरथ ने राम को विश्वामित्र के हाथ सौंप दिया। लक्ष्मण भी बड़े भाई के साथ चल दिए। लक्ष्मण भी बड़े भाई के साथ चल दिए। विश्वामित्र के पीछे-पीछे धनुष-बाण लिए दोनों भाई सरयू के किनारे जा रहे थे।
जब वे तीन कोस दूर निकल गए, तब विश्वामित्र ने कहा - तुम दोनों भाई नदी ने आचमन कर मेरे पास आओ।
मैं तुम्हें बला-अतिबला नाम की गुप्त विद्याएं सिखाना चाहता हूँ। इन विद्याओं के मिलने पर तुम्हारा आत्मबल बढ़ जाएगा और आसुरी शक्तियों से तुम्हारी सुरक्षा रहेगी। दोनों भाइयों ने ऋषि की आज्ञा का पालन किया। विद्याओं के ग्रहण करते ही उनमें नवीन स्फूर्ति आ गई। उस दिन वे सरयू नदी के किनारे ही टिक गए।
अगले दिन वे सरयू के किनारे-किनारे फिर आगे बढ़े। सरयू और गंगा के संगम पर उन्होंने गंगा पार की । अब वे एक भयानक वन में पहुंचे। जहाँ-तहँ हठी, सिंह,सूअर दिखाई पड़ने लगे।
हिंसक पशुओं की आवाजों से वन गूंज रहा था। महर्षि विश्वामित्र ने बताया यहाँ से दो कोस की दुरी पर तड़का रहती है। वह बड़ी बलवती, भयानक और दुष्टा है। उसने अपने पुत्र मारीच की सहायता से यहाँ के जनपदों को उजाड़ दिया है।
अब तो यहाँ भयानक वन ही तुम देख रहे हो। आज तुम्हें उसका संहार करना है। स्त्री समझकर उसे छोड़ना ठीक न होगा।
श्रीराम ने उत्तर दिया - मैं आपकी आज्ञा का अवश्य पालम करूंगा। यह कहकर उन्होंने धनुष की डोरी खींच कर छोड़ दी।
उसकी टंकार से दिशाएं गूंज उठीं। महाराक्षसी ताड़का भी उसे सुनकर एक बार घबरा गई और फिर गरजती हुए दौड़ी। राम के पास पहुंचकर उसने धूल धूल का बादल उड़ाया और वह पत्थरों की वर्षा करने लगीं। राम ने उसे बाणों से घायल कर दिया।
तब ताड़का अपनी लंबी बाहें फैलाकर राम पर झपटी। वह अदृश्य होकर घायल कर दिया। तब ताड़का अपनी लंबी बाँहें फैलाकर राम पर झपटी।
वह अदृश्य होकर फिर पत्थर बरसाने लगी। राम ने उसे चारों ओर से वाणों से घेर लिया।
फिर उसके हृदय में उन्होंने ऐसा तीक्ष्ण बाण मारा कि वह हरहरा कर गिर पड़ी। विश्वामित्र ने राम को गले से लगा लिया। प्रसन्न होकर ऋषि ने दण्डचक्र, कालचक्र, ब्रह्मास्त्र आदि अनेक दिव्य राम को दिए।
राम और लक्ष्मण को साथ लिए मुनि विश्वामित्र अपने तक आगे बढ़े। महर्षि विश्वामित्र का यहीं आश्रम था। आश्रमवासियों ने उनका यथोचित सत्कार किया। विश्वामित्र ने उसी दिन यज्ञ आरम्भ कर दिया। पांच दिन तक यज्ञ निर्विघ्न चलता रहा। छठे दिन आकाश में घोर गर्जना सुनाई पड़ी।
देखते-देखते काले बादल जैसे दो विशालकाय राक्षस वहां आ पहुंचे।
इनमें से एक ताड़का का पुत्र मारीच था और दूसरा उसका साथी सुबाहु था। इन राक्षसों के पीछे बहुत बड़ी सेना भी थी। श्रीराम ने मारीच पर मानवास्त्र चलाया।
उसके आघात से वह मूर्च्छित हो गया और बहुत दूर समुद्र के पास जा गिरा। जब उसे होश आया तो वह दक्षिण की ओर भाग गया। सुबाहु को श्रीराम ने आग्नेयास्त्र से मार डाला और साड़ी राक्षस सेना का वायव्यास्त्र से संहार कर दिया।
विश्वामित्र का यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो गया। विश्वामित्र ने राम को हृदय से लगा लिया। सब ऋषि राम की प्रशंसा करने लगे।
चले जात मुनि दीन्हि देखाई, सुनि जोड़कर पूछा - अब हमारे लिए क्या आज्ञा है ? विश्वामित्र ने बड़े स्नेह से कहा - वत्स मिथिला के राजा जनक को तो तुम जानते होंगे। वहां बहुत बड़ा यज्ञ हो रहा है। हमलोग को वहां जाना है।
तुम दोनों भाई भी हमारे साथ चलो। राजा जनक के यहाँ एक विचित्र धनुष भी है उसे कोई उठा भी नहीं पाता। वह धनुष भी तुम देखना।