जनकपुरी में राम और लक्ष्मण

विश्वामित्र के साथ दोनों राजकुमार मिथिला के लिए चल दिए।

सिद्धाश्रम के अनेक अन्य ऋषि भी साथ में थे। विश्वामित्र तरह-तरह की पौराणिक कथाएं सुनाते जाते।

नए स्थानों और वनों में श्रीराम उनसे पूछते और मुनि बड़े प्रेम से उनकी कथा बताते।

सोन नदी को पारकर वे सब एक बड़े सुन्दर प्रदेश में पहुंचे। वहां बड़े सुहावन वन थे। श्रीराम ने उस देश के बारे में मुनि से पूछा।

विश्वामित्र ने बताया कि यह मेरा ही देश है। बहुत पहले मैं यहाँ का राजा था।

इसी प्रसंग में उन्होंने अपनी वंशावली भी राम-लक्ष्मण को बताई। रात को विश्राम के वे फिर आगे बढ़े। विश्वामित्र ने गंगा की उतपत्ति, पार्वती की कथा और स्वामिकार्तिक के जन्म की कहानी राम-लक्ष्मण को मार्ग में सुनाई।

जब वे मिथिला के निकट पहुंचे तो नगर के बाहर उन्हें एक सुना-सा आश्रम दिखाई पड़ा। श्रीराम ने उसके विषय में जानना चाहा। ऋषि बोले - किसी समय यह गौतम मुनि का आश्रम था। जब वे अपनी पत्नी अहल्या के साथ यहाँ रहते थे, तब इसकी शोभा अद्भुत थी। एक दिन बड़ी दुखद घटना हुई।

एक रात को सवेरा हो जाने के भ्रम में, जब गौतम ऋषि गंगा-स्नान को गए तो ऋषि के भेष में इंद्र आश्रम में घुस आया। जब वह आश्रम से निकल रहा था, उसी समय महर्षि गौतम आ पहुंचे। इंद्र को देखकर उन्हें क्रोध आ गया। उसे कठोर शाप दिया। उन्होंने अहल्या का भी त्याग कर दिया। अब वह पत्थर की मूर्ति की तरह रहती है। मन में राम-राम कहती हुई दिन काट रही है।

यह कथा सुनकर राम को अहल्या पर दया आई। राम ने बढ़कर ऋषि-पत्नी के पैर छुए। राम का स्पर्श पाते ही अहल्या शापमुक्त हो गई। वह पहले की तरह सुन्दर भी हो गई। गौतम ऋषि ने भी अहल्या को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस घटना से राम का यश ओर फ़ैल गया।

राजा जनक को विश्वामित्र के आने का समाचार मिला। वे शतानन्द तथा अन्य ऋषियों को लेकर स्वागत करने के लिए नगर के बहार आए।

आते ही उन्होंने मुनि को अंदर के साथ प्रणाम किया और कुशल-समाचार पूछा। जब उनकी दृष्टि राम-लक्ष्मण की ओर गई, तब राजा जनक की आँखे खुली की खुली रह गई।

उन्होंने विश्वामित्र जी से पूछा - ये सुन्दर बालक कौन हैं ?

किसी राजकुल के भूषण हैं अथवा साक्षात भगवान ही हैं ?

मेरा सहज बिरागी मन भी इन्हें देखकर इनकी ओर खिंचा चला जा रहा है ।

विश्वामित्र ने कहा... महाराज आपका कहना ठीक ही है ।

ये कौशल नरेश महाराज दशरथ के पुत्र हैं।

आपके “सुनाभ' नाम के विचित्र धनुष को दिखाने के लिए मैं इन्हें अपने साथ ले आया हूँ ।

पुत्री सीता के विवाह के संबंध में जो आपने प्रण किया है, उसे मैं सुन चुका हूँ ।'' राजा जनक ने मुनि की स्तुति की और यज्ञशाला के निकट ही एक रमणीक उद्यान में मुनि और राम-लक्ष्मण के ठहरने का प्रबंध कर दिया ।

तेहि छन राम मध्य धनु तोरा, भरे भुवन धुरि घोर कठोरा।

अगले दिन गुरु विश्वामित्र के साथ राम-लक्ष्मण यज्ञशाला में गए । राजा ने उन्हें एक ऊँचे आसन पर बैठाया । विश्वामित्र ऋषि ने जब फिर धनुष की बात छेड़ी, तब जनक ने सेवकों को बुलाकर धनुष ले आने की आज्ञा दी ।

यह धनुष लोहे के आठ पहियों वाले एक बड़े संदृक में रखा था।

उसे खींचकर जब सेवक ले आए, तब राजा जनक बोले- -'' मुनिवर ! यह शंकर जी का धनुष है । देवताओं ने हमारे एक पूर्वज देवरात को इसे दिया था ।

इस भारी धनुष को कोई नहीं उठा सका। प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर की बात है। मेरे प्रण को सुनकर अनेक राजा और देव-दानव आए और लज्जित होकर चले गए ।”!

गुरु का संकेत पाकर श्रीराम ने धनुष सहज ही उठा लिया और ज्योंहि प्रत्यंचा चढ़ाकर उसे खींचनो चाहा कि वह बीच से टूटकर दो टुकड़े हो गया । वज्पात जैसा भयंकर शब्द हुआ और पृथ्वी काँपने लगी ।

धनुष टूटते ही राजा जनक के हर्ष का ठिकाना न रहा । राम के सौंदर्य और बलविक्रम को देखकर वे बोले... मुनिवर ! आपकी कृपा से मुझे अपनी प्यारी बेटी के लिए मनचाहा वर मिल गया ।

अगर आपकी अनुमति मिल जाए, तो मैं महाराज दशरथ के पास संदेश भेजकर बारात ले आने का निमंत्रण भेज दूँ। विश्वामित्र बोले, अब क्या पूछना !

शुभ कार्य में देर क्‍यों की जाए ।!! राजा जनक ने अपने चतुर मंत्रियों को शीघ्रगामी रथ द्वारा अयोध्या जाने की आज्ञा दी ।