राम के अभिषेक की तैयारी और कैकेयी के दो बरदान

भरत के मामा युधाजित अपने पिता की आज्ञा से भरत को लेने के लिए अयोध्या आए थे |

जय अयोध्या में पहुँचकर उन्हें बारात का समाचार मिला, तब वे भी जनकपुर जा पहुँचे ।

जनकपुर से लौटने पर कुछ दिन बाद राजा दशरथ ने भरत और शत्रुघ्न को कैकई देश भेज दिया ।

नाना और मामा ने उन्हें बड़े लाड-प्यार से रखा ।

भरत की इच्छा अपने नगर लौटने की होती, तो उनके नाना अनुरोध कर उन्हें रोक लेते । इस तरह ननिहाल में रहते भरत और शत्रुघ्न को काफी दिन हो गए । अयोध्या में केवल राम-लक्ष्मण रहे ।

अब राम राज-काज में पिता का हाथ बँटाने लगे ।

राम सदा दूसरों की भलाई की बात सोचते और सदाचार का पालन करते ।

जैसे वे नम्र और विद्वान थे, वैसे ही शूरवीर और पराक्रमी भी । छोटे-बडे सबसे वे प्रेमंपूर्वक मिलते थे ।

क्रोध में भी किसी से दुर्बचन नहीं बोलते थे । प्रजा उनको बहुत चाहने लगी ।

राम के कामों से राजा दशरथ भी बड़े प्रसन्‍न थे । वे अब बूढ़े भी हो चले थे ।

उन्होंने निश्वय किया राम को युवराज बना दिया जाए ।

राजा ने मंत्रियों से सलाह की और कैकेयराज और मिथिला-नरेश को छोड़कर सब मित्र राजाओं को अयोध्या आने का निमंत्रण भेजा जिससे उनकी सम्मति भी मिल जाए।

निश्चित समय पर सभा-भवन में आमंत्रित राजागण आ गए ।

अयोध्याबासी भी उपस्थित हुए ॥ राजा दशरथ ने सबके सामने राम को युवराज बनाने का प्रस्ताव रखा ।

सबने एक स्वर से राम की प्रशंसा की और उनके गुणों का वर्णन करते हुए प्रस्ताव का समर्थन किया । राजा ने सबको धन्यवाद करते हुए कहा कि मैं कल ही राम का अभिषेक करना चाहता हूँ ।

आप लोग उत्सव में सम्मिलित हों । इस घोषणा के बाद उन्होंने सुमंत को भेजकर राम को सभा में बुलवाया । राम के आसन ग्रहण करने पर राजा दशरथ बोले “जनता ने तुम्हें अपना राजा चुना है ।

सावधानी से तम राज धर्म का पालन करना ओर इस कुल की मर्यादा की रक्षा करना ।”'

सभा चिस्र्जित करके राजा दशरथ अपने भवन में चले गये । राम से एकांत में बात करने के लिए उन्होंने राम को फिर से बुलवा लिया ।

राजा दशरथ राम से बोले, “बेटा, अब मैं बुढ़ा हो गया हूँ और राज-काज चलाने में अपने को असमर्थ पाता हूँ न जाने मेरी आँखें कब बंद हो जाएँ ।

भरत भी इस समय ननिहाल में है । मैं चाहता हूँ जनता ने तुम्हें राजा चुना है तो यह

नेक काम मेरी आँखों के सामने संपूर्ण हो, ऐसे शुभ कार्यों में तरह-तरह के विघ्न-बाधाएँ पड़ने का डर रहता है। इसलिए अत्यंत सावधान रहने की आवश्यकता होती है ।

तुम भी आज की रात सावधान रहना ओर संयम से भी रहना ।”' राम उठकर माता कौशल्या के पास गए । माता को प्रणाम करके उन्होंने राजतिलक की सब बातें सुनाई ।

माता ने पुत्र को हृदय से लगा लिया और हर्ष से फूली न समाई । फिर वे मंगलगान और दान-पुण्य में लग गईं । यह शुभ समाचार नगर भर में फैल गया । नगर सजने लगा और चारों ओर आनंद मनाया जाने लगा ।

इधर एक ओर तो अभिषेक की तैयारियाँ हो रही थीं, उधर दूसरी ओर दूसरा ही कुचक्र चल रहा था | इस कुचक्र को चलानेवाली थी कैकेयी की मुँहलगी दासी मंथरा । वह जैसी कुरूप और कुबड़ी थी, वैसी ही कुटिल भी थी।

मंथरा को जैसे ही राम के अभिषेक का समाचार मिला, वह तत्काल कैकेयी के महल में पहुँची और बोली, ““अरी मेरी रानी ! तू कैसी बेसमझ है !'' मौत तेरे सिर नाच रही है और तू सुख की नींद सो रही है !'” कैकेयी ने चौंककर पूछा, “मंथरा, क्या बात है । साफ क्‍यों नहीं बताती ? राम तो कुशल से है ?

क्या भरत का कोई समाचार आया है ?”” मंथरा बोली, “ और

तो सब ठीक हे । बस तुम्हारे सुख-सौभाग्य का अंत होनेबवाला है ।

भरत को ननिहाल भेजकर राजा कल ही कौशल्या-पुत्र राम को राज-काज सौंपने जा रहे हैं ।'' यह सुनते ही केकेयी बोली, “इससे और अधिक प्रसन्नता की बात कया होगी ! मेरे लिए जैसे भरत वैसे ही राम । लो, यह हार में तड़ो उपहार में देती हूँ ।''

मंथरा ने हार लेकर फेंक दिया और बोली “'भोली रानी, अक्ल से काम लो । मुझे तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि तुमको अपने निकट का संकट भी दिखाई नहीं देता । राज पाकर राम का हृदय भरत के प्रति बदल भी सकता है ।

कौशल्या राजमाता होंगी और तुम उनकी दासी बनोगी ।'' कैकेयी फिर भी विचलित नहीं हुई । तब लंबी साँस लेकर मंथरा फिर बोली, “पगली रानी, राम के राजा होते ही भरत मारे-मारे फिरेंगे ।

राजा की विशेष प्रिय होने के मद में तुमने कौशल्या के साथ केसे-कैसे दुर्व्यवहार किए हैं, यह तुम जानती ही हो । राजमाता होते ही बे उन सबका तुमसे बंदला लेंगी ।

इस संकट से बचने का एक ही उपाय है कि किसी तरह राम को वन भेज दिया जाए और भरत का राजतिलक हो "!

अब कैकेयी की बुद्धि पलटी, अपना कार्य सिद्ध होते देख मंथरा बोली -''रानी याद करो, एक बार शंबासुर के विरुद्ध इन्द्र की सहायता करने के लिए महाराज गए थे ।

तुम भी पति के साथ गई थी । तुम्हीं ने रणक्षेत्र में राजा के प्राणों की रक्षा की थी ।

राजा ने प्रसन्‍न होकर तुम्हें दो बरदान माँगने को कहा था । वे दोनों वरदान तुमने अब तक नहीं माँगे ।

अब माँग लो । कोप भवन में जा बैठो और जब राम की सोंगध खाकर राजा वचन दे, तब एक वरदान से भरत को राजतिलक और दूसरे से राम को चौदह वर्ष का वनवास माँग लो ।”

कैकेयी ने ऐसा ही किया ।

रात को जब राजा दशरथ कैकेयी के 'महल में पहुँचे तो उनको रानी के कोप भवन में जाने का समाचार मिला । इस खबर से राजा के' प्राण सूख गए ।

कैकेयी उनको प्राणों से भी अधिक प्यारी थी ।

वे उनके शरीर पर हाथ फेर कर मनाने लगे । राजा ने कहा - ''तुम क्यों ऐसी रूठी पड़ी हो ! तुझे मालूम है कि तेरी प्रसन्‍नता के लिए मैं रंक को राजा और राजा को रंक बनाने के लिए तैयार हूँ।

यदि किसी ने तुम्हारा अहित किया हो तो उसका सिर अभी कटवा लूँ मैं अपने पुण्यों और प्राण प्यारे राम की शपथ लेकर कहता हूँ कि तुम जो कहोगी, वही करूँगा ।

राजा ने जब राम की शपथ ले ली, तो कैकेयी ने दोनों वरदान माँगे ।

राम के वनवास की बात सुनकर राजा सन्‍न रह गए और शोक के कारण मूच्च्छित हो गए ।कुछ देर बाद जब वे होश में आए, तब “राभ', “राम' कहकर उठ बैठे और कैकेयी को तरह-तरह से समझाने लंगे ।

वे कैकेयी से बोले, “' भरत को बुलाकर मैं उसका राजतिलक कर दूँगा, पर मेरे राम पर दया करो, मुझ पर दया"करो।'

की केकेयी किसी तरह न मानी । वह बोली, ““राजन्‌ आपकी बात रघुवंशियों जैसी नहीं है ।

आपके पूर्वजों ने सत्य पालन के लिए न जाने कितने कष्ट झेले ।

हरिश्चान्द्र और शिव का नाम इसी कारण आदर से लिया जाता है ।सत्य ही संसार में ईश्वर है ।

धर्म भी सत्य पर टिका है ।

सत्य से बढ़कर और कोई नहीं ।

सत्य को छोड़कर आप संसार को कैसे मुँह दिखाएँगे, रही मेरी बात, अगर आप वरदान नहीं देते, तो मैं आत्महत्या कर लूँगी और आप इस कलंक और अपयश का भार जीवनभर ढोते रहेंगे ।” राजा समझ गए कि अब कुछ होनेवाला नहीं ।

राजा रातभर बेसुध से पड़े रहे । सवेरा होने पर सुमंत कैकेयी के महल में समाचार लेने आए ।

राजा की दशा देखकर वे समझ गए कि कैकेयी ने कोई कुचाल' की है। सुमंत ने कैकेयी से राजा के दुख का कारण पूछा ।

कैकेयी बोली--““मैं कुछ नहीं जानती । राम को ही बे अपने मन की बात बताएँगे ।”

राजा का संकेत पाकर सुमंत राम को बुलाने गए। थोडी देर में लक्ष्मण के साथ राम आ गए ।

राम को देखते ही दशरथ बेसुध हो गए और कुछ बोल न सके । तब कैकेग्यी ने राम को सब बातें बताईं। अपने वरदान की भी बताईं ।

पिता का रुख देखकर राम ने बृढ़ता से कहा-- पिताजी की प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए मैं अभी वन जाता हूँ।

भरत को बुलवाकर उनका

राजतिलक कर दीजिए । मैं भाई'भरत के लिए सब कुछ छोड़ता हूँ ।

अब राम अपनी माता कौशल्या के पास गए और उनको कैकेयी के भवन की सब बातें बताईं ।

यह समाचार सुनकर माता कौशल्या बेसुध-सी हो गईं और अपने भाग्य को कोसने लगीं - मैं तो निरंतर अपने को घर की दासी मानकर सबकी सेवा करती रही ।

भरत को भी

अपना बेटा ही माना। कैकेयी का भी बुरा नहीं चाहा, फिर मेरे साथ यह अन्याय क्‍यों ?

माता कौशल्या का दुख देखकर लक्ष्मण के क्रोध की आग भड़क उठी ।

श्रीराम ने लक्ष्मण

को समझा-बुझाकर शांत किया और कहा- मेरे बन जाने की तैयारी करो ।