माता के चरण छूकर राम ने वन जाने की आज्ञा माँगी ।
कौशल्या ने कहा--.“मैं तुम्हें बन जाने से रोकती हूँ । तुम्हारे पिता कैकेयी के बहकावे में आ गए हैं ।
जब तुमने कोई अपराध ही नहीं किया, तब वन क्यों जाओ ।
राजा की आज्ञा अनुचित है। उसे मत मानो ।''
राम ने नम्रता से उत्तर दिया--“माँ ! पिता की आज्ञा मुझे माननी चाहिए और तुम्हें भी माननी चाहिए।
उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना मेरी शक्ति के बाहर है । अब मुझे वन जाने की अनुमति दो और आशीर्वाद दो ।”” लक्ष्मण से उन्होंने कहा--'' भैया !
भाग्यवश जीवन में ऐसे उलट-पफेर, उतार-चढ़ाव आते रहते हैं । इसमें किसी का दोष नहीं--न राजा का और न माता कैकेयी का ।”' ।
भाग्य की बात लक्ष्मण को बिल्कुल अच्छी नहीं लगी। वे तमककर बोले- '' भाग्य के भरोसे तो जीना कायरों का काम है ।
जीवन उसी का सफल है, जो अपने भरोसे जीता है ।
अपने बाहुबल से आप राज-सिंहासन पर बैठें । अगर किसी ने विरोध किया तो मैं अयोध्या में आग की वर्षा कर दूँगा । श्रीराम ने लक्ष्मण को समझाया- मेरे लिए जैसा राजसिंहांसन वैसा ही बन । अधर्म का राज्य मुझे नहीं चाहिए । तुम जो कह रहे हो, वह आयों के अनुकूल व्यवहार नहीं है ।
लक्ष्मण चुप हो गए, कौशल्या रोकर राम से लिपट गई और कहने लगी, जाते ही हो तो मुझे साथ, ले चलो। राम ने उन्हें समझा-बुझाकर शांत किया ,और वन जाने की: अनुमति माँगी ।
माता ने कहा-- बेटा ! जाओ, जिस धर्म का तुम पालन कर रहे हो, वहीः तुम्हारी! रक्षा करे ।
मेरे ब्रत-पूजन का सब फल तुम्हें मिले, सब दिशाएँ तुम्हारे लिए मंगलम्य हों, मेरा रोम-रोम तुम्हें आशीर्वाद देता है ।''
माता से।विदा लेकर राम सीता के पास गए ।सारा हाल बताक़र सीता से भी उन्होंने विदा माँगी, यह भी-कहा कि माता बूढ़ी हैं, उनकी देखभाल करना और ,भरत का रुख देखकर काम करना । वे कुल्-के भी स्वामी होंगे।और राजा भी । उनके सामने मेरी प्रशंसा भूलकर भी न करना, क्योंकि प्रभुतावाले लोग अपने सामने दूसरों की प्रशंसा सहन नहीं कर सकते ।
चौदह वर्ष बाद हम तुम फिर मिलेंगे ।
इस समाचार से सीता व्याकुल हो गई, फिर सँभलकर बोली- मुझे छाया की भाँति तुम्हारे साथ रहने का पिता से आदेश मिला है । इसे तुम जानते ही हो । मैं भी वन को चलूँगी । राम ने उन्हें बहुत तरह से समझाया-बुझाया । जब वे किसी तरह न मानीं, तो राम ने कहा - तुरंत चलने के लिए तैयार हो जाओ । तभी लक्ष्मण भी वहाँ आ गए और उन्होंने भी साथ चलने . का आग्रह किया । अंत में राम को उन्हें भी साथ चलने की अनुमति देनी पड़ी ।
लक्ष्मण से उन्होंने कहा; माता से अनुमति लेकर गुरु वशिष्ठ के घंर जाओ.। वहाँ से मेरे सुरक्षित दिव्य अस्त्र-शस्त्र ले आओ ।
माता से अनुमति लेकर और गुरु के यहाँ से अस्त्र-शस्त्र लेकर लक्ष्मण लौट आए । इधर । श्रीराम ने अपना और सीता का सारा सामान ब्राह्मणों और सेवकों को बाँट दिया । सीता और लक्ष्मण को लेकर वे पिता के पास विदाई के लिए चल दिए।
सीय सकुच बस उतरु न देई, सो सनि तमकि उठी केकेई। लोग बिकल मुरुछित नरनाहू, काह करिअ कछ सूझ न काहू॥
राम वन - गमन का समाचार सारी- अयोध्या में फैल चुका था | राम-लक्ष्मण और सीता को के महल की ओर जाते देखकर नगरवासी दशरथ और केकेयी को धिक्कारने लगे । उधर राजा
महल में राजा दुःख से तड़प रहे थे । उन्होंने कौशल्या और सुमित्रा को अपने पांस बुला लिया था । राम ने सबसे विदा माँगी । राजा ने उठने को कोशिश की, पर वे गिर पड़े और मूर्च्छित हो गए । जब उनकी मूर्च्छा जगी तो राम ने विंदा माँगी और कहा--.''सीता और लक्ष्मण भी मेरे
साथ जाने का आग्रह कर रहे हैं । हमलोगों के लिए आप शोक न करें ।
राजा दशरथ ने कहा-...' बेटा, केकेयी ने मेरी मति हर ली है | मुझे पकड़कर बंदीघर में डाल दो ओर अयोध्या के राजा बन जाओ । राम ने बड़ी नम्रता से कहा-...'' पिताजी, मुझे राज्य लोभ बिल्कुल नहीं है । यदि में वन न जाऊँ तो आपका वचन भी मिथ्या होगा । रघुकुल की रीति मिट जाएगी । मुझे वन जाने दीजिए । कैकेयी बीच-बीच में राजा दशरथ को फटकारती जाती थी ।
राम को छाती से लगाकर राजा मू्च्छित हो गए | इतने में केकेयी वल्कल वस्त्र ले आई और राम से बोली-..“'लो, इन्हें पहनकर वन को जाओ ।”!
राम ने राजसी वस्त्र उतार दिए और वल्कल वस्त्र पहन लिए | सीता को भी कैकेयी ने तपस्विनी के वस्त्र दिए। यह देखकर लोग राजा दशरथ और कैकेयी को तरह-तरह से धिक्कारने लगे । सीता से लिपटकर रानियाँ रोने लगीं | राजा भी अपना सिर नीचे कर रोने लगे । सुमित्रा ने लक्ष्मण को आशीर्वाद दिया और कहा--''सीता-राम को ही तुम अपना माता-पिता समझना ।
इनकी रक्षा के लिए अपने प्राण देने से भी न हिचकना । जाओ, वीर पुत्र ! जाओ ! निश्चित होकर सीता-राम के साथ जाओ ।'' राम ने तब फिर अनुमति माँगी और सीता तथा लक्ष्मण को साथ लेकर वे चल दिए । अंतःपुर की सब स्त्रियाँ रोती-बिलखती उनके पीछे-पीछे चलीं ।
नगर के द्वार पर सुमंत रथ लिए खड़े थे। राम, लक्ष्मण और सीता रथ पर चढ़ गए । राम के आदेश से सुमंत ने वेग से रथ हाँका--प्रजा और रानियाँ रथ के पीछे दौड़ने लगीं । “राम ! राम !' मेरे राम ! हा लक्ष्मण ! हा सीता !' की पुकार दसों दिशाओं में फैल गई । अब राजा दशरथ को रथ की धूल भी दिखाई नहीं देती थी ।
राजा हताश होकर गिर पड़े । रानियाँ उन्हें उठाकर कौशल्या के भवन में ले गईं | राजा कभी बेसुध हो जाते और कभी “राम ! राम !” कह चिल्ला उठते । सारी अयोध्या नगरी शोक-सागर में डूब गई । घर, बाजार और गलियों में सन्नाटा छा गया । मनुष्यों की तो क्या पशु-पक्षियों ने भी खाना-पीना छोड़ दिया।
उधर नगरवासियों की एक भारी भीड़ रथ के पीछे-पीछे दौड़ रही थी । समझाने-बुझाने पर भी जब लोग न लौटे, तब राम-लक्ष्मण भी रथ से उतरकर उनके साथ पैदल ही चलने लगे । संध्या होते-होते वे तमसा नदी के किनारे पहुँचे और उन्होंने वहीं रात बिताने का निश्चय किया । सीता और राम माता-पिता की याद करते हुए तृण-शय्या पर विश्राम करने लगे । कुछ दूर पर लक्ष्मण धनुष-बाण लेकर पहरा देने लगे । सुमंत भी उनके साथ जा बेठे ।
थके-माँदे पुरवासी घोर निद्रा में सो गए । पहर रात रहते ही राम उठे और सुमंत से बोले “तात ! लोगों का कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता । शीघ्र रथ तैयार करो और इस प्रकार रथ हाँको की जगने पर लोगों को पता न लगे कि रथ किधर गया ।”'
सुमंत ने ऐसा ही किया ।
सवेरा होने पर जब लांगों को आँखें खुलीं तो देखा कि राजकमार नहीं हैं। वे इधर-उधर दौड़कर उन्हें खोजने लगे, जब कहीं पता न लगा तो निराश होकर नगर को लौट गए ।