वन यात्रा

रमचन्द्र जा का रथ दक्षिण को ओर चला आर सवरा हाते-होते काफी दूर निकल गया।

हरे-भरे और फले -फूले वनों को देखते-देखते राम-लक्ष्मण-सीता गोमती नदी के किनारे पहुँचे !

उस पार कर वे आगे बढ़े ओर सई नदी तक जा पहुँचे ।

सई को पार कर वे थोडी देर के लिए रुक गए।

कौशल राज्य को सीमा वहाँ समाप्त होती थी। राम ने मुड़ुकर जन्मभूमि की ओर देखा, आँखों म॑ आँसू भर वे सुमंत से बोले--““'तात !

न जाने वह दिन कब आएगा जब में अपन माता-पिता से फिर मिलूँगा ओर सरयू के पवित्र तट पर घूमूँगा ।'” अयोध्या नगरी की ओर मुंह करक राम हाथ जोड़कर खड़े हो गए ओर कहने लगे---जननी जन्मभूमि ! मेरे अपराध क्षमा करना ।

चोद॒ह वर्ष के बाद ही अब तुम्हारे दर्शन कर सकूँगा । तभी सीमा प्रान्त के बहुत-से नर-नारी वहाँ इकट्ठे हो गए ।

वे राजा दशरथ को धिक्कारते थे और कहते थे--ऐसे पापी राजा के राज्य में रहना ठीक नहीं । चलो राम के साथ चलें ।

लोगों की ऐसी प्रीति देखकर राम की आँखें डबडबा आईं । सबको उन्होंने समझाया-बुझाया और वे फिर आगे बढ़े ।

शाम होते-होते उनका रथ गंगा के किनारे श्रृंगवेरपुर गाँव में जा पहुँचा ।

इंगुदी वृक्ष के नीचे राम ठहर गए । श्रृंगवेरपुर में निषादों का राजा गृह रहता था ।

राम के आने की खबर पाकर वह स्वागत के लिए आया |

उसके साथ अनेक बंधु-बांधव और सेवक भी थे ।

गुह को आते देख राम उठे और उससे गले मिले ।

गुह ने कहा- मेरा सौभाग्य है कि आप यहाँ आए । श्रृंगवेरपुर को भी अपना ही घर समझें और सुखपूर्वक रहें ।

श्रीराम ने जब अपने वनवास की बात बताई तो उसको बहुत दुःख हुआ ।

उसने अपना राज्य राम के चरणों में अर्पित कर प्रार्थना की कि श्रृंगवेरपुर पर ही राज्य करें ।

श्रीराम ने निषादराज के प्रति कृतज्ञता प्रकट की ।

वे अपने ब्रत पर दृढ़ रहे । उस दिन भी उन्होंने केवल जल पिया और वे तृण-शय्या पर ही सोए । लक्ष्मण पहरे पर बैठ गए । गृह और सुमंत भी लक्ष्मण के पास ही बैठ गए ।

उनमें रातभर अयोध्या और श्रीराम के विषय में बातें होती रहीं।

अगले दिन श्रीराम ने सुमंत से कहा--मंत्रिवर ! अब आप अयोध्या लौट जाइए ।

पिताजी और माताओं के चरणों में हमारा प्रणाम कहिए और उन्हें बता दीजिए कि चौदह वर्ष बाद हम अवश्य लौट आएँगे ।

भरत से कह दीजिए कि सब माताओं से एक-सा व्यवहार करें और राजा को प्रसन्न रखें ।”

इस प्रकार सुमंत को राम ने समझा-बुझाकर विदा किया ।

तब राम ने बरगद का दूध मँगाकर जटाएँ बनाईं । गुह से विदा लेकर वे सीता ओर लक्ष्मण के साथ नाव में बैठे और गंगा पार कर वत्सदेश में पहुँचे ।

आगे- भागे लक्ष्मण, बीच में सीता और सबके पीछे राम-इस क्रम में व दुर्गम मार्गों पर चलते हुए आगे बढ़े ।

शाम को फिर एक पेड के नीचे ठहर गए। सब लोगों ने कंद-मूल फल खाए | तब राम ने लक्ष्मण से कहा-- “राज्य की मुझे कोई चिंता नहीं है। | मुझे माता की चिन्ता है, उनको मुझसे दुःख ही मिला ।

मैं कोई और सेवा न कर सका । लक्ष्मण तुप सबेरा होते ही अयोध्या लौट जाओ और

माता कोशल्या और माता सुमित्रा की देखभाल करो ।'' लक्ष्मण ने बड़ी दर तक राम को समझा-बुझाकर ढाढ्स बँधाया । सीता-राम के सो जाने पर लक्ष्मण पहरे पर बेठ गए।

अगले दिन वे फिर चले और गंगा-यमुना के संगम पर महर्षि भरद्वाज के आश्रम में पहुँचे ।

भरद्वाज ने उनको आदरपूर्वक ठहराया ।

अगले दिन भरद्वाज से विदा लेकर राम-लक्ष्मण और सीता आगे बढ़े ।

यमुना नदी पार कर, दो दिन की यात्रा के बाद वे चित्रकूट जा पहुँचे ।

चित्रकूट के हरे-भरे पर्वत राम को बड़े अच्छे लगे । उन्होंने लक्ष्मण से कहा-अब हम यहीं कुछ दिन तक निवास करें ।

लक्ष्मण ने मंदाकिनी नदी के किनारे एक सुंदर पर्णकुटी बना दी । राम, लक्ष्मण और सीता वहाँ रहने लगे ।