अयोध्या की चतुरंगिणी सेना लेकर मंत्रियों और माताओं सहित भरत चित्रकूट को चल दिए ।
नगर के धनी-मानी व्यक्ति भी साथ थे।
सेना के चलने से सूने मार्ग कोलाहल से भर
गए और आकाश में इतनी धूल छा गई कि सूरज तारे की भाँति टिमटिमाने लगा ।शाम तक वे श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे, वहीं गंगा-तट पर सेना ने पड़ाव डाल दिया ।
निषादराज गुह ने सेना की पताकाओं से जान लिया कि यह अयोध्या की चतुरंगिणी सेना है ।
उसने अपने साथियों से कहा कि मालूम होता है कि भरत के ऊपर अब राजमद सबार हो गया है ।
राम को वन में मारकर वे अकंटक राज करना चाहते हैं ।
यह तो में जीते-जी नहीं होने दूँगा ।
वह बोला -'' भाइयों मरने-मारने के लिए तैयार हो जाओ ।
आज भरत की सेना से लोहा ' लेना है।
मैं जानता हूँ कि हम लोग उसका मुकाबला किसी भी प्रकार नहीं कर सकते ।
परंतु हमारा धर्म है कि प्राण रहते उसको गंगा पार न होने दें ।
एक न एक दिन मरना तो सबको है ही ।
फिर राम का काम, रणभूमि में वीरगति और गंगा का किनारा, इससे बढ़कर और क्या हो सकता है ।
हमारे पास पाँच सौ नावें हैं ।
हर नाव में सौ-सौ सैनिक बैठ जाएँ और नाके घेर लें ।
में आगे जाकर भेद लेता हूँ ।
अगर भरत भाई से मिलने जा रहे होंगे, तो हम उनकी सहायता करेंगे और अगर उनके मन में कोई पाप है तो आज गंगा में रक्त की धार बहेगी ।
मेरे संकेत की प्रतीक्षा करना ।
इतना कहकर निषादराज ने बहुत-सा भेंट का सामान लिया ओर वह आगे बढ़ा ।
भरत निषादराज के प्रेम को जानते थे ।
वे ललक कर उससे गले मिले भरत के मन को बात गुह ने जान ली ।
राम-लक्ष्मण के विषय में दोनों में बहुत देर तक बातें होती रहीं ।
राजा दशरथ की मृत्यु के समाचार से निषादराज दुखी हुए निषाद के साथ भरत उस इडूंगुदी ब॒क्ष के नीचे गए जहाँ राम ने रात बिताई थी ।
भरत ने उस स्थान को प्रणाम किया और वहाँ की धूल अपने माथे से लगाई । गुह ने लौटकर साथियों को सब समाचार सुनाए ।
अगले दिन प्रातःकाल पाँच सौ नाबें सेना को पार उतारने के लिए घाट पर लग गईं ।
सेना-सहित भरत ने गंगा पार की ।
नाव पर बैठने के पहले भरत ने भी राम की तरह बरगद के दूध से जटा बनाई और वल्कल वस्त्र पहन लिए ।
गुह को साथ लेकर वे प्रयाग की-ओर,बढे ।
भरत के साथ इतनी बड़ी सेना देखकर महर्षि भरद्वाज को भी शंका हुई ।
परंतु भरत के व्यवहार से उनका संदेह दूर हो गया।
भरद्वाज ने भरत को यह भी बता दिया कि राम किस मार्ग से चित्रकूट गए हैं ।
वह रात भरत ने भरद्वाज आश्रम में ही बिताई ।
प्रात:काल होते ही भरत का दल चित्रकूट के लिए चल पड़ा ।
चलते-चलते चित्रकूट पर्वत उन्हें दिखाई दिया ।
सारा बन प्रदेश कोलाहल से भर गया। वन के जीव-जंतु, पशु-पक्षी इधर-उधर भागने लगे ।
कुछ दूरी पर धुआँ उठते देख गुह ने अनुमान लगाया कि वहीं कहीं राम की कुटी होगी ।
इधर राम को भी आकाश में धूल उड़ती दिखाई दी।
पशु-पक्षी भी भाग रहे .थ्रे.।. अब कुछ-कुछ कोलाहल भी समीप आता सुनाई पड़ने लगा । राम ने लक्ष्मण से कहा.....' भाई ऊँचे वृक्ष पर चढ़कर देखो तो क्या बात है ।'' लक्ष्मण ने चढ़कर देखा--दूर पर चतुरंगिणी सेना आ रही है । उन्होंने पताकाएँ देखकर जान लिया कि अयोध्या की सेना है। वे बोले-' आर्य !
जानकी माता को सुरक्षित स्थान में पहुँचाकर धनुष-बाण उठाइए ।
मालूम पड़ता है, भरत हमको वन में भी नहीं रहने देगा। आज मैं सबका बदला लूँगा। भरत को भाई समेत समर भूमि में सुलाकर कैकेयी और मंथरा को भी जिन्दा नहीं छोडूँगा ।'' पेड़ से उतरकर, लक्ष्मण धनुष-बाण लेकर तैयार हो गए। उन्हें उत्तेजित देखकर राम बोले- लक्ष्मण, वीर पुरुष धैर्य और समझदारी से काम लेते हैं। उतावली न करो । भरत साधु स्वभाव के हैं। मेरा मन कह रहा है कि वे मुझसे मिलने ही आ रहे हैं, लड़ने नहीं ।
तुम यह जानते ही हो कि मुझे राज्य पाने का तनिक भी लोभ नहीं है, भरत जैसे प्रिय भाई को त्यागकर मैं स्वर्ग को भी नहीं चाहता । तुम भरत के प्रति अनुचित भावना को अपने मन में मत लाओ । मुझे भरत पर पूरा भरोसा है ।'' भाई राम के ये वचन सुनकर लक्ष्मण शांत हो गए ।
इधर भरत सेना को ठहराकर शत्रुघ्न के साथ आगे बढ़े ।
उन्होंने देखा कि तेजस्वी राम एक शिला पर बेठे हैं । पास में ही सीता और लक्ष्मण भी बैठे हैं । वे व्याकुल होकर राम के चरणों पर गिर पड़े । भरत को देखकर राम भी हड्बड़ा कर उठे । कहीं धनुष गिरा, कहीं बाण और कहीं उत्तरीय । उन्होंने भरत को उठाकर छाती से लगा लिया । दोनों की आँखों में प्रेम की धाराएँ बहने लगीं । भाई से मिलकर भरत ने सीता जी के चरणों में प्रणाम किया । सीताजी का आशीर्वाद पाकर भरत को बड़ा संतोष हुआ, फिर वे लक्ष्मण से गले मिले। शत्रुघ्न ने भी राम-लक्षण और सीताजी के चरणों में प्रणाम किया ।
गुरु और माताओं के आने का समाचार पाकर राम-लक्ष्मण उनसे मिलने गए ।
शत्रुघ्न को सीताजी के पास छोड़ गए ।
गुरु के चरणों में प्रणाम कर वे माताओं से मिले ।
अपने कुटुंबियों और नगरवासियों से भी बडे स्नेह के साथ मिले सबको ठहरने का यथावसर प्रबंध करके श्रीराम अपनी कुटी पर लौट आए ।सीता जी को मुनि बेश में देखकर माताएँ बड़ी दुखी हुईं ।
अब कैकेयी भी मन ही मन पछता रही थी |
जब पिता की मृत्यु का समाचार राम को मिला तो वे सन्न रह गए और अपने ही को उनकी मृत्यु का कारण जानकर बडी देर तक रोते रहे ।
फिर वे मंदाकिनी पर गए ।
वहाँ उन्होंने पितृ-तर्पण किया और इंगुदी के फूलों से पिण्ड देते हुए वे बोले--'“पिताजी !
आपके बनबवासी पुत्र के पास पिंड देने के लिए केवल यही है।
इसे ग्रहण कर संतुष्ट हों और आशीर्वाद दें ।
अगले दिन सब लोग राम के पास इकट्ठे हुए। भरत ने राम के चरणों पर सिर रखकर कैकेयी के अपराधों के लिए क्षमा माँगी और अयोध्या लौट चलने की प्रार्थना की । राम ने भरत को हृदय से लगा लिया और कहा, “जो कुछ हुआ इसमें न तो माता कैकेयी का दोष है और न तुम्हारा । जो कुछ होता है वह भगवान् की इच्छा से होता है । सब अपने कर्मो का फल भोगते हैं ।
जहाँ तक मेरे लौटने की बात है, मैं चौदह वर्ष तक वन् में ही रहकर पिता के बचन का पालन करूँगा ।
जिन पिता ने अपने वचन के लिए प्यारे पुत्र को वन भेज दिया और अपने प्राण भी दे दिए, उनके मरने के बाद मेरे लिए और तुम्हारे लिए भी यही उचित हैं कि उनक वचन का पालन करें ।
तुम अयोध्या में रहकर प्रजा-पालन करो और में चौदह वर्ष तक वन मे वास करूँ ।
चारों भाई अपना-अपना कर्तव्य करें और पिता के सत्य धर्म की रक्षा कर ।
इस पर भरत ने क्रहाज» आपके स्थान चौदह वर्ष तक मैं वन में रहूंगा। मैंने भी मुनि-वेश बना लिया हैं ।
माताओं ने, गुरुजनों ने और नगरवासियों ने भी अपनी-अपनी तरह से राम से बहुत कुछ कहा, पर राम किसी तरह लौटने को तैयार नहीं हुए । उधर भरत भी हठ कर रहे थे।
तब राम ने कहा, “कदाचित् तुम्हें पता न होगा।
तुम्हारे नाना ने जब माता कैकेयी का विवाह पिताजी से किया, तब राजा से यह वचन ले लिया था कि उनके बाद कैकेयी का पुत्र ही अयोध्या का राजा होगा ।
अतः राज्य तुम्हारा ही है ।
फिर माता कैकेयी के दो वरदान भी माँगने को कहा था। यह तुमने सुना ही होगा ।
इसलिए तुम बिना किसी संकोच के अयोध्या पर राज करों ।
जब राम किसी तरह लौटने को तैयार नहीं हुए तब भरत ने स्वर्णजड़ित खड़ाऊँ राम को पहनाकर कहा, “अब इन्हें मुझे दे दीजिए ।
चौदह वर्ष तक इनका ही राज रहेगा । इनको आज्ञा से ही मैं राज-काज चलाऊँगा ।
अगर चौद्ह वर्ष बीतने पर आप न आएँगे, तो अगले दिन ही मैं आग में जलकर प्राण दे दूँगा ।”
राम की खडाऊँ लेकर भरत ने सिर से लगा ली ।
राम ने भरत से कहा--. ' नीतिपूर्वक प्रजा
का पालन करना । प्रजा को सुखी रखना राजा का सबसे पहला कर्तव्य हैं।सब माताओं से समान व्यवहार करना । माँ कैकेयी को भी किसी तरह दुःख न देना ।
तुमको मरी और सीता की सौगंध है ।
गुरुजनों और माताओं को प्रणाम कर उन्होंने सबकी ओर आँखों में आँसू भरकर देखा । इस तरह भरत को विदा करके राम कुटी में लोट आए ।
समाज सहित भरत अयोध्या को लौट चले ।
राम की चरण-पादुकाओं को एके सुसज्जित हाथी पर सिंहासन में स्थापित कर वे अयोध्या को चल पड़े । चार दिन की यात्रा कर वे अयोध्या पहुँचे । राम की खड़ाऊँ को उन्होंने राज सिंहासन पर स्थापित किया ।
मंत्रियों को उन्होंने राज-काज सौंपकर कहा कि राम की इन चरण पादुकाओं का ही शासन रहेगा ।
आप लोग यलपूर्वक ऐसे काम करें जिससे प्रजा में सुख-समृद्धि बढ़े ।
माताओं को देखभाल के लिए उन्होंने शत्रुघ्न को हिंदायतें दे दीं।
अयोध्या का सब प्रबंध करके भरत नगर के बाहर नंदिग्राम में मुनिवेश बनाकर रहने लगे । वहीं से वे आवश्यक देखभाल करते ।
भरत के चले जाने के बाद राम-लक्ष्मण और सीता मंदाकिनी नदी के किनारे-किनारे दक्षिण की ओर बढे और अंत्रि ऋषि के आश्रम में पहुँचे ।
इन तीनों ने ऋषि को प्रणाम किया । ऋषि ने भी उनको संतान की तरह अपनाया ।
उनकी पत्नी भगवती अनसूया तपस्या ओर पतिब्रत धर्म के लिए प्रसिद्ध थीं।
सीताजी ने आश्रम के भीतर जाकर उनक चरण छुए अनसूया ने पुत्र-वधू की भाँति उनसे प्यार किया ।
सती अनसूया ने सीताजी को पति-सेवा का
उपदेश दिया । सीताजी की पति-सेवा से प्रसन्न होकर कुछ माँगने को भी उन्होंने कहा ।
सीताजी बोलीं--.' आपकी दया से मुझे सब कुछ मिला है ।
अब क्या माँगू ।”” इस उत्तर से अनसूया प्रसन्न हुईं और उन्होंने सीताजी को दिव्य माला, दिव्य वस्त्र और आभूषण देकर कहा कि ये न तो कभी मैले होंगे और न कभी नष्ट होंगे ।
सीताजी ने उन्हें ग्रहण किया । रात को उसी आश्रम में उन्होंने विश्राम किया ।