पंचवटी पहुँचकर लक्ष्मण ने गोदावरी नदी के किनारे बड़ी सुंदर कुटी बना ली ।
सीताजी को वह कुटी बड़ी अच्छी लगी ।
सीता और राम दोनों ने लक्ष्मण को अनेक आशीर्वाद दिए ।
पंचवरटी का वास राम को बहुत अच्छा लगा ।
वे गोदावरी के किनारे-किनारे कुंजों और वनों की शोभा निहारते फिरते ।
लक्ष्मण उनके लिए फल-मूल इकट्ठा करते और रात में कुटी पर पहरा देते । इस तरह तीन वर्ष हो गए ।
एक दिन राम, लक्ष्मण और सीता अपनी पर्ण-कुटी के सामने बैठे हुए थे ।
इतने में रावण की बहिन शूर्पणखा उधर आ निकली ।
राम के रूप को देखकर वह विकल हो गई ।
उसका मन काबू के बाहर हो गया । सुंदर वेश बनाकर, बन-ठनकर वह राम के पास आई और बोली- पुनि फिरि राम निकट सो आई, प्रभु लछिमन पहँ बहुरि पठाई।
लछिमन कहा तोहि सो बरई, जो तृन तोरि लाज परिहरई ॥
(“हे रूपनिधान ! सुनो ! मैं विश्व-विजयी लंका के महाप्रतापी राजा रावण की बहिन हूँ। संसार में मेरे समान कोई दूसरी सुंदरी नहीं है । तीनों लोकों में खोज हुई, पर मेरे अनुरूप कोई वर नहीं मिला |
इसलिए अब तक कुमारी ही हूँ । तुम्हें देखकर मन में आया है कि विवाह कर लूँ । मेरी-तुम्हारी जोड़ी अच्छी रहेगी । तुम्हारी यह स्त्री सीता बड़ी अभागिनी और कुरूप है। इसे छोड़ो और मेरे साथ रहकर महलों में भोग विलास करो ।”' राम को उसकी निर्लज्जता बहुत बुरी लगी । परतु वे हँसकर बोले देवी ! तुम लक्ष्मण के पास क्यों नहीं जाती ? अभी उसके साथ कोई स्त्री नहीं हे और सुंदर भी है ।'' तब वह लक्ष्मण के पास गई । लक्ष्मण ने कहा, “मैं सेवक हूँ । मेरी स्त्री होने पर तुम्हें दासी बनकर रहना पड़ेगा । राम के ही पास जाओ । वे राजा हैं ।
शूर्पणखा फिर राम के पास पहुँची और राम ने उसे फिर लक्ष्मण के पास लौटा दिया इस प्रकार जब वह कई बार आई-गई तब खिसिया गई और सीता की ओर मुँह फाड़कर दौड़ी । राम का संकेत पाकर लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट लिए । वह जिधर से आई थी उधर ही रोती-चिल्लाती भाग गई ।
रोती-चिल्लाती शूर्पणखा अपने भाई खर और दूषण के पास गई ।
वे रावण के सौतेले भाई थे और उसी के आदेश से जनस्थान में सेनासहित रहते थे ।
त्रिशिरा उनका सेनापति था, बहिन की दुर्दशा देखकर खर ने शूर्पणखा से सारा हाल मालूम किया और अपने सैनिकों की एक टोली राम को मारने के लिए शूर्पणखा के साथ भेज दी । राम ने बात ही बात में सब राक्षसों को मार डाला । शूर्पणखा फिर खर के बल-पौरुष को धिक्कारने लगी । एक मनुष्य द्वारा अपना अपमान देखकर खर को बहुत क्रोध आया । अपनी समस्त सेना लेकर उसने राम पर चढ़ाई कर दी । उधर बड़ी भारी सेना आते देखकर राम ने सीताजी को लक्ष्मण के साथ सुरक्षित स्थान पर भेज दिया और स्वयं युद्ध के लिए तैयार हो गए ।
राक्षसी सेना ने पंचवटी को चारों ओर से घेर लिया । राम ने देखते-देखते हजारों राक्षसों को मार डाला । दूषण और त्रिशिरा के मारे जाने पर महारथी खर राम से युद्ध करने के लिए आया । खर ने घोर संग्राम किया । एक बार तो उसने राम का कवच ही काट डाला और उनको लहू-लूहान कर दिया । राम ने क्रोधित होकर उसके सारथी ओर घोड़ों को मार डाला और रथ को चूर-चूर कर दिया ।
तब खर गदा लेकर घोर संग्राम करने लगा । शत्रु को महाप्रबल देखकर राम ने अगस्त्य ऋषि का दिया हुआ वैष्णव धनुष हाथ में लिया और उस पर इन्द्रबाण रखकर पूरी शक्ति से चला दिया । बाण खर की छाती में लगा । उसका हृदय फट गया । सवा घंटे के युद्ध में अकेले राम ने चौदह सहस्र राक्षस मार डाले । जनस्थान से राक्षसों का भय सदा के लिए मिट गया ।
खर के मारे जाने पर देवताओं ने आनंदित होकर फूलों की वर्षा की और तरह-तरह के बाजे बजाए ।
अगस्त्य ऋषि ने भी आकर रामचन्द्रजी को बधाई दी ।
इतने में सीता सहित लक्ष्मण भी आ गए । राम को सकुशल देखकर दोनों बहुत हर्षित हुए ।