रणयात्रा और सेतु रचना

सुग्रीव ने राम का आदेश पाते ही वानर-सेना को एकत्र होने के आदेश दिए ।

इधर राम हनुमान से परामर्श करने लगे। उन्होंने हनुमान से कहा, “तुमने मेरे साथ और सारे रघुवंश के साथ जो उपकार किया है इसका बदला मैं नहीं चुका सकता |

तीनों लोक देकर भी मैं तुमसे उऋण नहीं हो सकता । मैं तुम्हारे उपकार से दबा जा रहा हूँ ।

अपनी प्रशंसा सुनकर हनुमान ने सिर झुका लिया ।

सेना समुद्र कैसे पार करेगी, शक्तिशाली रावण को पराजित कैसे किया जाएगा आदि सोचते-सोचते वे शोक में डूब गए, तब सुग्रीव बोले, “आप शोक छोड़कर क्रोध कीजिए ।

आपके प्रताप से समुद्र को रास्ता ना पड़ेगा । उद्यम से कार्य अवश्य सिद्ध होता है और शोक से काम बिगड़ जाता है ।

इतने में लाखों वानर गरजते आ पहुँचे । उनकी गर्जना से आकाश गूँज उठा । सुग्रीव की सेना देखकर राम प्रसन्‍न हुए और बोले, “आज उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र है । इसी नक्षत्र में सीता का जन्म हुआ था। में इसी नक्षत्र में चलना चाहता हूँ ।

विजय यात्रा के लिए यह मुहूर्त शुभ है । सेना को कूच करने की आज्ञा दो ।

सुग्रीव ने सेनानायक नील को प्रस्थान की आज्ञा द्री ।

सब यूथपति अपने-अपने दलों के साथ चल पड़े । हनुमान ने राम और लक्ष्मण को अपने कंधों पर चढ़ा लिया ।

जामवंत और हनुमान सेना के पीछे के भाग की रक्षा करते हुए चले । वानर-वीर पेड़ों और पहाड़ों को रौंदते हुए उछलते-कूदते चल दिए । चारों ओर कोलाहल भर गया ।

राम, लक्ष्मण और सुग्रीव की जय से दिशाएँ गूँज उठीं । सेना दिन-रात चलती रही और महेन्द्र पर्वत पर पहुँचकर उसने डेरा डाल दिया ।

जब से हनुमान ने लंका में आग लगाई थी तब से वहाँ राक्षसों में बड़ा डर समा गया था ।

वे सोचते कि जिसके दूत का यह हाल है वह जब स्वयं आ जाएगा, तो न जाने कया दशा होगी । नगर का हाहाकार देखकर विभीषण रावण के पास गए और बोले, भाई, में बिना पूछे ही नीति और समझदारी की बात आपसे कहने आया हूँ ।

मुझे आपका और सारी राक्षस जाति का कल्याण इसी में दिखाई देता है कि श्रीराम से बेर न किया जाए ।

सीताजी को राम के पास लौटा दें ।

आपको पता चल ही गया होगा कि वानरों की विशाल सेना लेकर वे समुद्र के उत्तरी तट पर आ पहुँचे हें ।

सीता के लौटाने की बात सुनकर रावण ने क्रोधित होकर विभीषण को वहाँ से चले जाने के लिए कहा । उसने यह भी कहा कि मैं सीता को किसी तरह नहीं लौटाऊँगा ।

तब रावण अपने सभा-भवन में गया। वहाँ उसने अपने पुत्रों, मंत्रियों, सेनाप्रतियों को बुलाया और नगर की रक्षा के आदेश दिए ।

अपने बल का वर्णन करके उसने उनकी राय भी माँगी । सबने रावण के मन की बात कही ।

केवल विभीषण ने विरोध किया और कहा, बिना जाने शत्रु को छोटा नहीं समझना चाहिए ।

अगर तुममें कोई शक्ति होती तो हनुमान को ही न पकड़ लेते । रावण से उन्होंने कहा कि महाराज, मेरी प्रार्थना पर ध्यान दें ।

सीता को राम के पास भेज देने में ही कल्याण है । रावण यह सुनते ही आग बबूला हो गया । वह बोला- ऐसे मनुष्य का साथ नहीं करना चाहिए, जो ऊपर से तो हित की बात करता हो और भीतर-भीतर शत्रु का शुभचिंतक हो ।

इससे तो क्रोधी साँप के साथ रहना अच्छा है ।

विभीषण को रावण ने तरह-तरह के अपशब्द कहे और अंत में यह भी कहा कि अगर तुम्हारा मन बैरी के साथ है तो उसी से जा मिलो ।

विभीषण ने कहा, “मालूम होता है कि लंका के अब बुरे दिन आ गए हैं । मेरी बातें अब आपको अच्छा नहीं लगतीं ।

आप कहते हैं तो में जाता हूँ । कालवश नेक बात आपकी समझ में नहीं आती ।'' इतना कहकर अपने चार मंत्रियों के साथ वह आकाश मार्ग से राम से मिलने के लिए चल पड़ा ।

राम की छावनी में पहुँचकर विभीषण ने दूर से ही आवाज लगाई-वानरो !

मैं राक्षसों के राजा रावण का भाई हूँ। मैंने उसे सीता को लौटा देने की बात कही तो वह क्रोधित हुआ ओर भरी सभा में मेरा अपमान किया । मैं अब राम की शरण में आया हूँ। मुझे उनके पास पहुँचा दो ।

यह संदेश लेकर सुग्रीव श्रीराम के पास गए ।

सब बातें बताकर उन्होंने राम से कहा- मुझे ऐसा लगता है कि ये याँचों राक्षत रावण के गुप्तचर हैं ।

हमारा भेद लेने के लिए उन्होंने यह तरकीब निकाली है । अगर सच भी कहते हों तो भी उनका क्‍या ठिकाना । जो अपने भाई का न हुआ वह हमारा क्‍या होगा ? श्रीराम ने गंभीर होकर कहा-मित्र !

तुमने सलाह तो ठीक ही दी है, परंतु बुद्धिमानी यह होगी कि हम उसे अपनी ओर मिला लें । संभव है कि वह अपने किसी स्वार्थ के लिए भाई से अलग होकर हमसे मिल रहा हो ।

सब भाई लक्ष्मण और भरत की तरह नहीं होते । सुग्रीव ने राम की बात का फिर विरोध किया, तो राम ने दृढ़ता से कहा, “मेरा नियम है कि मैं शरण में आए हुए को वापस नहीं लौटाता ।

अगर स्वयं रावण भी इस तरह आए तो उसे भी मैं शरण दूँगा । मित्र !

डरने की बात नहीं , इसलिए हे बीर ! बिभीषण को आदर सहित लाओ । वह हमारे-तुम्हारे बहुत काम आएगा ।

सुग्रीव्र की आज्ञा से हनुमान आदि वानर विभीषण को राम के पास ले आए । विभीषण ने दूर से ही अपना परिचय देते हुए राम के पैर पकड़ लिए और शरण माँगी ।

राम ने विभीषण का उचित सत्कार किया और फिर अपने पास बैठाकर लंका का हाल पूछा । विभीषण ने कहा, “रावण का बल और पराक्रम तो सारे संसार में प्रसिद्ध है। आपने भी सुना ही होगा। उसने देवताओं को जीत कर यमराज को भी बाँध लिया था । जब वह गदा लेकर चलता है तो पृथ्वी काँप उठती है।

हमारा मैंझला भाई कुम्भकर्ण युद्ध में पहाड़ के समान अड जाता हैं ।

बडे-बडे पत्थरों की चोट भी उसे फूल जैसी लगती है । रावण के बड़े पुत्र मेघनाद ने तो इन्द्र को ही जीत लिया था । उनके नाम से देवता खोहों और कंदराओं में घुस जाते हैं । रावण का सेनापति प्रहस्त जाना माना योद्धा है ।

कैलाश पर्वत पर उसने जो युद्ध किया उसकी चर्चा संसार भर में हो रही है ।

उसके अतिरिक्त अतिकाय, अकंपन, महोदर आदि अनेक वीर लंका में हैं । लंका नगरी सब ओर से सुरक्षित है ।

उसे जीतने के लिए बल और बुद्धि दोनों की आवश्यकता है । रावण के पास तप और वरदान का भी बल है । शंकर और ब्रह्मा से वर प्राप्त कर वह अपने को अजेय मानता है ।

विभीषण की बात सुनकर श्रीराम ने दृढ़ता से कहा,विभीषण ! तुम चिन्ता न करो। मैं तुम्हें बच्चन देता हूँ कि इन सबको मारकर तुम्हें लंका का राज दे दूँगा । विभीषण ने राम के चरणों में प्रणाम करके कहा- श्रीराम ! इस युद्ध में मैं पूरी तरह से आपको सहायता करूँगा । अपने प्राणों को भी न्यौछावर कर दूँगा ।

तब श्रीराम ने लक्ष्मण को आज्ञा दी कि समुद्र का जल ले आओ । जल आने पर राम ने सबके सामने विभीषण का राजतिलक कर दिया।

अब समुद्र को पार करने की समस्या पर विचार होने लगा । यह तय हुआ कि पहले समुद्र से ही विनती की जाए कि वह रास्ता दे दे। अगर न मान तो दूसरा उपाय किया जाए ।

इस निश्चय के अनुसार तीन दिन तक राम कुशा बिछाकर समुद्र से विनती करते रहे । जब वह न माना तो उन्होंने क्रोधित होकर धनुष पर कठिन बाण चढ़ाया । समुद्र में भीषण हलचल होने लगी । धुआँ उठने लगा ।

तट पर जहाँ-तहाँ भूमि फट गई । समुद्र में रहने वाले जलचर अकुला उठे । तब सागर लहरों के बीच से प्रकट हुआ और बोला-भगवन्‌ क्षमा करें । मैं एक उपाय बताता हूँ ।

आपकी सेना में नल नाम्न का एक वानर है । उसने अपने पिता से समुद्र पर भी पुल बाँधने की विद्या सीखी हे । वह पुल बना देगा और वानर सेना पार उतर जाएगी । आपने जो बाण चढ़ा लिया है, उससे मेरे उत्तरी तट पर बसे हुए दुष्टों का संहार कर दें ।

इतना कहकर समुद्र अदृश्य हो गया । राम के बाण छोड़ते ही दुष्टों की सारी भूमि रेगिस्तान बन गई ।

अगले दिन समुद्र पर पुल बनने लगा। सारी वानर सत्रा पत्थर और वृक्ष ढो-ढोकर लाने लगी । बड़ी-बड़ी शिलाएँ वे समुद्र में फेंकते और नील गेंद की भाँति उन्हें लपक कर ले लेते । वे सेतु रचना करते जाते ।

पाँच दिन में सेतु बँधकर तैयार हा गया । ऐसा लगता था कि सेतु से समुद्र के दो भाग हो गए हैं । सेतु बधते हीं विभीषण कुछ वानर वीरों को लेकर अपने अनुचरों के साथ पुल के उस छोर पर चला गया और गदा लेकर पुल की रक्षा करने लगा ।

समस्त वानर सेना पुल पार कर लंका में पहुँच गई ।

समुद्र के निकट सुबेल पर्वत पर राम की सेना ने पड़ाव डाल दिया ।

वानर जहाँ-तहाँ फल-फूल खाने लगे। विभीषण तथा सुग्रीव के साथ बैठकर श्रीराम विचार करने लगे कि युद्ध कैसे शुरू किया जाए ।