लोग उसे लालू के नाम से पुकारते थे, लेकिन उसका घर का नाम कुछ और भी था।
तुम्हें यह पता होगा कि 'लाल' शब्द का अर्थ प्रिय होता है।
यह नाम उसका किसने रखा था, यह मैं नहीं जानता; लेकिन देखा ऐसा गया है कि कोई-कोई व्यक्ति यों ही सबके प्रिय बन जाते हैं।
लालू भी ऐसा ही व्यक्ति था।
स्कूल से पास होकर हम कॉलेज में दाखिल हो गए। लालू ने कहा, "भाई! अब मैं रोजगार करूँगा।"
इसके बाद अपनी माँ से दस रुपए माँगकर उसने ठेकेदारी का काम करना शुरू कर दिया।
हम लोगों ने हँसकर उसका मजाक उड़ाते हुए कहा, "दस रुपए से भला कहीं रोजगार होता है।
अगर इतनी पूंजी से रोजगार होता तो सब कर लेते।"
लालू ने कहा, "मेरे लिए इतना ही काफी है।"
वह सबके लिए प्रिय था, इसलिए उसे काम मिलते देर न लगी।
कॉलेज से लौटते वक्त रोजाना हम उसे रास्ते में सिर पर छाता लगाए हुए कुछ मजदूरों के बीच अपने काम में संलग्न पाते थे।
हम लोगों को देखते ही चिढ़ाते हुए वह कह उठता था, "अरे जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाकर जाओ, वरना 'परसेंटेज' में कमी आ जाएगी!"
गाँव की पाठशाला में जब हम एक साथ पढ़ते थे, तभी से वह
मिस्त्री का काम करने में चतुर था।
उसके बस्ते में एक नहनी, एक छुरी, एक छोटी हथौड़ी, एक घोड़े की नाल और एक छैनी हर वक्त रखी रहती थी।
इन चीजों का संग्रह उसने कब और कैसे किया, यह मैं नहीं जानता; लेकिन ऐसा कोई कार्य नहीं बचा था, जिसे वह इन सामग्रियों से न कर सके।
स्कूल के सभी साथियों का छाता मरम्मत, स्लेट का फ्रेम ठीक करना, खेलकूद के समय पाजामा या कमीज को सी देना, इसी तरह वह बहुत से काम किया करता था।
किसी भी कार्य के लिए 'इनकार' उसने कभी नहीं किया।
इसके अतिरिक्त भी नाना प्रकार की चीजें बनाया करता था।
एक बार 'छठ' के मेले के समय दो आने का रंगीन कागज और मिट्टी के प्याले खरीदकर न जाने क्या-क्या बनाकर उसने गंगा के किनारे बैठकर उन खिलौनों को ढाई रुपए में बेचा था।
उस मुनाफे की रकम में से उसने हम लोगों को 'चिनिया बादाम' खिलाया था।
इसी तरह दिन गुजरते गए और हम क्रमश: बड़े होते गए।
जिमनास्टिक खेल लालू सबसे अधिक तेज खेलता था।
उसके बदन में जैसी ताकत थी वैसा ही साहस था।
डरने का नाम उसने कभी नहीं सुना था।
कोई भी आकर बुलाए, उसके यहाँ चला जाता था।
प्रत्येक की विपदा के समय सबसे पहले वह जाकर हाजिर होता था।
अगर उसमें कोई ऐब था तो एक यही था कि मौका पाने पर डराया करता था।
चाहे कोई भी क्यों न हो, बच्चा-बूढ़ा, उसके लिए सब बराबर थे।
हम तो समझ ही नहीं पाते थे; लेकिन वह न जाने कैसे ऐसे विचित्र उपायों को खोज डालता था।
आज उसकी एक कहानी सुना ही दूँ।
पड़ोस के मनोहर चटर्जी के यहाँ काली की पूजा हो रही थी।
ठीक अर्द्धरात्रि के समय बकरा-बलिदान होना था, लेकिन बलि देने वाले लोहार का कहीं भी पता नहीं था।
देर होते देख कई व्यक्ति उसके यहाँ गए तो देखा, लोहार के पेट में काफी दर्द है और आने में बिलकुल असमर्थ है।
लौटकर आकर लोगों ने खबर दी।
खबर पाते हो सब के सब सिर पर हाथ रखकर बैठ गए।
इधर बिना बलिदान किए पूजा अधूरी रह जाएगी।
अब इतनी रात को दूसरे आदमी की तलाश कहाँ की जाए।
इस साल अब देवी-पूजा ठीक ढंग से नहीं हो पाएगी।
तभी किसी ने कहा, "अरे भाई, लालू यह काम कर सकता है।
इस तरह न जाने कितने बकरों को वह काट चुका है।"
इतना कहना था कि कुछ लोग लालू के घर उसे बुलाने के लिए दौड़ पड़े।
लालू उस समय सो रहा था। उठकर बोला, "नहीं।"
"नहीं? अरे बेटा, मना मत करो।
चले चलो, वरना देवी की पूजा संपन्न न होने से गाँव का सत्यानाश हो जाएगा।"
लालू ने कहा, "होने दो।
बलिदान कार्य बचपन में मैंने किया था, लेकिन अब नहीं करूँगा।"
जो लोग बुलाने आए, काफी मान-मनौवल करने लगे, क्योंकि बलिदान के मुहूर्त में अब केवल 15 मिनट बाकी थे।
इसके बाद बलिदान देना, न देना बराबर होगा।
महाकाली के प्रकोप से सर्वनाश हो जाएगा।
तभी लालू के पिता ने आकर कहा, “ये चारों तरफ से निराश होकर आए हैं।
गाँव के कल्याण के लिए तुम्हें जाना चाहिए, जाओ।
" इस आदेश को अस्वीकार कर दे, इतनी हिम्मत लालू में नहीं थी।
फिर उसे चटर्जी साहब के यहाँ जाना पड़ा।
लालू को अपने यहाँ देखकर चटर्जी महाशय प्रसन्न हो उठे।
इधर बलिदान का समय नजदीक आता जा रहा था।
जल्दी से बकरा लाकर उसे माला-सिंदूर पहनाया गया, फिर कठघरे में उसका सिर रख दिया गया।
पूजा देखने के लिए आई हुई भीड़ 'जय काली माता की जय' का नारा लगाने लगी।
उसी के बीच में देखते-ही-देखते खच्च से आवाज हुई और एक निरीह-बेजान जीव का धड़ सिर से अलग होकर नीचे गिर पड़ा।
खून के धार से धरती लाल हो उठी। लालू ने कुछ देर के लिए अपनी आँखें बंद कर ली।
पुनः कुछ देर के लिए शंख ध्वनि, घंटे की आवाज रुक गई।
दूसरा बकरा आया, उसे भी पहले की तरह माला-फूल और सिंदूर लगाया गया।
इसके बाद भक्तों द्वारा 'जय काली माता की' आवाज गूंजी और लालू का दाव एक बार पुनः ऊपर उठा और फिर
एक बार आखिरी बार तड़फड़ाते हुए बकरा समस्त भक्तों के विरुद्ध न जाने कौन सी फरियाद करते हुए शांत हो गया।
उसके खून से लाल मिट्टी फिर भीग उठी।
बाहर शहनाई बज रही थी, आँगन में बहुत से व्यक्ति जमा थे।
सामने गलीचों के ऊपर मनोहर चटर्जी आँखें बंद करके इष्टनाम जप रहे थे।
तभी लालू एकाएक भयंकर रूप से गरज उठा-कोलाहल वाद्य ध्वनि सबकुछ एकबारगी रुक गई।
सब की कौतूहल भरी निगाहें लालू की तरफ घूम गईं।
लालू ने बड़ी बड़ी आँखें नचाते हुए कहा, "और बकरा कहाँ है?"
घर के भीतर से किसी ने डरते हुए पूछा, "और बकरा
? दो ही का तो बलिदान होने वाला था।"
लालू ने खून से लथपथ दाव को ऊपर की ओर तीन-चार बार घुमाते हुए भीषण गर्जन करते हुए कहा, "और बकरा नहीं है ?
यह नहीं हो सकता।
मेरे सिर पर खून चढ़ गया है, लाओ बकरा, वरना मैं आज जिसे देखूँगा, उसी का बलिदान करूंगा, नर बलि-जय भवानी की! जय माता काली !"
कहता हुआ इधर-से-उधर उछलने लगा।
इधर उसके हाथ का दाव लाठी की तरह भनाभन घूम रहा था।
उस समय लालू का रंग-ढंग देखकर वहाँ की जो हालत हुई, उसका वर्णन करना मुश्किल है, सभी एक साथ बाहर को दौड़ पड़े।
कहीं लालू उन्हें पकड़कर बलि पर न चढ़ा दे। इस भगदड़ के कारण वहाँ की हालत बहुत ज्यादा खराब हो गई।
कोई उधर गिरा तो कोई उधर। कोई मुंह के बल गिरा तो कोई सिर के बल।
कोई किसी के हाथ के नीचे से भाग रहा है तो कोई किसी की टाँग के नीचे से, यह सब कांड कुछ देर तक होता रहा, फिर सब शांत हो गया।
लालू गरज उठा, "मनोहर चटर्जी कहाँ हैं ? पुरोहित कहाँ गया ?"
पुरोहित महाशय दुबले पतले थे और इसी भगदड़ के समय काली देवी की प्रतिमा के पीछे जाकर छिप गए।
गुरुदेव महाशय कुशासन पर बैठे माला जप रहे थे, हालात देखकर वे भी एक बड़े खंभे की आड़ में जा छिपे,
लेकिन मनोहर चटर्जी अपनी भारी-भरकम तोंद लेकर भागने से लाचार रहे।
लालू ने आगे बढ़कर उनका एक हाथ कसकर पकड़ते हुए कहा, "चलो, अब तुम्हारी बलि दूँ!"
एक तो कसकर उसने हाथ पकड़ रखा था, दूसरे हाथ में दाव देखकर चटर्जी के प्राण सूख गए।
रोते हुए विनती करते हुए बोले, "लालू बेटा! जरा शांत होकर देख, मैं बकरा नहीं हूँ, आदमी हूँ।
रिश्ते के नाते में मैं तेरा ताऊ लगता हूँ।
तेरे पिताजी मेरे छोटे भाई की तरह हैं।"
"यह सब मैं नहीं जानता, इस वक्त मुझे खून चाहिए।
चलो, तुम्हारा बलिदान करूंगा।
जगदंबा की यही इच्छा है।"
चटर्जी फफककर रोते हुए बोले, “नहीं बेटा! माँ की यह इच्छा नहीं है।
वे तो जग जननी हैं।"
"वे जगज्जननी हैं, इसका पता है तुम्हें ?
अब फिर बकरा बलिदान करोगे ?
मुझे बलिदान देने के लिए अब बुलाओगे?"
चटर्जी ने रोते-रोते कहा, "नहीं बेटा!
अब बलिदान कभी नहीं कराऊँगा, मैं काली माता के सामने कसम खाता हूँ, आज से मेरे यहाँ कभी बलिदान नहीं होगा।"
"ठीक कह रहे हो न?"
"हाँ बेटा! ठीक कह रहा हूँ।
अब कभी नहीं कराऊँगा, मेरा हाथ छोड़ दे बेटा, पाखाने जाऊँगा।"
लालू ने हाथ छोड़ते हुए कहा, “अच्छा जाओ, तुम्हें छोड़े दे रहा हूँ, लेकिन पुरोहित कहाँ गया? और गुरुदेव? वह कहाँ गया?"
कहता हुआ वह एक बार फिर गरज उठा।
फिर कमरे में से इधर-उधर टहलते हुए बरामदे के करीब आ गया।
उसका भयंकर रूप देखकर खंभे की आड़ से गुरुदेव और प्रतिमा की आड़ से पुरोहितजी दोनों एक साथ करुण स्वर में दो प्रकार की आवाजों में चीख उठे।
दोनों का स्वर दो ढंग का ऐसा बेसुरा हो गया कि लालू अपने को संभाल नहीं पाया।
हो-होकर हंसते हुए दाव एक ओर फेंककर भाग खड़ा हुआ।
तब यह किसी को समझते देर न लगी कि लालू ने यह सब ढोंग किया था, सचमुच उसके ऊपर काली माता सवार नहीं हुई थीं।
यह कांड लोगों को डराने के लिए ही उसने किया।
थोड़ी देर बाद पुनः भक्तों की भीड़ जुट गई। अभी पूजा पूरी नहीं हुई थी।
थोड़ी देर में महाकलरव के साथ पूजा समारोह शुरू हो गया।
मनोहर चटर्जी ने नाराज होकर कहा, “कल ही कमबख्त ललुवा को पचास जूते उसके बाप से लगवाऊँगा।"
लेकिन उसे जूते नहीं खाने पड़े।
सवेरा होने के पहले ही वह गाँव से गायब हो गया।
एक हफ्ते के बाद वह एक दिन शाम के समय मनोहर चटर्जी के यहाँ जाकर उनसे माफी माँग आया।
बाप की नाराजगी भी दूर हो गई; लेकिन इससे एक फायदा यह हुआ कि उस घटना के बाद मनोहर चटर्जी के यहाँ फिर कभी बलिदान नहीं हुआ।