पक्का दो कोस का रास्ता चलकर स्कूल में मैं विद्या ग्रहण करने जाता हूँ ।
अकेला ही नहीं , और भी दस - बारह हैं ।
जिनके घर गाँवों में हैं , उनके लड़कों को अस्सी फीसदी इसी प्रकार विद्या लाभ करना पड़ता है ।
इससे लाभ के अंकों में आखिर तक बिलकुल शून्य न पड़ने पर भी जो पड़ता है ,
उसका हिसाब लगाने के लिए इन बातों पर विचार कर लेना काफी होगा कि जिन लड़कों को
सवेरे आठ बजे के भीतर खा - पीकर , घर से निकलकर दो कोस जाना और आना अर्थात् चार कोस रास्ता तय करना पड़ता है ,
चार कोस के माने आठ मील ही नहीं , उससे भी बहुत अधिक वर्षा के दिनों में सिर पर बादलों का पानी और पैरों के नीचे घुटनों तक कीचड़
तथा गरमियों में पानी के बदले कड़ी धूप और कीचड़ के बदले धूल के समुद्र में तैरते हुए स्कूल और घर आना - जाना पड़ता है
, उन अभागे बालकों पर माता सरस्वती खुश होकर वर दें या उनकी मुसीबत देखकर कहीं अपना मुँह छिपा लें , सोच सकतीं । यह वे खुद भी नहीं 3
इसके बाद यह कृतविद्य शिशु - दल बड़ा होकर किसी गाँव में ही बसे या भूख की आग बुझाने और कहीं जाए , उसकी चार कोस पैदल चली विद्या का तेज आत्म - प्रकाश किए बिना न रहेगा , करेगा ही । सुना है कि अच्छा , जिनके भूख की आग है , उनकी बात भले ही छोड़ दी जाए , मगर जिनमें वह आग नहीं ,
वे सब भले आदमी किस खोज में गाँव छोड़कर भागते हैं ?
उनके वहीं बने रहने से तो गाँवों की ऐसी हालत न होती ! सुख की
पैदल के को मलेरिया की बात नहीं छेड़ता , उसे रहने दो ।
मगर इस चार कोस लेकर गाँव छोड़कर शहर भाग जाते हैं , इसकी भी कोई गिनती है ?
इसके बाद एक दिन लड़कों का पढ़ना - लिखना तो खत्म हो जाता है , तब फिर शहर की सुख - सुविधा में रहने पर उनका गाँव में वापस आना नहीं हो सकता ।
मगर रहने दो इन फिजूल बातों को मैं स्कूल जाता हूँ , दो कोस के बीच में ऐसे और भी दो - तीन गाँव पार करने पड़ते हैं ।
किसके बाग में आम पकने आरंभ हो गए हैं , किस जंगल में करौंदे काफी लगे हैं , किसके पेड़ पर कटहल पकने को हैं , किसके अमृतवान केले की घौंद कटने वाली है , किसके घर के सामने वाली झाड़ी में अनन्नास का रस बदल गया है , किसके तालाब के किनारे वाले खजूर के पेड़ से खजूर तोड़कर खाने से पकड़े जाने की आशा कम है ,
इन सब बातों की खबर लगाने में ही उनका समय चला जाता है , परंतु असली जो विद्या है ,
कमस्कट्का की राजधानी का नाम क्या है और साइबेरिया की खान में चाँदी मिलती है या सोना , इन सब जरूरी विषयों को जीतने की उन्हें फुरसत ही नहीं मिलती !
यही वजह है कि इम्तिहान के वक्त ' अदन क्या है ?
' पूछने पर जवाब देता ' फारस का बंदरगाह ' और हुमायूँ के बाप का नाम पूछने पर लिख जाता
' तुगलक खाँ ' और आज चालीस का कोठा पार हो जाने पर भी देखता हूँ कि उन सब विषयों की धारणा अकसर वैसी ही बनी हुई है ।
उसके बाद प्रमोशन के दिन मुँह फुलाकर घर वापस लौट आता ।
कभी दल बाँधकर मास्टर को ठीक करने की सोचता और कभी निश्चित करता कि ऐसे वाहियात स्कूल को छोड़ देना ही ठीक है !
हमारे गाँव के एक लड़के से बीच - बीच में स्कूल के रास्ते में भेंट हो जाया करती ।
उसका नाम था मृत्युंजय । हम लोगों से वह आयु में बहुत बड़ा था ।
थर्ड क्लास में पड़ता था ।
कब वह पहले - पहल थर्ड क्लास में चढ़ा था , इसकी खबर हममें से किसी को भी नहीं थी ,
शायद यह पुरातत्त्वविदों की गवेषणा का विषय होगा , मगर हम लोग उसे हमेशा से तीसरी में ही देखते आए हैं ।
उसके चौथी कक्षा में पढ़ने का इतिहास भी कभी नहीं सुना और दूसरी कक्षा में चढ़ने की खबर भी नहीं मिली ।
मृत्युंजय के माँ - बाप , भाई बहिन कोई भी न था , सिर्फ गाँव के एक छोर पर एक बड़ा भारी आम - कटहल का बाग और उसमें खँडहर सा घर था ,
और थे एक दूर के रिश्ते के चाचा चाचा का बस एक ही काम
था - भतीजे की तरह - तरह से बदनामी करना ।
वह गाँजा पीता है , पीता है और भी न जाने क्या - क्या करता है ।
उनका एक और काम था , यह कहते फिरना कि उस बाग का आधा हिस्सा उनका अपना है , नालिश करके दखल करने भर की देर है ।
हाँ , दखल उन्होंने एक दिन अवश्य किया , पर वह जिले की अदालत में नालिश करके नहीं , ऊपर की अदालत के हुक्म से , लेकिन यह बात पीछे होगी ।
मृत्युंजय खुद अपने हाथ से बनाकर खाता है और आम की फसल आने पर उस बाग को किसी के हाथ उठा देता है ,
जिससे साल भर का उसके खाने पहनने का व्यय अच्छी तरह चल जाता है ।
जिस दिन उससे मुलाकात होती , उस दिन देखता कि वह फटी - पुरानी , मैली किताबें बगल में लिये रास्ते के एक किनारे से चुपचाप चला जा रहा है ।
उसे कभी किसी के साथ अपनी तरफ से बातचीत करते नहीं देखा , बल्कि हम ही लोग उपयाचक होकर उसके साथ बातचीत करते थे ।
इसकी खास वजह थी कि दुकान से मिठाई आदि खरीदकर खिलाने वाले गाँव भर में उसकी जोड़ का दूसरा न था ।
सिर्फ लड़के ही नहीं , बल्कि कितने ही लड़कों के बाप भी कितनी ही बार छिपे रूप से अपने लड़कों को भेजकर उससे ' स्कूल की फीस खो गई है ' , ' किताब चोरी हो गई है ' आदि कहलाकर रुपया हासिल कर लिया करते ; परंतु इसके लिए कृतज्ञ होना तो दूर रहा , भद्र समाज में कोई इतना भी कबूल करना नहीं चाहता कि उनके लड़के ने उससे बात भी की है ।
गाँव में मृत्युंजय का ऐसा ही सुनाम था ।
काफी दिन तक मृत्युंजय से मुलाकात नहीं हुई ।
एक दिन सुना कि वह मरणासन्न है ।
फिर एक दिन सुना कि मालपाड़े के एक बूढ़े ओझा ने उसका इलाज करके और उसकी लड़की बिलासी ने सेवा करके , मृत्युंजय को यमराज के मुँह से बचा लिया है ।
काफी दिनों तक मैंने उसकी बहुत सी मिठाई का सदुपयोग किया था ।
मेरा मन उसके लिए न जाने कैसा बेचैन होने लगा ।
एक दिन शाम के अँधेरे में छिपकर मैं उसे देखने चला गया ।
उसके टूटे - फूटे घर में दीवारों की बला नहीं है ।
स्वच्छंदतापूर्वक भीतर जाकर देखा कि दरवाजा खुला है , खूब उजला एक दीया जल रहा है और
ठीक सामने ही तख्तपोश पर दूध से साफ - सुथरे बिस्तर पर मृत्युंजय लेटा कंकालसार शरीर की ओर देखते ही ज्ञात हुआ कि वास्तव में यमराज हुआ है ।
उसके अपनी कोशिश में कोई कसर नहीं रखी थी , पर आखिर वह सफल न ने
हो सका और यह सब सिर्फ उस लड़की के जोर से हुआ ,
जो सिरहाने बैठी हुई पंखे से हवा कर रही है ।
अचानक आदमी आते देख वह चौंककर उठ खड़ी हुई ।
यह उसी बूढ़े सपेरे की लड़की थी - बिलासी उसकी आयु अठारह की थी या अट्ठाईस की ,
अंदाज नहीं लगा सका , परंतु चेहरे की तरफ देखते ही मालूम हो गया कि उमर चाहे जितनी भी हो ,
मेहनत और रात के जागने के कारण उसके शरीर में अब कुछ रहा नहीं है ,
ठीक जैसे फूलदानी में पानी दे - देकर जिलाए रखा हुआ बासी फूल हो , हाथ में जरा सा हिलाते ही गिर पड़ेगा ।
ने मृत्युंजय ने मुझे पहचान लिया , बोला , " कौन न्याडा ? "
लड़की गरदन झुकाए खड़ी रही ।
मृत्युंजय ने दो - चार बातों में जो कुछ कहा , उसका मतलब यह था कि लगभग डेढ़ महीना होने को आया , वह खाट पर पड़ा है ।
बीच में दस - पंद्रह दिन बेहोशी की हालत में रहा था , अभी कुछ ही दिन हुए वह आदमी पहचानने लगा है ।
यद्यपि अभी तक वह बिस्तर छोड़कर उठ नहीं सकता , फिर भी अब किसी बात का डर नहीं है ।
डर की कोई बात न सही ,
पर कम उम्र होने पर भी मैं इतना समझ गया कि आज भी जिसमें बिस्तर छोड़कर उठने की शक्ति नहीं ,
उस रोगी को इस जंगल में अकेली रहकर इस लड़की ने जिला लेने का जो भार लिया है ,
वह कितना बड़ा गुरुभार है !
दिन - पर - दिन , रात - पर - रात , कितनी सेवा , कितनी शुश्रूषा , कितना धैर्य , कितना रात्रि जागरण , कोई ठीक है ! यह कितने बड़े साहस का काम है !
परंतु जिस चीज ने इस असाध्य साधन को संभव कर डाला , उसका परिचय यद्यपि उस दिन नहीं मिला , किंतु एक दिन मिल गया ।
लौटते समय वह लड़की एक और दीया लेकर मेरे आगे - आगे टूटी दीवार के आखिर तक आई ।
अब तक उसने एक बात भी नहीं कही थी , वह धीरे से बोली , " सड़क तक तुम्हें पहुँचा आऊँ क्या ? "
बड़े - बड़े आम के पेड़ों के कारण सारा बाग मानो एक इकट्ठा हुआ अंधकार सा प्रतीत हो रहा था , रास्ता दिखना तो दरकिनार अपना हाथ तक न दिखता था ।
मैंने कहा , " पहुँचाने की आवश्यकता नहीं , सिर्फ दीया मुझे दे दो । "
दीया मेरे हाथ में देते ही उसके उत्कंठित चेहरे पर मेरी निगाह पड़ गई । आहिस्ते से वह बोली , " अकेले जाने में डर तो न मालूम होगा ? जरा
आगे तक न पहुँचा आऊँ ?
" एक स्त्री पूछ रही है , डर तो नहीं मालूम होगा ! लिहाजा मालूम चाहे कुछ भी हो , उत्तर में नहीं ' कहकर ही आगे बढ़ गया ।
मेरे रोंगटे खड़े हो गए , परंतु इतनी देर बाद समझा कि उद्वेग उसे किसलिए था और क्यों वह दीया दिखाकर उस जंगल के रास्ते को पार करा देना चाहती थी ।
संभव है , वह मेरी मनाही तो नहीं सुनती और साथ ही आती , परंतु बीमार मृत्युंजय को अकेला छोड़ जाने के लिए ही शायद आखिर तो उसका मन तैयार नहीं हुआ था ।
बीस पच्चीस बीघे का बाग था , इसलिए रास्ता कम लंबा न था ।
उस भयानक घोर अंधकार में हर कदम डरते - डरते रखना पड़ता था ,
किंतु दूसरे ही पल उस लड़की की बात से सारा मन इस तरह आच्छन्न हो गया कि डरने के लिए फिर समय ही नहीं मिला ।
बराबर यहीं खयाल आने लगा , “ यहाँ किसी मृतप्राय रोगी को लेकर रहना कितना कठिन है ?
मृत्युंजय तो किसी भी पल मर सकता है , तब सारी रात इस जंगल में यह लड़की क्या करेगी ?
कैसे यह अपनी रात काटेगी ?
इसी सिलसिले में बहुत दिन बाद की एक बात मुझे याद आती है ।
अपने एक रिश्तेदार के मरते समय में उपस्थित था ।
अँधेरी रात थी , घर में बाल - बच्चे , नौकर - चाकर कोई नहीं थे ।
सिर्फ थी उसकी सद्यःविधवा स्त्री और मैं उनकी स्त्री ने शोक के आवेग में छाती और सिर धुन धुनकर अपना ऐसा बुरा हाल बना लिया कि डर होने लगा कि कहीं उसके भी प्राण न निकल जाएँ ।
वे रो - रोकर बार - बार मुझसे पूछने लगीं ।
कि जब मैं अपनी इच्छा से सह - मरण करना चाहती हूँ तो इसमें सरकार का क्या ?
मेरी तो अब रंचमात्र भी जीने की इच्छा नहीं ।
इस बात को क्या सरकारी आदमी नहीं समझ सकते ?
उनके घर में क्या स्त्रियाँ नहीं हैं ? वे क्या पत्थर के हैं ?
और इस रात में ही अगर गाँव के पाँच जने मिलकर नदी किनारे मेरे सह - मरण की तैयारियाँ कर दें तो थाने के लोगों को मालूम ही कैसे होगा ?
इस तरह की न जाने कितनी बातें वे कहने लगीं ।
मगर बैठे - बैठे केवल उनका रोना सुनने से ही तो मेरा काम नहीं चल सकता था , मुहल्ले में समाचार देना आवश्यक था । बहुत सी चीजें
मैंने कहा , " बहुत से काम हैं , बिना गए नहीं चलेगा । "
उन्होंने कहा , " रहने दो काम , तुम बैठो । "
मैंने कहा , " बैठने से नहीं चलेगा , एक बार खबर तो देनी ही पड़ेगी । '
इतना कहकर मैंने पैर बढ़ाया ही था कि वे एकाएक चिल्ला उठीं , “ अरे बाप रे !
मैं अकेली नहीं रह सकूँगी ।
" परिणामस्वरूप फिर बैठ जाना पड़ा ।
कारण तब यह समझ में आया कि जिस पति की जीवित हालत में उन्होंने बिना किसी भय के पच्चीस वर्ष तक अकेले घर गृहस्थी की है ,
उसकी मृत्यु तो किसी तरह सही जा सकती है , पर उसका मृत शरीर इस अंधकारपूर्ण रात्रि में पाँच मिनट के लिए भी उनसे बरदाश्त नहीं होगा ।
छाती अगर किसी बात से फटती है तो वह अपने मृत पति के पास अकेले बैठे रहने से !
किंतु मेरा उद्देश्य उनके दुःखों को तुच्छ करके दिखाना नहीं है ।
वह असली नहीं , यह कहने का भी मेरा अभिप्राय नहीं , अथवा एक आदमी के बरताव से ही उसकी अंतिम मीमांसा हो गई , सो भी नहीं ,
परंतु ऐसी और भी एक घटना मुझे मालूम है ,
जिसका उल्लेख किए बिना ही मैं यह बात कहना चाहता हूँ कि सिर्फ कर्तव्य ज्ञान से या बहुत समय तक एक - साथ घर - गृहस्थी करने के अधिकार से ही कोई स्त्री डर को पार नहीं कर सकती ।
वह और कोई शक्ति है , जिसका बहुत से स्त्री - पुरुष सौ वर्ष तक एक साथ घर गृहस्थी चलाते रहने पर भी संभव है , कुछ पता नहीं कर पाते ।
परंतु अचानक उस शक्ति का परिचय जब किसी नर - नारी के निकट प्राप्त हो जाता है ,
तब समाज की अदालत में आसामी बनाकर उसे दंड देने की आवश्यकता हो तो हो ,
किंतु मनुष्य की जो वस्तु सामाजिक नहीं है , वह स्वयं तो उसके दुःख से चुपचाप आँसू बहाए बगैर किसी प्रकार रह नहीं सकती ।
करीब दो महीने तक मृत्युंजय की खोज - खबर नहीं ली ।
जिन लोगों ने गँवई गाँव देखा नहीं है , अथवा सिर्फ रेल के डिब्बे में से मुँह निकालकर देखा है , वे संभवत : आश्चर्य के साथ कहेंगे , यह कैसी बात ?
यह भी क्या संभव हो सकता है कि स्वयं अपनी आँखों से इतनी खराब हालत देख आने पर भी दो महीने तक फिर कुछ खबर ही नहीं ली जाए ?
उनकी जानकारी के लिए यह कहना जरूरी है कि यह सिर्फ संभव
ही नहीं , बल्कि ऐसा ही हुआ करता है ।
किसी एक पर मुसीबत आ पड़ने पर मुहल्ले भर के लोग दल बाँधकर उलट पड़ते हैं , ऐसी एक किवदंती नहीं ,
ऐसी दशा कभी सतयुग के गाँवों में थी या नहीं , है ।
मालूम परंतु इस जमाने में कहीं देखी हो , ऐसा तो याद नहीं पड़ता ।
मगर हाँ जबकि उसके मरने की खबर नहीं मिली है तो वह जिंदा जरूर होगा . जरूर इसमें कोई संदेह नहीं ।
इन्हीं दिनों अचानक एक दिन कान में भनक पड़ी कि मृत्युंजय के उस बाग के हिस्सेदार चाचा , शोर मचाते फिर रहे हैं , " गया , गया ।
गाँव बिलकुल रसातल में चला गया ।
समाज में अब मेरा नाल्ते के मित्तिर कहलाने योग्य मुँह नहीं रहा ।
नालायक एक सपेरे की लड़की को निकाह करके घर ले आया है और सिर्फ निकाह ही नहीं , वह भी न हो , चूल्हे में गया , पर उसके हाथ का भात तक खा रखा है ।
गाँव में यदि इसका कोई शासन न रहा तो फिर सब जंगल में जाकर क्यों नहीं बस जाते ?
कोड़ोला और हीरपुर का समाज इस बात को सुनेगा तो इत्यादि इत्यादि ।
" बस फिर क्या था , लड़के , बूढ़े सभी के मुँह पर यही बात , “ ऐं , यह क्या हुआ ?
कलिकाल क्या सचमुच ही उलटना चाहता है । ' चचा कहते फिरते हैं , “ ऐसा होगा , यह तो मैं पहले से ही जानता था ।
सिर्फ तमाशा देख रहा था कि कहाँ का पानी कहाँ जाकर मरता है ?
नहीं तो वह कोई गैर नहीं , पड़ोसी नहीं , अपना खास भतीजा था ।
क्या मैं उसे घर नहीं ले जा सकता था ?
डॉक्टर - हकीमों से इलाज कराने की मेरी ताकत नहीं थी ?
तो फिर क्यों नहीं , यह अब देखें सब लोग , मगर अब तो चुप नहीं रहा जा सकता !
यह तो मित्तिर वंश का नाम ही डूबा जाता है , गाँव के मुँह पर कालिख लगी जाती है ।
" तब हम सब गाँव के लोगों ने मिलकर जो काम किया , उसका स्मरण आते ही मैं आज भी शरम से मर जाता हूँ ।
चचा चले नाल्ते के मित्तिर वंश के अभिभावक बनकर और हम दस - बारह लोग उनके साथ चले , इसलिए कि गाँव पर कोई इलजाम न लगने पाए ।
थी ।
बिलासी टूटे - फूटे बरामदे के एक तरफ बैठी रोटी बना रही थी ।
मृत्युंजय के खंडहर वाले घर पहुँचे तो उस समय शाम हो चुकी अचानक इतने आदमियों को लाठी - सोटा लिये हुए आँगन में आते देख मारे भय के नीली पड़ गई ।
चचा ने कोठरी के अंदर झाँककर देखा , मृत्युंजय लेटा हुआ है । बस
झट से दरवाजे की साँकल चढ़ाकर , डर के मारे अधमरी उस लड़की के साथ बातचीत करना शुरू कर दिया ।
यह तो कहना फिजूल है कि दुनिया में किसी भी चचा ने किसी भी जमाने में भतीजे की औरत से शायद ही कभी वैसा संभाषण किया हो ।
वह ऐसा था कि लड़की हीन सपेरों की जात की होने पर भी उसे बरदाश्त न कर सकी , आँखें उठाकर बोली ,
. " मेरे बाप ने बाबू के साथ निकाह कर दिया है , जानते हो ! " चचा ने कहा , " अच्छा जी । "
इत्यादि इत्यादि और साथ ही साथ दस - बारह व्यक्ति वीर - दर्प से हुंकारते हुए उसकी गरदन पर टूट पड़े ।
किसी ने उसके बालों को पकड़ा , किसी ने कान पकड़े और किसी ने हाथ थाम लिये और जिन्हें संयोग न मिला , वे भी निश्चेष्ट न रहे ।
कारण , संग्राम क्षेत्र में हम कापुरुषों की तरह चुपचाप खड़े रह सकते हैं , पर हमारे खिलाफ इतनी बड़ी बदनामी करते फिरने में संभवत : नारायण के कारिदों को भी आँख की शरम मालूम हो ।
यहाँ पर एक अप्रासंगिक बात कहना चाहता हूँ ।
सुना है कि विलायत आदि म्लेच्छ देशों में पुरुषों के मन में एक कुसंस्कार बैठा हुआ है कि औरतें कमजोर और निरुपाय हैं ,
इसलिए उन पर हाथ उठाया जा सकता है ।
फिर चाहे वह नर - नारी कोई भी क्यों न हो ।
लड़की पहले ही जो एक बार कराह उठी थी , उसके बाद फिर एकदम खामोश हो गई , परंतु हम लोग
जब उसे गाँव के बाहर छोड़ आने के लिए घसीटकर ले चले तब वह प्रार्थना करती हुई कहने लगी , " बाबू , मुझे जरा सी देर के लिए छोड़ दो , मैं रोटियाँ घर में रख आऊँ ।
बाहर सियार - कुत्ते खा जाएँगे , कमजोर आदमी ठहरे , उन्हें रात भर भूखे रहना पड़ेगा ।
" मृत्युंजय बंद कोठरी में पागलों की भाँति सिर धुनने लगा , दरवाजे पर लातें मारने लगा और श्राव्य - अश्राव्य भाषा का प्रयोग करने लगा ,
परंतु हम लोग उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए , अपने देश के कल्याण के लिए सबकुछ अकातर भाव से सहकर उसे घसीटते हुए ले चले ।
' ले चले ' इसलिए कह रहा हूँ कि मैं बराबर उनके साथ चल रहा था , परंतु मालूम नहीं मुझमें कहाँ कमजोरी छुपी हुई थी ,
जिससे मैं उस पर हाथ न उठा सका , बल्कि मैं तो भीतर से रोने सा लगा ।
उसने अत्यंत गलत काम किया है और उसे गाँव के बाहर निकाल देना ही ठीक है ;
परंतु फिर भी हम यह कोई अच्छा काम कर रहे हैं , यह मेरी बुद्धि में न
आ सका , पर यह मेरी अपनी बात है , इसे छोड़ दो ।
कायस्थ हँसी के में उड़ा आप यह न समझ लें कि गाँवों में उदारता का बिलकुल ही अभाव है ।
हरगिज नहीं , बल्कि बड़े आदमी होने पर हम ऐसी उदारताएं प्रकट करते हैं कि सुनकर आप दंग रह जाएँगे ।
यही मृत्युंजय अगर उसके हाथ का भात खाने का अक्षम्य अपराध न करता तो हम लोगों को इतना क्रोध न आता और लड़के के साथ सपेरे की लड़की का निकाह — यह तो देने की बात है , लेकिन भात खाकर तो अढ़ाई महीने से बीमार है तो हुआ इससे क्या भात खा लेगा ?
पूड़ी नहीं , संदेस नहीं , बकरे का मांस नहीं ! अरे , भात खाना तो अन्न पाप है , उसे तो सचमुच ही क्षमा नहीं किया जा सकता ।
इसलिए गाँव के लोग संकीर्ण चित्त नहीं हैं । ' चार कोस पैदल चलने की विद्या जिनके पेट में है , वे ही किसी दिन बड़े होकर समाज के शिरोमणि होते हैं ।
देवी वीणापाणि के वर से संकीर्णता उनमें आ कैसे सकती है ?
उसने अपना काल करे , खाट ही बुला लिया ।
वह पर पड़ा है तो पड़ा रहे , पर
इस घटना के कुछ दिन के पश्चात् सुबह स्मरणीय स्वर्गीय मुखोपाध्याय महाशय की विधवा पुत्रवधू मानसिक वैराग्य से दो वर्ष तक काशीवास करके जब गाँव को वापस लौटी तब निंदक लोग कानाफूसी करने लगे कि आधी संपत्ति उस विधवा की ठहरी न , इसलिए इस डर से कि कहीं वह संपत्ति बेहाथ न हो जाए ,
छोटे बाबू बहुत प्रयास और बड़े परिश्रम से बहूजी को जहाँ से लिवा लाए हैं , वह जगह जरूर काशी ही होगी ।
जो भी हो , छोटे बाबू ने अपनी स्वाभाविक उदारता से जब गाँव की पंचायती पूजा में दो सौ रुपए दान देकर गाँव के ब्राह्मणों को सदक्षिणा दी , सबको उत्तम फलाहार कराया और फिर प्रत्येक सदब्राह्मण को हाथ में एक - एक काँसे का गिलास देकर विदा किया , तब चारों तरफ ' धन्य धन्य ' की धूम मच गई ।
यहाँ तक कि घर आते - आते रास्ते में ही बहुत से लोग देश की भलाई के लिए कामना करने लगे कि ऐसे जो सब बड़े आदमी हैं , उन सभी के घर महीने - महीने ऐसे सदनुष्ठान क्यों नहीं * हुआ करते ।
परंतु जाने दो , ऐसी महत्त्व की कहानियाँ बहुत सी हैं ।
इकट्ठा होकर लगभग प्रत्येक ग्रामवासी के दरवाजे पर उनका स्तूप लग युग - युग में गया है , इस दक्षिण बंगाल के ही बहुत से गाँवों में करने जैसी बहुत सी बड़ी - बड़ी घटनाएँ मैंने प्रत्यक्ष रूप से देखी हैं । चाहे घूम - घूमकर गौरव
चरित्र में कहा और चाहे धर्म में , समाज में कहा और चाहे विद्या में , शिक्षा बिलकुल पूरी हो गई है ,
अब सिर्फ अंग्रेजों को कसकर गाली गलौज कर के तो बस देश का उद्धार हो जाए ।
इसके बाद लगभग एक वर्ष बीत गया है । मच्छरों का काटना जब और नहीं सहा गया तब संन्यासगिरी से इस्तीफा देकर मैं घर लौट आया हूँ ।
एक दिन मैं दोपहर के समय गाँव से दो कोस दूर मालपाड़े में से होकर जा रहा था , अचानक देखा कि एक कुटिया के द्वार पर मृत्युंजय बैठा है ।
उसके सिर पर गेरुआ रंग की पगड़ी , बड़े बड़े बाल और दाढ़ी - मूँछें , गले में रुद्राक्ष और काँच की मालाएँ , कौन कह सकता था कि वह मृत्युंजय है ?
कायस्थ का लड़का , एक ही वर्ष में अपनी जात खोकर बिलकुल सपेरा हो गया ?
मनुष्य कितनी जल्दी अपनी चौदह पीढ़ियों की जात को तिलांजलि देकर दूसरी जाति को अपना लेता है ।
यह एक बड़े भारी आश्चर्य की बात है ।
ब्राह्मण का लड़का भंगिन की लड़की से ब्याह करके भंगी हो गया और उसी का रोजगार करने लगा , यह तो शायद आप सभी लोगों ने सुना होगा ।
मैंने सब्राह्मण के एक लड़के को एंट्रेंस पास करने के बाद भी डोम की लड़की से शादी करके डोम होते देखा है ।
अब वह सूप - डलिया आदि बनाकर बेचता और सुअर चराया करता है ।
एक अच्छे घराने के कायस्थ पुत्र को कसाई की लड़की के साथ ब्याह करके कसाई होते भी मैंने देखा है ।
आज वह अपने हाथ से गायें काटकर बेचता है , उसे देखकर किसकी मजाल है जो कहे कि वह किसी समय कसाई के सिवा और कुछ भी था !
किंतु सबका एक ही कारण है ।
इसी से मैं सोचता हूँ कि जो नारियाँ इस तरह इतनी आसानी से व्यक्ति को खींचकर नीचे उतार सकती हैं , वे क्या उसी प्रकार हँसते - खेलते उन्हें जोर देकर ऊपर नहीं चढ़ा सकतीं ?
जिन ग्रामवासी पुरुषों की सुख्याति प्राप्त करने के लिए आज मैं पंचमुख हो उठा हूँ , यह गौरव क्या सिर्फ अकेले उन्हीं को मिलना चाहिए ?
क्या सिर्फ अपने ही बल पर वे इतनी जल्दी नीचे की तरफ उतरे चले जा रहे हैं ?
अंदर की ओर से क्या उनके लिए जरा सा उत्साह , जरा भी मदद नहीं आती ?
शायद मैं झोंक में आकर अनधिकार चर्चा कर बैठा ,
परंतु मेरे लिए कठिन तो यह है कि मैं किसी भी तरह नहीं भूल सकता कि देश में नब्बे फीसदी नर और नारी गाँवों में ही रहकर आदमी होते हैं और इसलिए कुछ - न - कुछ हमें करना ही चाहिए ।
खैर , अभी मैं कह रहा था , देखकर
कौन कहेगा कि यह वही मृत्युंजय है ?
परंतु मुझे देखकर वह भी बहुत खुश हुई और बार - बार कहने लगी , " तुम न बचाते तो उस रात को वे मुझे मार ही डालते ।
मेरे लिए तुमने भी न जाने कितनी मार खाई होगी ?
" बातों ही बातों में सुना कि उसके दूसरे ही दिन वे यहाँ आ गए और तब से घर बनाकर यहीं सुख से रह रहे सुख से हैं
यह बात मुझे कहने की आवश्यकता नहीं हुई , सिर्फ उनके चेहरे की ओर देखने से ही मैं समझ गया ।
सुना कि आज उन लोगों को कहीं साँप पकड़ने जाना है , बयाना ले चुके हैं ।
वे तैयार हुए तो मैं भी साथ जाने के लिए उछल पड़ा ।
बचपन में ही दो बातों पर मुझे काफी अभिरुचि रही है , एक तो गोखुरा काला साँप पकड़कर पालना और दूसरा मंत्र सिद्ध करना ।
मंत्रसिद्ध होने का उपाय अब तक मुझे ढूँढ़े नहीं मिला था , इसलिए मृत्युंजय को उस्ताद के रूप में पा लेने की उम्मीद से मारे आनंद के मैं फूला न समाया ।
वह अपने नामी ससुर का शिष्य ठहरा , इसलिए बड़ा भारी आदमी है ।
मेरा भाग्य अकस्मात् ऐसा चमक उठेगा , इसे कौन सोच सकता था ?
लेकिन काम बहुत मुश्किल है और खतरा भी है , इसलिए पहले तो उन लोगों ने आपत्ति की ,
परंतु मैंने ऐसी जिद पकड़ी कि उसे एक ही महीने के भीतर मुझे शागिर्द बना लेने के अलावा कोई दूसरा रास्ता ही न सूझा ।
मृत्युंजय ने मुझे सौंप पकड़ने का मंत्र और तरकीब सिखा दी और कलाई में दवा वाला एक ताबीज बाँधकर बाकायदा सपेरा बना दिया ।
में मंत्र क्या था , जानते हैं ?
उसका आखिरी हिस्सा मुझे याद है " अरे केउटे तुई मनसार बाहन मनसा देवी तेरी माँ ,
उलट पलट पाताल फोड़ , ढोंड़ार विष तुई ने , तोर विष ढोंड़ार दे दुधराज मणिराज ।
कार आज्ञे , विष हरिर आज्ञे ।
" इसका अर्थ क्या है , मैं नहीं जानता ।
कारण , जो मंत्र के रचने वाले ऋषि थे , यह भी आवश्यक है कि कोई - न - कोई होंगे ही , उनके दर्शन कभी नहीं हुए ।
आखिर में एक दिन इस मंत्र के सत्य , मिथ्या की चरम मीमांसा हो
इतना न गई , किंतु जब तक न हुई तब तक मैं साँप पकड़ने में चारों ओर प्रसिद्ध हो गया ।
सभी लोग कहने लगे , " हाँ , न्याड़ा है तो गुणी आदमी ! संन्यासी हालत में कामाख्या जाकर सिद्ध हो आया है !
इतनी सी उमर में बड़ा उस्ताद हो जाने से ऐसी हालत हो गई कि मेरे पैर जमीन पर ही पड़ते थे ।
भरोसा नहीं किया सिर्फ दो आदमियों ने मेरा जो गुरु था , वह तो भली - बुरी कोई बात ही नहीं कहता था , परंतु बिलासी बीच - बीच में मुसकराती हुई कहती , “ महाराज ! ये सब भयंकर जानवर ठहरे , इन्हें जा सावधानी से हिलाया - डुलाया करो ।
" सचमुच विष दाँत तोड़े हुए साँपों के मुँह से जहर निकालना आदि काम मैं ऐसी लापरवाही के साथ करने लगा कि उसकी याद आते ही आज भी मेरा बदन काँप उठता है ।
असल बात यह है कि साँप पकड़ना बड़ा मुश्किल काम है और पकड़े हुए साँप को दो - चार दिन हँड़िया में बंद रखने के बाद चाहे उसके विष दाँत तोड़े जाएँ या न तोड़े जाएँ , वह किसी तरह काटना ही नहीं चाहता । फन उठाकर काटने का बहाना करेगा तो जरूर , डराएगा पर काटेगा नहीं ।
कभी कभी हम दोनों गुरु - शिष्यों के साथ बिलासी चर्चा किया करती थी ।
सपेरों के लिए सबसे बढ़कर लाभ का रोजगार है जड़ी बेचना , जिसे देखकर साँप को भागते ही बने ।
परंतु उससे पहले मामूली सा एक काम करना पड़ता है ।
जिस साँप को जड़ी दिखाकर भगाना हो , पहले उसका मुँह गरम लोहे की सींक से कई बार दबा दो , फिर चाहे जड़ी दिखाई जाए और कोई मामूली सींक , उसे भागकर जान बचाने की ही सूझेगी ।
इस काम के खिलाफ बिलासी की बड़ी जबरदस्त अड़चन थी ।
वह मृत्युंजय से कहती , “ देखो , इस तरह से आदमी को नहीं ठगना चाहिए ? "
मृत्युंजय कहता , " सभी तो ऐसा करते हैं , इसमें हमारा दोष क्या है ? "
चिंता नहीं है , फिर हम क्यों लोगों को झूठ - मूठ धोखा दें ?
" , विलासी कहती , " करने दो सबको । हम लोगों को तो खाने - पीने की एक बात पर मैंने बराबर लक्ष्य किया था , साँप पकड़ने के लिए
बयाना आते ही बिलासी उसमें तरह - तरह से रुकावट डालने की कोशिश किया करती , " आज शनिवार है या आज मंगलवार है ।
" इसी तरह सेन
जाने क्या कह दिया करती । मृत्युंजय घर पर न रहता तब तो वह बयाने वाले को स्पष्ट ही भगा दिया करती ,
परंतु मौजूद रहने पर मृत्युंजय रुपए का लोभ न सँभाल सकता और मुझे तो एक तरह कान शा सा हो गया था ।
नाना प्रकार से उसे उत्तेजित करने में कुछ कसर बाकी नहीं उठा रखता था ।
वास्तव में इस मजे के अलावा डर भी कहीं है , यह बात हमारे मन में कभी आती ही न थी , परंतु इस पाप का दंड एक दिन मुझे अच्छी तरह भुगतना पड़ा ।
उस दिन गाँव से डेढ़ कोस दूर एक ग्वाले के घर में सौंप पकड़ने गया था ।
बिलासी बराबर साथ रहती थी , आज भी थी ।
मिट्टी की मढैया में ढूँढते - ढूँढ़ते धरती में एक जगह बलि का चिह्न पाया गया । हममें से किसी ने लक्ष्य नहीं किया , परंतु बिलासी ठहरी सपेरे की लड़की , उसने झुककर कागज के कुछ टुकड़े उठाते हुए मुझसे कहा , " महाराज ! जरा होशियारी से खोदना । साँप एक ही नहीं है , जोड़ा है , शायद और भी अधिक हों । "
मृत्युंजय ने कहा , " ये लोग कहते हैं , एक ही आकर घुसा है । एक ही दिखाई दिया है । "
बिलासी ने कागज दिखाते हुए कहा , " देखते नहीं , उन्होंने यहाँ रहने की जगह बनाई है ? "
मृत्युंजय ने कहा , " कागज तो चूहे भी ला सकते हैं ? " बिलासी ने कहा , " दोनों ही बातें हो सकती हैं , मगर दो तो जरूर हैं , मैं कहती हूँ ।
" वास्तव में बिलासी की बात ठीक निकली ।
दस मिनट के भीतर ही एक बड़ा जबरदस्त ' खरिंश गोखुरा ' काला साँप पकड़कर मृत्युंजय ने मेरे हाथ में दे दिया ,
परंतु मैं उसे अपनी पेटी में बंद करके लौटा भी न था कि मृत्युंजय ' उड़ : ' करके साँस छोड़कर बाहर आकर खड़ा हुआ ।
उसकी हथेली की पीठ से झर - झर खून निकल रहा था । पहले तो सभी किंकर्तव्यविमूढ़ से हो गए ।
कारण , साँप को पकड़ने जाओ और वह भागने के लिए बेचैन होकर बिल में से मुँह निकालकर काट खाए , ऐसी कल्पनातीत घटना तो जीवन में यही पहले - पहल देखी ।
दूसरे ही क्षण बिलासी चिल्लाती हुई दौड़ी , अपने आँचल से उसका हाथ बाँध दिया और जितनी भी तरह की जड़ी - बूटियाँ वह साथ में लाई थी , उसे चबाने को दे दीं ।
मृत्युंजय का अपना ताबीज तो था ही , उस पर मैंने
अपना ताबीज उतारकर पहना दिया ।
आशा थी कि जहर उसके ऊपर अब नहीं चढ़ेगा , और मैं अपने उस ' विपहरी की आज्ञा ' वाले मंत्र को बार - बार जोर - जोर से पढ़ने लगा ।
चारों तरफ भीड जम गई और आस - पास जितने भी गुणी लोग थे , सबको खबर देने के लिए चारों ओर आदमी दौड़ाए ।
बिलासी के बाप को भी खबर देने के लिए आदमी भेजा गया ।
मैं अविराम गति से बिना रुके मंत्र पढ़ता रहा , परंतु पंद्रह - बीस मिनट बाद जब मृत्युंजय एक बार वमन करके नाक के स्वर में बाल करने लगा , तब तो बिलासी एकदम पछाड़ खाकर जमीन पर गिर पड़ी । मैं भी समझ गया , मेरी विपहरी की दुहाई अब काम नहीं आने वाली आस - पास के और भी दो - चार उस्ताद आ पहुँचे ।
हम लोग कभी तो . एक - साथ और कभी अलग - अलग तैंतीस करोड़ देव - देवियों की दुहाई देने लगे ; परंतु विष ने एक भी दुहाई नहीं मानी ,
रोगी की हालत बराबर खराब होती चली गई ।
जब देखा गया कि अच्छी बातों से काम नहीं चलेगा तब तीन - चार ओझों ने मिलकर विष को एक ऐसी अकथ्य और अश्राव्य भाषा में गाली - गलौज करना आरंभ किया कि अगर विष के कान होते तो मृत्युंजय को छोड़ने की तो बात कौन कहे , वह देश को ही छोड़कर भाग जाता ,
मगर किसी से भी कुछ न बना ।
आधे घंटे जूझने के बाद रोगी ने अपने माता - पिता के दिए मृत्युंजय नाम और ससुर के दिए मंत्र , औषधि आदि सबको झूठा प्रमाणित करके इहलोक की लीला खत्म की ।
बिलासी अपने पति का सिर गोद में रखे बैठी थी , बिलकुल पत्थर सी हो गई ।
वह मानो जाने दो , उसके दुख की कहानी अब बढ़ाना नहीं चाहता ।
सिर्फ इतना ही कहकर खत्म कर दूँगा कि वह सात दिन से अधिक अपना जिंदा रहना न सह सकी ।
मुझसे एक दिन उसने सिर्फ यह कहा , “ महाराज ! मेरे सिर की कसम , इस काम को तुम अब कभी न करना ।
" मैं अपना ताबीज और कवच तो मृत्युंजय के साथ ही कब्र में दफन चुका था , चल रही थी सिर्फ विपहरी की आज्ञा , परंतु वह आज्ञा
मजिस्ट्रेट का आदेश नहीं और साँप का विष हिंदुस्तानियों का विष नहीं , कोई इस बात को भी मैं समझ गया था ।
एक दिन जाकर सुना , घर में जहर की तो कमी थी नहीं , बिलासी ने आत्महत्या कर ली है और शास्त्रों के अनुसार अवश्य ही वह नरक