लकड़सुँघवा पाए बिना इस बार रूपनारायण के ऊपर पुल नहीं बन पा रहा है ।
दो जीवित बच्चे पुल के नीचे गाड़ दिए हैं , अब केवल एक की कमी है ।
वह प्राप्त होते ही जोर - शोर के साथ पुल का निर्माण कार्य आरंभ हो जाएगा ।
साथ ही यह समाचार भी सुनने में आया कि रेलवे कंपनी की तरफ से कुछ एजेंट बच्चा पकड़ने के लिए शहर और गाँवों में घूम रहे हैं ।
उनमें किसी की सूरत साधु की तरह तो किसी की डाकू की तरह है ।
विभिन्न रूप में लोग चारों तरफ फैल गए हैं ।
अफवाहों का प्रसार इतना बढ़ गया कि गाँव के लोग समझने लगे - शायद मेरे लड़के को ही पुल के नीचे बलिदान देने के लिए न ले जाएँ ।
हर एक परिवार में प्रत्येक घर में इसकी जोरदार चर्चा होने लगी ।
सभी डरे डरे से रहने लगे ।
इसके ऊपर समाचार पत्रों ने और भी रंग चढ़ा दिया ।
कलकत्ता से आने वाले चश्मदीद गवाहों ने बयान दिया , अभी कल ही बहू बाजार में एक व्यक्ति हाथों - हाथ पकड़ लिया गया ।
तलाशी लेने पर उसके झोले में एक बच्चा बरामद हो गया ।
बड़ा बाजार में भी एक बच्चे को पकड़ते समय एक आदमी गिरफ्तार हो गया ।
इसी तरह के विभिन्न समाचार विशेष रूप से कलकत्ता में होने वाली घटनाओं पर रंग चढ़ाकर हमारे गाँवों में हवा के साथ फैल गए ।
उसी दिन समय हमारे गाँव में भी एक मजेदार घटना हो गई ।
सड़क के किनारे एक बगीचेदार मकान में मुखर्जी बाबू परिवार सहित रहते हैं ।
निस्संतान होने पर भी गृहस्थी के प्रति अठारह आने आसक्ति है ।
अलगा - गुजारी करते समय उन्होंने अपने भतीजे को एक कानी कौड़ी भी नहीं दी ।
अब भी देना पड़ेगा , इसकी कल्पना तक नहीं ,
उधर भतीजा कभी - कभी आकर अपना हक उनसे माँगता रहता था ।
इस पर मुखर्जी की पत्नी शोर मचाती हुई मुहल्ले वालों को इकट्ठा कर लेती थी और उलाहनेपूर्ण शब्दों में कहती , “ हीरू मुझे मारने आया था । "
इस सफेद झूठ से चिढ़कर हीरू भी कह उठता , “ अच्छी बात है , एक दिन मारकर ही अपना हक वसूल लूँगा । "
इसी तरह दिन गुजरते चले गए ।
उस दिन इस घटना ने भयावह रूप धारण कर लिया ।
हीरू ने आँगन में आकर कहा , " चाचा ! आज आखिरी बार चेतावनी दे रहा हूँ । मेरा हिस्सा मुझे दे दो । "
H " मेरे पास तेरा कुछ भी नहीं है ।
" ' नहीं है ? " नहीं । " “ मैं लेकर रहूँगा ।
चाची रसोईघर से बाहर निकलकर बोल उठी , “ अच्छी बात है ।
जा , अपने बाप को बुला ला " हीरू ने जबाव दिया , “ मेरे पिताजी स्
वर्ग चले गए हैं , वे तो अब नहीं आ सकते ।
कहो तो जाकर तुम्हारे बाप को बुला लाऊँ ।
अगर तुम्हारे वंश में कोई जीवित हो , तो वह आकर मेरा अधिकार दे दे । "
उसके बाद दोनों ओर से जिस भाषा का प्रयोग होने लगा , उसे लिखना बेकार है ।
जाने के पहले हीरू चेतावनी देता गया , " आज ही इसका फैसला करके रहूँगा , सावधान रहना ।
" रसोईघर से चाची बोलीं , “ जा - जा , जो करते बने , कर लेना । "
हीरू वहाँ से सीधे रामपुर में आया ।
इस गाँव में अधिकतर गरीब मुसलमान रहते थे ।
वे मुहर्रम और ताजिया के दिनों तलवार , लाठी का खेल दिखाया करते हैं ।
उनकी लाठियाँ तेल से तर और प्रत्येक गाँठ में पीतल की फुलियाँ जड़ी रहती हैं ।
इधर के इलाके में यह बात प्रसिद्ध है ।
कि आस - पास के गाँवों में इन लोगों की तरह लाठी खेलने वाला कोई नहीं है ।
शायद ही ऐसा कोई काम है , जिसे ये लोग न कर सकते हों ।
सिर्फ पुलिस के भय के कारण चुप रहते हैं ।
हीरू ने कहा , " बड़े मियाँ ! यह लो दो रुपया , पेशगी के रूप में रख लो ।
एक तुम्हारे लिए , दूसरा भाई के लिए है ।
काम पूरा हो जाने पर और पुरस्कार दूंगा । "
रुपए लेने के बाद हँसते हुए लतीफ मियाँ ने कहा , " काम क्या है , बाबूजी ? "
" एक मैं ही नहीं , इधर का सारा इलाका यह बात जानता है कि तुम दोनों बड़े अच्छे लठैत हो ।
अपनी लाठी के जोर से जमींदार विश्वास बाबू की संपत्ति पर अधिकार जमा लिया है ।
अगर तुम लोग चाहो तो क्या नहीं हो सकता ? "
बड़े मियाँ ने आँख दबाते हुए कहा , “ जरा धीरे बोलिए बाबूजी ! थाने के दरोगा साहब सुन लेंगे तो गजब हो जाएगा ।
वीरनगर के इस गाँव में अपना राज है , वह तो कहो किसी ने देखा नहीं और काम सिद्ध हो गया । "
हीरू ने कहा , “ क्या कहते हो ? तुम्हें कोई पहचान नहीं सका ? "
लतीफ मियाँ ने हँसते हुए कहा , " कैसे कोई पहचानेगा ?
सिर पर बड़ी पगड़ी , गर्राट नकली दाढ़ी - मूँछ बनाकर , सारे बदन में तेल - सिंदूर पोतकर हाथों में छह फीट की लाठी लेकर गया था ।
इस वेश में देखते ही लोगों ने समझा- हम दोनों सीधे यमराज के यहाँ से चले आ रहे हैं ।
उस समय किसी को इतना होश नहीं रहा कि हमें पहचानते ।
देखते ही देखते सभी न जाने किधर भाग गए ? "
हीरू ने लतीफ मियाँ का हाथ अपने हाथों में लेते हुए बड़े प्यार के साथ कहा , " बड़े मियाँ ! एक बार इसी पोशाक में मेरा एक काम कर दो ।
मेरे चाचा मेरा अधिकार देने के लिए कुछ तैयार भी हो जाते हैं , लेकिन वह शैतान की खाला चाची कानी कौड़ी तक नहीं देना चाहती ।
एक बार वही पगड़ी और नकली दाढ़ी - मूँछ लगाकर उनके आँगन में चले जाओ , इसके बाद जो कुछ करना है , मैं वसूल कर लूँगा ।
एकादशी के दिन शाम के वक्त , ठीक है । "
लतीफ मियाँ तैयार हो गए ।
यह तय हो गया कि लतीफ और महमूद दोनों भाई उस दिन शाम के समय अजीब पोशाक में हीरू के चाचाजी के घर चढ़ेंगे और हीरू पास ही छिपा रहेगा ।
आज एकादशी है , दिन भर उपवास रहने के बाद मुखर्जी साहब बाहर वाले बरामदे में जलपान की प्रतीक्षा में बैठे हुए थे ।
गठिया के रोगी होने के कारण एकादशी को अन्नाहार करने की इच्छा नहीं होती ।
जलपान आने के पहले जैसे ही डाब ( कच्चा नारियल के पानी ) से भरा हुआ गिलास मुँह से लगा था , वैसे ही दरवाजा ढकेलकर महमूद और
लतीफ मियाँ एक झटके से भीतर आ गए । सिर पर भारी पगड़ी , लंबी दाढ़ी , हाथ में आठ फीट की एक लंबी लाठी लिये हुए मुँह पर सिंदूर पोते हुए थे ।
इन दोनों की शक्ल देखते ही उनके हाथ से गिलास नीचे गिर पड़ा ।
जगदंबा चीखती हुई बोल उठी , " अरे , टोले मुहल्ले वालो ! कहाँ हो , जल्दी आओ । मेरे घर में लकड़सुँघवा घुस गया है ।
" मुखर्जी बाबू के घर के सामने एक छोटा सा मैदान है । वहीं पर रोज शाम के समय गाँव के बच्चे कबड्डी खेलते थे ।
उस दिन भी खेल रहे थे ।
जगदंबा की चीख - पुकार सुनते ही जो जहाँ था , वहीं से चीखते - चिल्लाते घर की ओर दौड़ पड़ा ।
गाँव में लकड़सुँघवा आया है , लड़कों को पकड़कर ले जा रहा है ।
हीरू दोनों भाइयों को घर दिखाने के लिए साथ लाया था ।
भीतर न आकर वह बाहर दरवाजे के पास छिपा बैठा था ।
वहीं से उसने दबी जबान में कहा , " बड़े मियाँ अब मत ठहरो , भागो यहाँ से , वरना जान के लाले पड़ जाएँगे ।
" इतना कहकर वह नौ दो ग्यारह हो गया ।
और बातों से भले ही लतीफ मियाँ अनजान रहते हों , लेकिन शहर और गाँवों में लकड़सुँघवा की चर्चा से अनजान नहीं थे ।
एक मिनट में वह समझ गए कि अगर इस रूप में वह यहाँ पकड़ लिया गया तो खैरियत नहीं ।
यह सोचकर दोनों वहाँ से भाग खड़े हुए ; लेकिन अनजाने गाँव से झटपट भाग जाना हँसी - खेल नहीं है ।
तब तक चारों तरफ से गाँव वालों की आवाजें आने लगीं , “ कहाँ गया ?
पकड़ो , मारो , जाने न पाए ।
" छोटा भाई महमूद न जाने किधर गायब हो गया , पता नहीं चला , लेकिन लतीफ मियाँ चारों तरफ से घिर जाने के कारण पकड़ लिये गए ।
जान बचाने की गरज से बेचारा पास के एक तालाब में कूद पड़ा ।
यह देखकर लोग किनारे से उस पर चारों तरफ से ईंट - पत्थर बरसाने लगे ।
आखिर तंग आकर उसने कहना शुरू किया , " मैं लकड़सुँघवा नहीं हूँ । " पर कौन सुनता है ?
उसकी इस सफाई पर किसी का ध्यान नहीं गया ।
कुछ लोग तो इस सफाई को झूठ समझकर और भी नाराज हो उठे , वह और जोर से ईंट पत्थर फेंकने लगे ।
अगर यह लकड़सुँघवा नहीं है तो सिर पर पगड़ी क्यों है ?
इतनी लंबी दाढ़ी क्यों ? चेहरे पर इतना सिंदूर क्यों पोते हुए है ?
पानी में डुबकियाँ लगाने की वजह से उसकी पगड़ी खुल गई थी , चेहरे का सिंदूर चारों तरफ फैल गया था ।
तब तक कुछ व्यक्ति पानी में उतरकर उसे घसीटते हुए किनारे पर ले आए ।
वह बराबर चीखता ही रहा , “ मैं लतीफ मियाँ हूँ , महमूद मियाँ का भाई , लकडसुँघवा नहीं हूँ । "
ठीक इसी वक्त एक आवश्यक काम के लिए मैं तालाब के किनारे वाली पगडंडी से जा रहा था , हंगामा सुनकर तालाब के पास चला आया ।
मुझे देखते ही जनता और भी भड़क उठी ।
सभी एक स्वर में कहने लगे , ' आज एक लकडसुँघवा को पकड़ लिया गया है । "
14 उनकी दशा देखकर मेरी आँखें छलछला आई ।
बेचारे को लोगों ने इस कदर पीटा था कि उसके मुँह से ठीक से आवाज भी नहीं निकल रही थी ।
सिर्फ रह रहकर अपने हाथ ऊपर उठाकर हाथ जोड़ रहा था । मैंने पूछा , " इसने किसका लड़का चुराया है ? "
यह पता नहीं । और वह लड़का कौन है ? " यह भी पता नहीं । "
तब इसे तुम लोग क्यों मार रहे हो ? "
किसी बुद्धिमान् व्यक्ति ने उत्तर दिया , " मुमकिन है , लड़कों को इसने कहीं दलदल में गाड़ दिया हो ।
रात को निकालकर ले जाएगा , फिर उसका पुल के नीचे बलिदान दे देगा । " मैंने पूछा , “ क्या मृत बालक का बलिदान होता है ? "
एक ने कहा , " मृत क्यों , जीवित होगा ।
" “ दलदल में गाड़कर रखने से कहीं बच्चा जीवित रह सकता है ? "
यह तर्क सुनते ही सभी एकबारगी चुप हो गए । अब तक ज्यादा भड़कने की वजह से उन सबका ध्यान इस तरफ नहीं गया था ।
“ छोड़ दो इसे । " कहते हुए मैंने उस आदमी से पूछा , " क्या बात है बड़े मियाँ । साफ - साफ कहो ।
" आश्वासन पाकर लतीफ ने शुरू से अब तक की सारी घटना बताई ।
ने मुखर्जी दंपती से गाँव वालों की सहानुभूति नहीं थी ।
यह किस्सा सुनते ही सभी पश्चात्ताप करने लगे ।
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मैंने कहा , " बड़े मियाँ ! अब आप यहाँ से सीधे घर चले जाइए ।
भविष्य में भूलकर भी कभी ऐसी गलती न कीजिएगा ।
" उसने नाक कान छूते हुए कहा , " नहीं बाबूजी ! अब भूलकर भी ऐसा काम नहीं करूंगा , लेकिन मेरा भाई कहाँ है ?
" मैंने कहा , " लतीफ मियाँ फिलहाल तुम अपनी जान बचाकर घर चले जाओ ।
" लतीफ बात मानकर लँगड़ाता हुआ घर की तरफ रवाना हो गया ।
काफी रात गुजरने के बाद उसी दिन प्रचंड कोलाहल से सारा पड़ोस जाग उठा ।
घोषाल के घर की नौकरानी गाय को चारा देने के लिए गोशाला में गई हुई थी ।
उस कमरे में कदम रखते ही एक भयंकर मूर्ति देखकर उसकी घिग्घी बँध गई ।
तब तक उस मूर्ति ने आगे बढ़कर उसके पैरों को कसकर पकड़ लिया ।
इधर नौकरानी इतना भयभीत हो उठी कि जोरों से चिल्ला उठी , " दौड़ो , दौड़ो कहाँ हो ? मुझे भूत ने पकड़ लिया है । "
तभी भूत ने उसके मुँह पर हाथ रखते हुए बताया , " मैं भूत नहीं हूँ माँ ! मुझे बचा लो , मैं आदमी हूँ ।
बड़ा अहसान मानूँगा । " चिल्लाहट सुनकर घोषाल महोदय कई व्यक्तियों के साथ गोशाला में आए ।
अभी शाम के समय ठीक इसी तरह की मूर्ति की दशा इन लोगों ने देखी थी ।
फलस्वरूप महमूद मियाँ मार खाने से बच गए ।
लोगों को यह विश्वास हो गया कि हजरत ही लतीफ के भाई महमूद हैं , भूत नहीं ।
घोषाल ने उसे घर से बाहर निकालते हुए कहा , “ छोटे मियाँ !
तुम अपने जीवन में यह घटना कभी न भूल सको , इसलिए यादगार के रूप में तुमसे यह लाठी मैं लिये लेता हूँ ।
अब अच्छी तरह मुँह - हाथ धोकर सीधे घर चले जाओ ! "
महमूद मियाँ सौ बार कोर्निश ( सलाम ) करने के पश्चात् घर की ओर रवाना हो गए ।
यह कहानी कोरी गप नहीं है , बल्कि सत्य और अपनी ही आँखों देखी घटना के आधार पर लिख रहा हूँ ।