एक बार एक ग्रंथी, मौलवी और पँडित फुरसत के लम्हों में गुफ्तगू कर रहे थे।
चर्चा का विषय था कि ये लोग पूजा के दौरान मिली दक्षिणा किस तरह उपयोग करते हैं। विषय बड़ा नाजुक था।
सवाल व्यक्तिगत आवश्यकताओं और पूजास्थल की देखभाल के बीच दक्षिणा के धन के सामंजस्य का था।
पुजारी बोले "भाई मैं तो दैनिक आरती के बाद पूजा का थाल बीच हाल में रख देता हूँ। भक्तजन अपने स्थान से दान दक्षिणा के सिक्के उछाल देते हैं। जितने थाली में गिरते हैं उतने मेरे दैनिक खर्च के लिये उपयोग हो जाते हैं , शेष प्रभु के भोग, श्रैगार और मँदिर के रखरखाव में।"
मौलवी जी का भी कमोबेश यही तरीका निकला। वे बोले " मैं भी नमाज के बाद अपनी चादर फैला देता हूँ। नमाजी खैरात उछालते हैं ,अल्लाह के फजल से जितनी चादर मे गिरी वह इस बॉँदे की, बाकी अल्लाह के घर की साजोसॉभाल में खर्च हो जाती है।"
ग्रैथी जी कसमसाये और तल्ख स्वर में बोले "तुम लोग ऊपरवाले की नेमत की इस तरह तौहीन करते हो, तभी तो लगता है कि महीनों से कुछ खाया ही नही।"
मौलवी जी और पॉडित दोनों चौके और पूछ बैठे " ग्रंथी जी , भल्रा हम कया गलत करते हैं। आप ही बताइयें आप चढ़ावे का क्या करते हैं?"
लेकिन दोनों की लाख मनौव्वल के बाद भी ग्रंथी जी ने अपनी सफेद चिकनी दाढ़ी पर हाथ फेर कर सिर्फ यही फर्माया कि " रूपया पैसा ऊपरवाला बख्शता है।
उसे इस तरह उछलवा कर आप लोग ऊपर वाले की ही बेइज्जती करते हो।
आप कल खुद ही गुरद्वारे आकर देख लेना कि चढ़ावे के सही इस्तेमाल का तरीका क्या है?"
अगले दिन तड़के मोलवी जी और पंडित दोनों गुरूद्वारे पहुंचे।
पूजापाठ के बाद वे देखते क्या हैं कि ग्रैथी जी ने भक्तों को एक चादर पर तमीज से पैसे चढ़ाने को कहा।
फिर पोटली बाँध कर आसमान में उछाल दी और चिल्लाये " वाहे गुरू, यह तेरी नेमत है, जितनी चाहे रख ले बाकी अपने इस बँदे को बख्श दे।"
उधर पोटली वापस ग्रंथी जी के हाथो में वापस गिरी इधर मौलवी जी और पँडित दोनो गश खाकर जमीन पर।