एक बाबूजी ने बहुत से विद्यालय बनवाए थे ।
कई स्थानों पर सेवाश्रम चलाते थे ।
दान करते करते उन्होंने अपना लगभग सारा धन खर्च कर दिया था ।बहुत सी संस्थाओं को वह सदा दान देते थे ।
अखबारों में उनका नाम छपता था ।वे भी स्वर्ण पत्र लेने आए; किंतु उनके हाथ में जाकर भी वह मिट्टी का हो गया ।
पुजारी ने उनसे कहा – ” आप पद मान या यश के लोभ से दान करते जान पड़ते हैं! नाम की इच्छा से होने वाला दान सच्चा दान नहीं है ।
”इसी प्रकार बहुत से लोग आए किंतु कोई भी स्वर्ण पत्र पा नहीं सका ।
सबके हाथों में पहुंचकर वह मिट्टी का हो जाता था ।कई महीने बीत गए बहुत से लोग स्वर्ण पत्र पाने के लोग से भगवान विश्वनाथ के मंदिर के पास ही दान पुण्य करने लगे! लेकिन स्वर्ण पत्र उन्हें भी नहीं मिला ।
एक दिन एक बूढ़ा किसान भगवान विश्वनाथ के दर्शन करने आया ।
वह देहाती किसान था । उसके कपड़े मैले और फटे थे ।वह केवल विश्वनाथ जी का दर्शन करने आया था ।
उसके पास कपड़े में बांध थोड़ा सत्तू और एक कट्टा कंबल था ।मंदिर के पास लोग गरीबों को कपड़े और पूरी मिठाई बांट रहे थे; किंतु एक कोदी मंदिर से दूर पड़ा कराह रहा था ।
उससे उठा नहीं जाता था ।
उसके सारे शरीर में घाव थे ।वह भूखा था ।
किंतु उसकी ओर कोई देखता तक नहीं था ।बूढ़े किसान को कोदी पर दया आ गई ।
उसने अपना सत्तू उसे खाने को दे दिया और अपना कंबल उसे उदा दिया ।
फिर वहां से वह मंदिर में दर्शन करने आया ।
मंदिर के पुजारी ने अब नियम बना लिया था कि सोमवार को जीतने यात्री दर्शन करने आते थे ।
सबके हाथ में एक बार वह स्वर्ण पत्र रखते थे ।
बूढ़ा किसान जब विश्वनाथ जी का दर्शन करके मंदिर से निकला पुजारी ने स्वर्ण पत्र उसके हाथ में रख दिया उसके हाथ में जाते ही स्वर्ण पत्र में जड़े रत्न दुगुने प्रकाश से चमकने लगे ।
सब लोग बुड्ढे की प्रशंसा करने लगे ।
। पुजारी ने कहा – ” यह स्वर्ण पत्र तुम्हें विश्वनाथ जी ने दिया है । जो निर्लोभ हैं, जो दिनों पर दया करता है । बिना किसी स्वार्थ के दान करता है और दुखियों की सेवा करता है, वही सबसे बड़ा पुण्यात्मा है ।