एक ऊंट था।
उसकी पीठ कुछ ज्यादा ही ऊंची थी।
यही कारण था कि वह ऊंची-ऊंची फेंकता।
एक दिन वह टहलने निकला।
नदी किनारे चूहा, गिलहरी, बंदर और खरगोश किसी बात पर हंस रहे थे।
ऊंट भी जोर-जोर से हंसने लगा। खरगोश ने पूछा, ‘‘ऊंट भाई, तुम क्यों हंसे?’’
ऊंट बोला, ‘‘तुम्हें देखकर हंस रहा हूं। मेरे सामने तुम सब कुछ नहीं।’’
चूहे ने पूछा, ‘‘मतलब क्या है तुम्हारा?’’
ऊंट गरदन झटकते हुए बोला, ‘‘मतलब यह है कि मेरा एक दिन का राशन-पानी तुम सबके लिए महीने भर का होता है।
जहां तक तुम देख सकते हो, वहां तक तो मेरी गरदन ही चली जाती है। मैं रेगिस्तान का जहाज हूं। मैं वहां आसानी से दौड़ सकता हूं, बिना रुके और बिना थके। तुम वहां चार कदम चलोगे, तो हांफने लगोगे। समझे!’’
यह सुनकर गिलहरी हंसने लगी। चूहा, खरगोश और बंदर भी हंस पड़े। ऊंट पैर पटकते हुए बोला, ‘‘तुम क्यों हंसे?’’
गिलहरी हंसते हुए ही बोली, ‘‘ऊंट भाई, माना कि तुम बहुत बड़े हो। लेकिन हर बड़ा हर तरह का छोटा सा काम भी कर सके, यह जरूरी नहीं।’’
ऊंट बोला, ‘‘मैं बच्चों को मुंह लगाना ठीक नहीं समझता।’’
बंदर भी हंसते हुए बोला, ‘‘ऊंट भाई, नाराज क्यों होते हो?’’
ऊंट ने बंदर से कहा, ‘‘ये सब पिद्दी भर के हैं। इनसे मैं क्या बात करूं! तुम सामने आओ। तुम ही बताओ कि ऐसा कौन सा काम है, जो तुम कर सकते हो और मैं नहीं? हां, पेड़ पर चढ़ने के लिए मत कहना।’’
गिलहरी उछलकर बंदर के कान के पास जा पहुंची। दूसरे ही पल बंदर दौड़कर कहीं चला गया। थोड़ी देर बाद वह पीठ पर एक तरबूज ला रहा था। उसने तरबूज ऊंट के सामने रख दिया।
बंदर ऊंट से बोला, ‘‘यह लो, तुम्हें मेरी तरह तरबूज को अपनी पीठ पर लादकर लाना है। उठाओ इसे और बीस कदम ही सही, जरा चलकर तो दिखाओ। ध्यान रहे कि तरबूज गिरना नहीं चाहिए।’’
ऊंट बेचारा सकपका गया। भला वह पहाड़ जैसी तिकोनी पीठ पर गोल-मटोल तरबूज कैसे रख पाता! तरबूज को पीठ पर रखकर चलना तो और भी मुश्किल काम था। ऊंट खिसियाता हुआ वहां से खिसक लिया।
तभी से ऊंट अब ऊंची-ऊंची नहीं फेंकता।