आज से लगभग पांच सौ पहले मिथिला राज्य में भरौरा नाम का एक गाँव था। इसी गावं में एक ब्राह्मण परिवार रहता था।
परिवार में विधवा ब्राह्मणी और उसके दो पुत्र थे। बड़े पुत्र का नाम गोनू और छोटे पुत्र का नाम भोनू था। गोनू बड़ा ही चतुर, हाजिरजवाब और प्रखर बुद्धि का युवक था।
सारे गाँव में उसकी अक्लमंदी की चर्चा रहती थी। उसने पिता की मृत्यु के बाद घर की सारी जिम्मेदारी संभाल रखी थी। थोड़ी-सी खेती में ही घर का ठीक प्रकार गुजरा हो जाता था।
वृद्धा माँ अपने बड़े बेटे की बुद्धि और परिश्रम से प्रसन्न रहती थी।
माँ को अपने छोटे बेटे की बड़ी फ़िक्र होती थी। उसे लगता था कि उसके बाद उसका भोनू जाने कैसे रहेगा। इस बारे में उसने एक दिन गोनू से बात की। बेटा गोनू, अब मेरी उम्र हो चुकी है। भगवान के घर से कभी भी बुलावा आ सकता है।
माँ ने उदास होते हुए कहा - बेटा मुझे तेरी फ़िक्र तो नहीं है। ईश्वर की दया से तेरे पास बुद्धिबल है जो किसी भी परिस्थिति में इंसान का साथ नहीं छोड़ती। मगर भोनू की फ़िक्र है। वह साधारण बुद्धि का लड़का है।
माँ तू बबुआ की फ़िक्र क्यों करती है। मैं हूँ ना। मेरा भरोसा कर। बबुआ को मेरे जीते जी कोई परेशानी नहीं होगी। गोनू ने कहा।
भगवान तुझे सदा खुश रखे बेटा ! अब मैं चैन से मर सकूंगी। वृद्धा की आँखों में संतोष के भाव आए। कुछ दिनों बाद गोनू का विवाह हो गया। उनकी पत्नी बड़ी ही सुशिल सुघड़ और पतिव्रता स्त्री थी।
स्वयं गोनू भी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वह काली माँ के उपासक थे और नित्य-प्रति पूजा करते थे। सारा गाँव कहता था कि गोनू झा को माँ काली की कृपा से ही इतना बुद्धि प्राप्त हुई है। अपनी छोटी-मोटी सभी समस्या लेकर गाँव गोनू झा के पास आते और गोनू झा चुटकी में उनकी समस्या का समाधान कर देते। जैसे कि अक्सर होता है कि धन और कीर्ति बढ़ जाने पर आदमी से कुछ ईर्ष्यालु लोग और भी ईर्ष्यालु हो जाते हैं।
ऐसे ही गोनू झा के साथ भी हुआ। गावं के कुछ लोग उनसे भी द्वेष रखने लगे। परन्तु गोनू झा को न किसी से भय था और न किसी से मतलब।
वह अपना काम सफल करने की विद्या जानते थे। उनकी बुद्धि के समक्ष उनके विरोध भी नतमस्तक हो जाते थे।
आवश्यकता पड़ने पर गोनू झा अपने बुद्धिबल से विरोधियों से भी अपना कार्य सहज में करा लेते थे।
यद्यपि गोनू झा बहुत धनी न थे पर उनके परिवार का गुजारा ठीक प्रकार से हो जाता था।
उनकी पत्नी एक कुशल गृहिणी थी और पीटीआई का बहुत सम्मान करती थी।
गोनू झा के विवाह के कुछ दिन पश्चात ही उनकी माता का देहांत हो गया। हिन्दू रीति-रिवाज से गोनू झा ने भली प्रकार माता का दाह-संस्कार किया। गांवों में भोज प्रथा का चलन होता है। कोई पैदा हो या मर जाए, दोनों ही स्थितियों में भोज करना होता है। गोनू झा भी विचार कर चुके थे कि वह भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपनी माता का भोज करेंगे।
परन्तु उनके विरोधी तो जैसे इसी अवसर की टाक में थे। विरोधियों ने मिलकर योजना बनाई कि किसी भी प्रकार गोनू झा को महाभोज के लिए उकसाया जाए। सब मिलकर उनके घर मातमपुर्सी करने पहुँचे। इधर-उधर की बातें हुई और फिर एक ने बात छेड़ दी।
झा जी, माता जी के भोज का क्या विचार है ?
विचार क्या भइया, अपनी सामर्थ्य के अनुसार तो करूंगा ही। गोनू झा ने कहा - अब प्रथा को तो मैं नहीं तोड़ सकता।
यह ठीक बात है - दूसरे ने कहा - वैसे भी आप ब्राह्मण हैं। आसपास के पच्चीस गांवों में आपका आना-जाना है। किसी भी गाँव में कैसा भी भोज हो आपको निमंत्रण आ ही है।
सो तो है, तीसरा बोला - भई, आपने गोनू झा की प्रसिद्धि भी तो दूर-दूर तक फैली है। सब तो इन्हीं से राय लेने आते हैं।
इस हिसाब से तो झा जी को पच्चीस गांवों का महाभोज करना चाहिए। वो तो करेंगे ही। माता जी की आत्मा की शांति के लिए और गोनू झा की चहुंओर फैली कीर्ति के लिए आवश्यक भी है।
सबका मुँह मीठा होना चाहिए। अरे माँ काली का दिया सब कुछ तो है इनके पास। माता जी स्वर्ग में बैठी आशीर्वाद देंगी और फूली न समाएंगी।
गोनू झा ख़ामोशी से उनकी बातें सुन रहे थे। वह समझ भी रहे थे कि वह लोग क्या षड्यंत्र रच रहे थे। पर फिलहाल उन्होंने खामोश रहना ही ठीक समझा। आवश्यक था कि पहले शत्रुपक्ष की सारी चालें चल जाएं। उनकी तो एक ही चाल उन पर भड़ी पड़ सकने में सक्षम थी।
भई गोनू झा तो कुछ बोल ही नहीं रहे। अब सब कुछ तो आपने बोल ही दिया है। गोनू झा ने कहा - चार पंचों की बात टालना भी तो उचित नहीं है।
इसका मतलब महाभोज होगा।
भई वाह, ऐसा सपूत बेटा भगवान हर किसी को दे।
चलो भाई गांव वालों को खुशखबरी सुनाते हैं कि अपने गोनू झा अपनी माता की आत्मा की शांति के लिए पच्चीस गांवों का मीठा भोज कर रहे हैं।
विरोधी दल ने खुश होकर कहा।
फिर विरोधी वहां से खुश होते चल दिए। आपस में कहते भी जा रहे थे कि क्या खूब फंसाया चतुर गोनू झा को।
अब सब आते-दाल का भाव मालूम हो जाएगा बच्चू को! बड़ा सयाना बना फिरता था। अरे, किसी को कुछ समझता ही न था। अब जब घर के बर्तन-भांडे भी बिक जाएंगे तो पता चलेगा।
मजा आ जाएगा। मीठे का महाभोज ऐसे ही हो जाता है क्या ?
मैं तो भई छककर खाऊंगा। एक ने हंसकर कहा।
और कौन तुमसे कम खाता है। देखना गोनू झा का दिवाला निकल देंगे।
सब ठठाकर हंस पड़े और सारे गावं में यह बात फैला दी। जो भी सुनता, हतप्रभ रह जाता। गोनू झा की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी और यह बात सभी जानते थे। लगता है कोई गड़ा खजाना मिल गया है, किसी ने कहा। हो सकता है, वैसे माँ-बाप के पास भी तो कुछ होगा।
जितने मुहं उतनी बातें! पर मीठे के भोज की ख़ुशी सबको थी। दस-बीस साल में कभी एक बार ऐसी दावत मिलती थी। उधर गोनू झा अपनी पत्नी के पास पहुंचे तो उनके चेहरे पर अजीब-सी मुस्कराहट थी। जबकि पत्नी के पर हवाइयां उड़ रही थी। यह क्या कर आए आप ? पच्चीस गांवों के मीठे भोज की हामी भर ली।
आसान काम समझ लिया क्या ? घर की स्थिति से अनजान हो क्या ? आरी भाग्यवान हामी मैंने नहीं भरी। गोनू झा मुस्कराए - यह तो उन लोगों की अपनी योजना है।
तो आपको विरोध करना चाहिए कि जैसे गीत वैसी ताल।
उन लोगों ने जो सोचा है, वैसा ही होगा पर कैसे होगा यह तो मैं करूंगा न !
लगता है आपने कुछ सोच लिया है। पत्नी मुस्कराई।
अब जब दुश्मन वार करे तो चुप नहीं बैठा जाता ।
तुम देखना कि कैसे मैं उन लोगों की मनमर्जी करता हूँ। पत्नी के माथे से चिंता की लकीरें हट गईं। अपने पति की अक्ल पर उसे पूरा विश्वास था।
उधर महाभोज की बात उस गांव से निकलकर और गांवों में पहुंच गई। लोग शोक व्यक्त करने आने लगे। भीड़ बढ़ने लगी। लोग गोनू झा की तारीफें करते न थकते थे। गोनू झा बस मुस्कराते रहते।
भोज का दिन करीब आ रहा था। गोनू झा बाजार से बैलगाड़ी भरकर पत्तल ले आए। अब तो कोई संशय ही बाकी न था। भोज के एक दिन पहले पच्चीस गांवों में निमंत्रण भेजा गया। गोनू झा ने भोज की व्यवस्था खेतों में की और अगर सबसे अपील की कि ग्यारह बजे तक सब आ जाएं।
अगले दिन प्रातः काल से ही भरौरा में भोज खाने वालों का आना शुरू हो गया। गोनू झा सबको कतार में बिठा रहे थे और उनके सामने पत्तल रख रहे थे। विरोधी परेशानी में थे कहीं कोई हलवाई और भट्टी तो नजर ही नहीं आ रही ! कैसा मीठा महाभोज था।
बारह-बजते-बजते पच्चीस गांवों के आदमी खेत में कतारों में बैठे थे और मीठे की प्रतीक्षा कर रहे थे।
तब गोनू झा के आदेश पर उनके मित्रवर्ग ने मीठा परोसना शुरू किया। यह क्या ? पत्तलों पर चार-चार इंच के गन्ने के टुकड़े परोसे जा रहे थे। खाने वाले हतप्रभ और विरोधी दल हक्का-बक्का।
तब कुछ बुजुर्गो ने क्रोध में भरकर गोनू झा को फटकारा। गोनू झा यह सब क्या है ?
एक बुजुर्ग लाल आँखे करके बोलै - क्या तुमने हम सबका अपमान करने के लिए यहां बुलाया था।
जब तुम्हारी औकात नहीं थी तो क्यों पच्चीस गांवों में निमंत्रण भेजा ?
काका आप अकारण क्रोधित हो रहे हैं।
गोनू झा मीठे नरम स्वर में बोले - मैंने क्या त्रुटि कर दी है। गन्ना ही तो सभी मिठाइयों का मूल है। क्या गन्ने के बिना किसी मिठाई की कल्पना की जा सकती है। आप सबका मुंह मीठा हो जाएगा और मेरी माता की आत्मा को शांति मिल जाएगी। क्या यह मीठा नहीं है।
बुजुर्ग नरम पड़ गए। गोनू झा की बात सही जो थी।
बेटा यह बात तो ठीक है। एक और बुजुर्ग ने कहा - मीठा तो यह सबसे अच्छा है पर तुम्हें इतना बखेड़ा फ़ैलाने की जरूरत क्या थी। अपनी माता की आत्मा की संतुष्टि के लिए तेरह ब्राह्मणों को भोज करा देना भी पर्याप्त था।
काका! गोनू झा ने हाथ जोड़कर कहा - मैंने कोई बखेड़ा नहीं फैलाया।
मैं तो अपने सामर्थ्य के अनुसार भोज करने वाला था। अपने गाँव और अपने खास मित्रों की जीमने की व्यवस्था तो मेरे पास थी। पर..... पर.....
गोनू झा ने खंजर की तरह ऊँगली विरोधी दाल की तरफ उठाई। ये मेरे गांव के गणमान्य लोग थे जिन्होंने मेरी हामी के बिना जबरदस्ती मेरे ऊपर मीठे के महाभोज का भार लादा।
इन लोगों का कहना था कि मुझे कैसे भी कर के यह महाभोज करना ही होगा।
साथ ही इन्होंने सारे गाँव और आसपास के गांवों में प्रचार भी कर दिया। अब बताइए कि मैं क्या करता ?
विरोधी दाल को मुँह छुपाने के लिए जगह भी नहीं मिल रही थी ओस उस पर गांवों के गणमान्य व्यक्ति उन्हें ही कोस रहे थे। आखिर विरोधियों को वहां से भागना ही पड़ा। भई मान गए गोनू झा को। पच्चीस गांवों का मुँह भी मीठा करा दिया और दावत का खर्च भी बचा लिया। और उनलोगों को भरी समाज में शर्मिन्दा भी कर दिया जो किसी कारण उनका दिवाला निकालने की सोच रहे थे।
सब गोनू झा की तारीफ करते अपने-अपने घर पहुंचे और उनकी पत्नी तो अपने पीटीआई के कारनामे पर फूली न समा रही थी। जरा से खर्च में महाभोज करने का चमत्कार गोनू झा अलावा और कौन कर सकता था।