इनाम का साझीदार

राजदरबार से सम्मानित होने के कई दिन बाद गोनू झा ने विचार किया कि अब दरबार में भी जाना चाहिए। राजा ने उन्हें अपना प्रमुख सलाहकार नियुक्त किया था। यद्यपि राजा ने प्रसन्न होकर उन्हें यह छूट दे दी थी कि गोनू झा जितने दिन चाहें अपने घर रहें और जब चाहें दरबार में आ जाएं। परंतु साथ ही यह भी कहा था कि राजकीय आवश्यकता पड़ने पर उन्हें अवश्य उपस्थित होना पड़ेगा

गोनू झा ने दरबार जाने का विचार बना लिया और सज-धजकर चल पड़े। उन्हें इतनी प्रसिद्धि तो मिल चुकी थी कि मार्ग में जो भी मिलता वही उन्हें सम्मान देता। सबसे मिलते हुए गोनू झा राजमहल पहुंचे।

राजमहल के फाटक पर द्वारपाल खड़ा था।

"आइए पंडित जी, आपने तो सारे मिथिला में धूम मचा दी है।" "सब मां काली का आशीर्वाद है भाई।" "दरबार जा रहे हैं?"

"हां भई, महाराज के दर्शन करने की इच्छा है" "अच्छी बात है। पर पंडित जी, हमारी भी इच्छा सुन लेते।" "सुनाओ।"

"बात यह है कि मैं यहां चौबीस घंटे पहरेदारी करता हूं। मुश्किल बात है फिर भी करता हूं। मेरा कुनबा इतना बड़ा है कि वेतन से गुजारा नहीं हो पाता। इसके लिए मैं आप जैसे सज्जनों का आश्रय लेता हूं। मैं जानता हूं कि आप दरबार से लौटेंगे तो कुछ न कुछ पुरस्कार लेकर ही लौटेंगे। तो अंदर जाने से पूर्व आप वायदा करें कि जो भी पुरस्कार मिले उसमें से कुछ भाग आप मुझे भी दें।"

"भाई, यह तो दरबार में जाने की घूस हुई।" गोनू झा मुस्कुराए।

"जो भी आप समझें। मेरा कुनबा बड़ा है।"

"तो राजा साहब से कहकर वेतन बढवाओ। महाराज बहुत दयालु हैं। वह अपने कर्मचारी का कष्ट सुनकर जरूर द्रवित होंगे।"

"उसकी क्या आवश्यकता है प्रभो। मेरा काम तो दरबारियों से चल रहा है। सब अपने पुरस्कार का एक भाग खुशी-खुशी दे जाते हैं।"

"और जो तुम्हारा हिस्सा न दे तब क्या करते हो?"

"हालांकि ऎसा कभी हुआ नहीं है। हमारे दरबार में ऎसा कोई भी कंजूस नहीं जो इस गरीब की सहायता न करे। फिर भी ऎसा कोई अवसर आया तो मैं भी द्वारपाल हूं। ढेर सारे हथकंडे जानता हूं।"

"बात तो तुम्हारी ठीक है भाई। फिर तो तुमसे बनाकर रखनी पड़ेगी। तुम्हें नाराज करने का अर्थ है अपना अहित करना।" गोनू झा ने कहा।

"आप तो समझदार हैं। मैं साधारण द्वारपाल भले हूं पर मेरी भी कुछ औकात है महाराज के यहां।"

"और भई, घूसखोर तो वैसे भी फंदेबाज होते हैं। "

"आप जानते ही हैं।" द्वारपाल हंसा।

ठीक है। मुझे यदि दरबार में पुरस्कार मिलता है तो (आज का सारा पुरस्कार) मैं तुम्हें दूंगा। मैं वचन देता हूं। "

"जाइए अब। दरबार में इस समय मगध का एक पंडित बैठा है। उससे शास्त्रार्थ कीजिए और ढेर सारा इनाम पाइए।"

गोनू झा दरबार में पहुंचे तो सारे दरबारी हर्ष से खड़े हो गए।

गोनू झा आ गए। गोनू झा आ गए।"

मिथिला नरेश भी हर्षित होकर सिंहासन से उठ खड़े हुए। गोनू झा ने महाराज का अभिवादन किया।

"आओ गोनू झा, उचित समय पर आए हो। हम अभी सोच रहे थे कि आज आपकी उपस्थिति अनिवार्य थी। खैर, आसन ग्रहण करें।"

गोनू झा ने अपना आसन ग्रहण किया।

फिर शास्त्रार्थ शुरू हो गया। मगध का पंडित और मिथिला का एक विद्वान आमने-सामने बैठे थे।

"महोदय, जो बिन पैरों के चलता हो, बिन वाणी के बोलता हो, ऎसा पंडित कौन है?"

मगध के पंडित ने प्रश्न किया तो मिथिला का पंडित सोच में पड़ गया। ऎसा तो भगवान ही है। पर शंकित थे तो उत्तर न दिया।

"निर्धन जो दूध पीता है, वह किस रंग का होता है।"

मिथिला का विद्वान चकराया। दूध का तो एक ही रंग होता है।

"अंतिम प्रश्न, काजल से भी काला क्या?"

विद्वान ने सिर झुका लिया। मगध का पंडित अकड़ गया।

"क्या कोई और विद्वान इस दरबार में नहीं है।" वह सगर्व बोला।

महाराज ने गोनू झा की तरफ देखा तो वह उठकर मगध के पंडित के सामने जा बैठे। मगध के पंडित ने गोनू झा पर दृष्टिपात किया। वेश-भूषा निपट देहाती थी। सोचा कि यह क्या जानता होगा?

"किसान! मगध पंडित ने मुस्कुराकर कहा- "अभी मेरे तीन प्रश्न तुमने सुने ही होंगे। मैं उन्हें पुनः दोहराता हूं। उनके उत्तर दे दो।"

प्रश्न दोहराए गए। गोनू झा मुस्कराए।

"महोदय! आपका पहला प्रश्न अति सरल है। बिना पैरों के दूर-दूर तक गमन करने वाला और बिना वाणी के भी सब कुछ कह देने वाला पत्र होता है।" गोनू झा ने बताया-"दूसरा प्रश्न भी कठिन नहीं है, गरीब का दूध तो पानी होता है। संसार में कितने ही गरीब हैं जो पानी पीकर भी पहलवानों को पटक देते हैं। उनके दूध का रंग नहीं होता बल्कि उनके दूध में भाव होता है।"

दरबार में तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी।

"महोदय।" गोनू झा ने आगे कहा-"आपका अंतिम प्रश्न है कि काजल से भी कला क्या होता है। महाराज, काजल से भी काला होता है कलंक। यह ऎसी कालिख है जो मरने के बाद भी इंसान के चरित्र से छूट नहीं सकती। मैंने ठीक कहा न पंडित जी।"

मगध का पंडित हतप्रभ रह गया। देहाती ने बाजी मार ली थी।

"महोदय, अब मैं एकमात्र प्रश्न पूछूंगा।" गोनू झा ने कहा।

"पू....पूछिए।"

आप इस समय कौन हैं?

"मैं....मैं....मैं मगध का ब्राह्मण हूं। मेरा नाम भोजराज...."

"श्रीमंत, क्षमा चाहूंगा। यह मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है।" गोनू झा विनीत स्वर में बोले-"आप इस समय मिथिला के दरबार में पराजित विद्वान हैं और आज के दिन आपका यही परिचय है।"

पंडित को मानना पड़ा कि देहाती उचित ही कह रहा था।

"वाह। वाह गोनू झा, वाह!" मिथिला नरेश ने कहा-" तुम विद्वानों के विद्वान हो। समय का जैसा विश्लेषण तुम करते हो, वह किसी परम विद्वान द्वारा ही सम्भव है। हम बहुत प्रसन्न हुए। आज हम पुरस्कार में तुम्हें वह वस्तु देंगे जो तुम्हारी इच्छा होगी। मांग लो। आज भले ही मिथिला का सिंहासन मांग लो। हमें जरा भी संकोच नहीं होगा।"

गोनू झा ने हाथ जोड़कर राजा का अभिनंदन किया।

"मांगो गोनू झा क्या मांगना है?" मिथिला नरेश ने कहा।

"महाराज, आपकी दया के अतिरिक्त और क्या मांगू। आपने मुझे इतना सम्मान दिया है कि मैं धन्य हो गया।" गोनू झा बोले।

"सम्मान व्यक्ति को उसकी योग्यता और उसका उचित प्रदर्शन दिलाता है। आप विद्वान हैं और निश्चित ही सम्मान के योग्य है। पुरस्कार तो सम्मान का निमित्त है, साधन है। अतः आप हमें यह अवसर प्रदान करें।"

"महाराज, आज मैं पुरस्कार में एक विचित्र चीज मांगना चाहता हूं।"

"निश्चिंत होकर मांगो । हम वचन देते हैं कि यदि वह विचित्र चीज मिथिला राज्य के किसी भी कोने में है तो हम वह चीज आपको देंगे।"

"ठीक है महाराज। मैं आज पुरस्कार में सौ कोड़े चाहता हूं।" सारा दरबार भौंचक्का रह गया।

"पंडितजी, यह कैसा पुरस्कार मांग बैठे!" राजा हैरानी से बोला।

"मैंने कहा था कि मैं आज विचित्र चीज मांगने जा रहा हूं। अतः अपने वचन के अनुसार मुझे यह पुरस्कार दें महाराज।"

महाराज ने विवशता से गर्दन हिलाई और दंडनायक को आदेश दिया कि गोनू झा को सौ कोड़े लगाए। सारा दरबार गोनू झा के इस विचित्र कौतुक पर हत् प्रभ था। क्या मूर्खता दिखाई गोनू झा ने।

दंड्नायक अपना कोड़ा लेकर गोनू झा के समीप आ गया।

"महाराज, कृपा करके राजमहल के फाटक पर खड़े द्वारपाल को बुलाया जाए।

क्योंकि मैं उसे वचन देकर आया हूं कि दरबार में आज जो भी पुरस्कार मुझे प्राप्त होगा वह सारा मैं उसे दूंगा। आज मेरे द्वारा प्राप्त सौ कोड़ो के पुरस्कार का वही अधिकारी है। मेरे पुरस्कार में साझीदार है।"

हम....हम समझे नहीं गोनू झा।'महाराज ने पूछा।

"महाराज किसी भी राज्य की उन्नति को निष्कंटक और सुचारु रखने में राज्य के सुरक्षा कर्मियो का योगदान अधिक होता है। यदि सुरक्षा तंत्र भ्रष्ट हो जाता है तो प्रगति प्रभावित होती है। हमारे राजमहल का प्रहरी इसी मार्ग का राही हैं। वह प्रत्येक दरबारी को भय दिखाकर दरबार में प्राप्त पुरस्कार का कुछ हिस्सा ले लेता है।" गोनू झा ने बताया।

महाराज क्रोध में भर उठे।

"क्या यह सत्य है?" राजा ने दरबारियों से पूछा।

कई दरबारियों के सिर सहमति में हिले।

'उस द्वारपाल को तत्काल दरबार में बुलाया जाए।" महाराज ने आदेश दिया।

"महाराज, मैं चाहता हूं कि पहले मेरे वचन के अनुसार मेरे पुरस्कार को उसे दे दिया जाए। एक प्रकार से यह उसका दंड भी होगा।"

तब तक द्वारपाल भी दरबार में आ गया।

"आओ प्रहरी, आज गोनू झा ने मगध के विद्वान को शास्त्रार्थ में पराजित करके जो पुरस्कार पाया है, वह तुम्हारा है। आओ अपना पुरस्कार प्राप्त करो।"

द्वारपाल थर-थर कांप उठा। उसने कातर दृष्टि से गोनू झा को देखा।

"भाई, इस प्रकार क्या देखते हो। आज पुरस्कार में मुझे सौ कोड़े मिले हैं। वचन के अनुसार सारा पुरस्कार तुम्हारा है।" गोनू झा बोले।

द्वारपाल दौड़कर गोनू झा के पैरों में गिर पड़ा।

"क्षमा पंडित जी, क्षमा! मैं मूर्ख भूल गया था कि मैं किससे पंगा ले रहा हूं। भविष्य में मैं कभी ऎसा अपराध न करूंगा।'

"भाई, यहां क्षमा और दंड का अधिकार महाराज को है। मैंने तो जो वचन दिया था मात्र उसे निभा रहा हूं। " गोनू झा ने कहा।

द्वारपाल रो-रोकर महाराज से क्षमा मांगने लगा।

"प्रहरी, तुम्हारा अपराध क्षमा योग्य नहीं है। तुम हमारे राज्य में भ्रष्टाचार का बीज बोने का कुचक्र रच रहे थे। दंड्नायक, इस अपराधी को इसका पुरस्कार देकर राज्य से बाहर कर दिया जाए..."

"और इसके परिवार के भरण-पोषण का भार राजकोष उठाए।" गोनू झा ने तत्काल जोड़ा, जिसे मिथिला नरेश ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

द्वारपाल को उसके किए का दंड मिल गया।

"गोनू झा, वास्तव में ही तुम बुद्धिमान और कर्त्तव्यनिष्ठ हो। तुमने अपने पद के अनुसार अपना कर्त्तव्य निभाया है। राज्य को एक आगामी संकट से बचाया है। तुम्हारे पास बुद्धि, कर्त्तव्य और दया जैसे सभी गुण हैं। हमें गर्व है कि तुम हमारे प्रमुख सलाहकारों में से एक हो।"

इस प्रकार गोनू झा ने दरबार में पहले ही दिन अपनी धाक जमा ली। बड़े ही विनोदपूर्ण तरीके से उन्होंने एक भ्रष्ट द्वारपाल को दंडित कराकर यह संदेश दे दिया था कि वह मात्र विनोदपूर्ण ही नहीं थे बल्कि गम्भीर सलाहकार भी थे। महाराज ने उस दिन भी गोनू झा को ढेर सारा पुरस्कार दिया।