एक बार गोनू झा घर का सामान खरीदने बाजार गए। बाजार में उन्हें शाम हो गई। और जब वह लौटने को हुए तो तेज बारिश आ गई। अब घर लौटना मुश्किल था। गोनू झा ने नगर में ही धर्मशाला में ठहरने का विचार किया। वह धर्मशाला में जा पहुंचे और भोजन किया। वहीं उनकी मुलाकात दो और लोगों से हुई। उनके नाम लग्गू और भग्गू थे। दोनों ही अधेड़ थे। भोजन के बाद वार्तालाप शुरू हुआ।
"भाई मुसाफिर।" लग्गू ने कहा-"अपनी तो उम्र गुजर गई पर कभी चैन न मिला। रोज का कमाना है और रोज का खाना है।"
"अपना भी तो यही हाल है।" भग्गू ने भी कहा-"तुम्हारे साथ रहकर।"
"भई!" गोनू झा ने पूछा-"क्या काम करते हैं आप दोनों?"
"हम । क्या बताएं भाई । कही कोई नौकरी तो हम करते नहीं । भगवान ने थोड़ी बुद्धि दे दी है तो उसी के सहारॆ गुजारा कर लेते हैं ।"
"फिर भी कोई काम तो करते होंगे ।"
"किसी को न बताओ तो बताएं ।"
"मैं क्यों बताने लगा ।"
"तो सूनो ! हम दोनो ठग हैं । ठगी एक कला है । हम कलाकार हैं ।"
"यह तो अच्छा काम नहीं है भाई ।"
"अच्छा या बुड़ा क्या ! काम तो काम है ।"
"भई, किसी दिन पकड़े गये तो दंड मिलेगा ।"
"यही तो खूबी है हमारी कि हम कभी पकड़े नही जाते । हमारी विद्या बड़ी सुरक्षित है । हम अपने शिकार को पता भी नही चलने देते कि हमने उसे ठग लिया है ।"
"ऎसा कैसे हो सकता है ।" गोनू झा चौंक पड़े - "यह कैसे हो सकता है कि तुम किसी को ठगो और उसे पता भी न चले ।"
"यही तो खूबी है हमारी । तुम चाहो तो कल हमारे साथ रहकर देख लो कि हम किस प्रकार अपनी कलाकारी दिखाते हैं ।"
"जरूर भई । तुमसे तो कुछ सीखने को मिलेगा । वैसे तो मै भी अपने अक्ल से ही अपनॆ परिवार का भरण-पोषण करता हू ।"
"फिर तो खूब जमेगी जब आप हमारे साथ होंगे ।"
इस प्रकार बातें करते-करते तीनो सो गये ।
सवेरा हुआ और तीनो नित्यकर्म से फारिग हुए ।
"अब चलें भाई । कुछ खा-पी लेते हैं ।" लग्गु ने कहा ।
''चलो भाई । पंडित जी को भी दिखा देते हैं कि हम क्या चीज हैं ।" भग्गू बोला । तीनों वहां से चल पड़े और बाजार में पहुंचे ।
"भई, कोई बखेड़ा मत कर देना ।" गोनू झा ने कहा -"मुझे बस बुद्धि का प्रयोग देखना है । झगड़ा नहीं करना ।"
"अरे, चिंता क्यों करते हो । तुम देखते जाओ ।" लग्गू बोला - "अच्छा भाई भग्गू, मैं चलता हूं उस हलवाई के पास ।"
"जाओ भई, तरकीब नम्बर सात लगाना । "
लग्गू चला गया और हलवाई के पास पहुंचा ।
"तेरा नाम घूरन हलवाई है ।" वह कड़ककर बोला ।
"हां भाई, क्या काम है?" हलवाई बोला ।
मैं राजमहल से आया हूं । महराज के पास तुम्हारी शिकायत पहुंची है कि तुम अपनी मिठाई बनाने में मिलावट करते हो ।"
"यह... यह झूठ है सरकार ।" हलवाई ने हाथ जोड़कर कहा ।
"अच्छा! तुम सोयाबीन का तेल प्रयोग नही करते । "
हलवाई का चेहरा फक पड़ गया । वह कभी-कभी ऎसा करता तो था । शिकायत सच्ची थी ।
"राजदरवार चलोगे या अपनी मिठाईयों को भेजोगे । देखो, मैं भी तुम्हारी तरह नौकर हूं। साधारन आदमी हूं । मैं नहीं चाहता कि तुम्हारा कुछ बुरा हो । तुम्हें राय देता हूं कि अपनी दुकान से शुद्ध मिठाइयां भरकर किसी के हाथ या खुद दरबार में चले जाओ । महराज वह मिठाई खाकर देखेंगे और तुम साफ बच निकलोगे । ठीक। "
हलवाई खुस हो गया । युक्ति ठीक थी ।
"सरकार, में किसे भेजूं । अकेला आदमी हूं । खुद गया तो तीन दिन मे लौट पाऊंगा । दुकान बंद रहेगी । धंधे पर असर पड़ेगा ।"
"अब इसमें मैं क्या कर सकता हूं । "
"सरकार, आप तो उधर जा ही रहे हैं ।" हलवाई खुशामद करके बोला - "मुझ गरीब पर दया कीजिए । मैं कुछ मिठाई बांध देता हूं । आप ही लेकर चले जाएं । थोड़ा कष्ट तो होगा ।"
"भई, मैं क्या बताऊं । मेरा काम तो सूचना देना है, जो मैने दे दी । अब तो सैनिक आएंगे ।" लग्गु कड़कदार बोला ।
"सरकार ! आपको मेरी दुआ मिलेगी ।"
"ठीक है ! जल्दी बांध दो । याद रहे, मिठाई मे मिलावट निकली तो फिर मैं कुछ नही कर पाऊंगा ।"
"बिल्कुल सरकार । मिठाई तो मैं अव्वल नम्बर दूंगा ।"
हलवाई ने तत्काल तीन-चार सेर मिठाइ बांधकर बंटी को थमाई । फिर बंटी को धन्यवाद भी दिया जिसने बिना किसी लोभ के उसका पैसा और समय बचा दिया था । बंटी मिठाई लेकर अपने साथी और गोनू झा के पास आया ।
"चलो भई, कही बैठकर मिठाई खाते हैं ।" बंटी हंसकर बोला ।
"तुमने उस हलवाई को भय दिखाकर ठगा है। इसमें बुद्धि का प्रयोग कहां हुआ?" गोनू झा ने कहा।
"भई, भय भी तो बुद्धि से ही पैदा किया।" फिर तीनों ने एक जगह बैठकर वह मिठाई खाई।
"अब भग्गू की बारी है।" लग्गू ने कहा-"जा भई और इतनी ही मिठाई और लेकर आ। तरीका नम्बर ग्यारह तेरे लिए ठीक रहेगा।"
बबली भी गया और आधा घंटे बाद लौटा तो वह भी उतनी ही मिठाई लेकर लौटा। फिर मिठाई खाई जाने लगी।
"तुमने क्या किया जिससे मिठाई मिली।" गोनू झा ने पूछा।
"मैंने वह कपड़ा कीचड़ में सानकर उस हलवाई को दिखाया कि दरबार में भेजी उसकी मिठाई कीचड़ में गिर गई है। उसने कपड़ा पहचाना और दोबारा मिठाई नये कपड़े में बांध दी और मैं ले आया।"
"उसने पूछा नहीं कि वह आदमी कहां है जो पहले आया था।"
"पूछा। मैंने कहा कि उसे ठोकर लगी तभी तो कीचड़ में गिरा। पैर में मोच आई है तब मुझे यह कपड़ा देकर भेजा।"
"भई, यहां थोड़ी सी बुद्धि का प्रयोग हुआ है।"
"तो भैया ज्यादा बुद्धि का प्रयोग तुम दिखा दो। हम भी तो देखें कि बुद्धि किस प्रकार कार्य करती है।" लग्गू चिढकर बोला।
"आओ मेरे साथ। बाजार चलते हैं।" गोनू झा ने कहा।
तीनों फिर से बाजार पहुंचे पर इस बार अन्य हलवाई के पास।
भाई, सुना है तुम्हारी दुकान पर शुद्ध देशी घी की मिठाइयां मिलती हैं। गोनू झा ने हलवाई से पूछा- "धार्मिक कार्यों में प्रयोग करने योग्य। जैसे प्रसाद हेतु।"
हां जी! आप निश्चिंत होकर मेरे यहां से मिठाई ले सकते हैं। आप देख ही रहे हैं कि मेरे यहां सफाई का कितना ध्यान रखा जाता है। एक भी मक्खी आपको नजर नहीं आएगी। हम उतना ही लाभ कमाते हैं जिससे हमारा परिवार आराम से रह सके। हमारे यहां से धार्मिक कार्यो के लिए ही अधिक मिठाई बिकती है।" हलवाई ने बताया।
"मैं सोच रहा हूं कि प्रसाद के लिए क्या मिठाई लूं।"
"बेसन के लड्डू ले सकते हैं।"
"ठीक। पांच किलो दे दो।"
हलवाई बेसन के लड्डू तौलने लगा।
"ठहरो, ठहरो। बेसन के लड्डू छोड़ो। बूंदी के लड्डू दो। "गोनू झा बोले। हलवाई ने बेसन के लड्डू हटाकर बूंदी के लड्डू तौलने शुरू किए।
"वैसे रसगुल्ले भी उत्तम प्रसाद होता है। वह शायद आपके पास न हो।"
"है क्यों नहीं जी। आप रसगुल्ले ही लीजिए न। " हलवाई ने लड्डू छोड़े और रसगुल्ले तौलने लगा।
"एक बात तो है।" गोनू झा ने कहा-"देवी-देवताओं को जितना प्रिय शहद होता है, उतनी ही प्रिय शहद की तरह मीठी जलेबी होती है। वह भी ताजी-ताजी। पर आपके पास तो ताजी नहीं होगी न।
"अभी सुबह ही तो बनाई है। फिर भी आप कहें तो ताजी बनवा देते हैं। समय ही कितना लगेगा।"
"अरे नहीं। क्यों कष्ट करते हैं। ऎसा न करें कि रसगुल्ले रहने दें और यह जलेबियां ही तौल दें। पांच किलो न भी हों तो भी चलेगा। क्योकिं जलेबी तो जलेबी होती है न। घुमावदार, रसीली और अद्भुत मिठास।"
"सो तो है। लीजिए। आप जलेबी ही लिजिए। रसगुल्ले रहने दीजिए।"
हलवाई ने जलेबियां तौल दीं तो चार किलो हुई।
"धन्यवाद! आपने बहुत कष्ट उठाया। अब मैं चलता हूं।' गोनू झा ने जलेबियां लीं और चल दिए।
"भाई, आप पैसे देना भूल गए हैं शायद।" हलवाई ने हंसकर कहा।
"पैसे! पैसे किस चीज के भाई!" गोनू झा बोले।
जलेबियों के। जो आप लेकर जा रहे हैं। "
"पर जलेबियां तो मैनें रसगुल्लों के बदले में ली हैं। भूल गए।
"नहीं भूला जी। तो रसगुल्लों के ही पैसे दीजिए।"
"आप फिर भूल रहे हैं। रसगुल्ले बूंदी के लड्डू के बदले में थे ना!"
"यह भी ठीक है।" हलवाई अपना सिर खुजलाने लगा-"और बूंदी के लड्डू आपने बेसन के लड्डू के बदले लिए। मैं ही गलती कर रहा हूं। मुझे ही बेसन के लड्डू के पैसे मांगने चाहिए थे।"
"वही तो मैं कह रहा हूं।' गोनू झा ने कहा।
"चलिए। गलती के लिए क्षमा चाहता हूं। आप बेसन के लड्डू के पैसे दीजिए।" हलवाई नरम स्वर में बोला।
"आप भी कमाल करते हैं। मैंने बेसन के लड्डू लिए ही कहां हैं। वह वो आपके सामने ज्यों के त्यों तौले हुए रखे हैं। उनके पैसे क्यों?"
"यह भी ठीक है।" हलवाई ने बेसन के लड्डू सामने रखे देखे-"जो चीज आपने ली ही नहीं, उसकी कीमत क्यों देने लगे। मुझसे ही कहीं भूल हो रही है। आप जाइए।"
"धन्यवाद!" गोनू झा जलेबी लेकर चल पड़े।
लग्गू और भग्गू उनके साथ थे। उन्हें मानना पड़ा कि बुद्धि से किया कार्य अद्भुत होता है। वे हैरान भी थे कि गोनू झा ने किस प्राकर वाक् जाल में हलवाई को फंसा दिया था।
तीनों शहर से बाहर एक पेड़ के नीचे बैठ गए।
'मान गए गुरु। तुमने कमाल कर दिया। अब जलेबी खिलाओ।" लग्गू बोला। गोनू झा ने सेर भर जलेबी निकालकर रख दीं। तीनों ने खाई। अब जरा आराम कर लेते हैं। थक गए हैं। पेट भी बहुत भर गया है। अब बाकी जलेबियां आराम के बाद खाएंगे। गोनू झा बोले।
"बिल्कुल ठीक। धूप भी तो हो रही है। पेड़ की शीतल छाया है और कैसी लुभावनी हवा चल रही है। अच्छी नींद आएगी।" बबली ने अपने पेट पर हाथ फिराया और लेट गया।
गोनू झा भी लेट गए और बंटी भी। शीघ्र ही तीनों की आंखे बंद हो गई। हवा ही इतनी अच्छी बह रही थी। परंतु भैया! गोनू झा नहीं सो रहे थे। वह थोड़ी देर बाद उठ बैठे। उन्होंने लग्गू और भग्गू को सोते हुए देखा तो जलेबियां खाना शुरू कर दिया। सारी जलेबी खाने के बाद पेट पर हाथ फिराया और सो गए।
तीन-चार घंटे बाद तीनों जागे।
"भई वाह! आज का दिन अच्छा रहा।" लग्गू अंगड़ाई लेकर बोला-'मिठाई खाकर मजा आ गया और नींद कितनी शानदार आई। सपना भी तो देखो कि क्या मजेदार था। परियों का नाच देखा मैंने।'
'अरे, मुझसे पूछो।' बबली भी बोला-"मैं तो किसी राजदरबार में राजा बना सिंहासन पर बैठा था। सब लोग मेरी जय-जयकार कर रहे थे। आंख खुलते ही सब गायब हो गया।"
'मेरे तो प्राण जाते-जाते बचे हैं।" गोनू झा ने कहा-'एक भयानक राक्षस ने तो मुझे खा ही लिया था, वह तो भला करे जो हमने मिठाई खाई थी।'
'अरे, क्या हुआ? जरा बताओ तो।" दोनों ठग चौंक पड़े।
"हुआ क्या? यहां एक राक्षस आ गया। हम तीनों को सोते देखकर खुश हो गया कि आज तो नरमांस खाने को मिलेगा। हमारे पास आकर बैठ गया। क्योंकि मैं सबसे इधर था तो पहले मेरी ही बारी थी। वह मुझे सूंघ रहा था। अचानक उसने बुरा सा मुंह बनाया और बोला 'ऊंह, इतना मीठा! मैं समझ गया कि उसे मीठा अच्छा नहीं लगता। मैनें तत्काल और जलेबियां खानी शुरू कर दी। मुझे जलेबी खाता देखकर वह नाक पर हाथ रखकर भागा। और जब मैंने सारी जलेबियां खा लीं तो वह गायब ही हो गया।' गोनू झा ने अपना सपना बताया। दोनों ठग हक्का-बक्का रह गए। गोनू झा ने सारी जलेबियां खा ली थी और ऊपर से ऎसी कहानी सुना दी थी।
"भई मान गए गुरू! तुमने तो हमें भी उल्लू बना दिया।'
"वास्तव में तुम बहुत बुद्धिमान हो।"
गोनू झा मुस्करा उठे और चल पड़े।
"भई अपनी कोई सीख तो देते जाओ। आज से तुम हमारे गुरु हो।'
"तो भाई! यह ठगी छोड़कर श्रम करना सीखो अन्यथा किसी दिन तुम किसी भारी संकट में फंस सकते हो।' गोनू झा ने कहा।
दोनों ने वचन दिया कि आज के बाद ठगी नहीं करेंगे और परिश्रम व बुद्धि से ही जीवन यापन करेंगे। गोनू झा अपने गांव की ओर चल पड़े।