गौतम बुद्ध का प्रेम

एक बार गौतम बुद्ध जब वन से गुजर रहे थे।

तब एक राक्षसी हाथ में तलवार लेकर प्रकट हुई और कहा, अरे बुद्ध! आज तुम्हारे प्रेम को मेरी घृणा के सामने झुकना ही पड़ेगा।

आज तुम्हारे जीवन का अंतिम दिन है।”' बुद्ध ने मुसकराते हुए उत्तर दिया, “मैं घृणा, उपहास और द्वेष के आगे नतमस्तक नहीं होऊँगा।

मैं निंदा, प्रशंसा अथवा उपहास किसी से भी प्रभावित नहीं होता।

तुम मुझसे इतनी घृणा करती हो पर मैं तो तुमसे भी प्रेम करता हूँ। राक्षसी ने पूछा, तुम मुझसे प्रेम क्यों करते हो ? बुद्ध बोले, “मैं तुममें माँ का रूप देख रहा हूँ और माँ तो प्रेम का रूप होती है, उसमें हिंसा हो ही नहीं सकंती।

इतना सुनते ही राक्षसी के हाथ से तलवार गिर पड़ी, “हे बुद्ध! तुम धन्य हो, इतना कहते ही बह देवी में बदल गई और अंतर्धान हो गई।

दरअसल, जो लोग दूसरों से द्वेष करते हैं, अंत में एक दिन घृणा उन्हें नष्ट कर देती है।

घृणा से घिरे हुए लोगों को एक दिन घृणा ले डूबती है। प्रेम सत्य के आवरण से ढका होता है। सत्य से जुड़ा हुआ व्यक्ति सदैव आनंद में जीता है।

सत्य को केवल अपने तक सीमित मत रखो, उसे अपने कर्मों में ढालना होगा।

सत्य-रूपी गुलाब की खुशबू, है 'कर्म'। अपने कर्म को प्रेम और सत्य में डुबोकर करो।

प्रेम और सत्य मनुष्य को विकास की ओर ले जाते हैं।

ध्यान रहे कि ये दोनों मार्ग ईश्वर की ओर जाते हैं। इस मार्ग पर चलनेवाले सहज में ही आनंद. और शांति को पा लेते हैं ।