बुद्ध और आम्रपाली

गौतम बुद्ध भ्रमण करते हुए वैशाली नगर के वनविहार में पहुँचे।

उनके आगमन का समाचार पूरे नगर में फैल गया। कुछ ही समय में मानो पूरा नगर उनके दर्शन के लिए उमड़ पड़ा।

बड़े व्यापारी, शिक्षाविद, समाजसेवी, अधिकारी और राजपरिवार से जुड़े कई वरिष्ठ भी वहाँ पहुँचे।

सभी की भावना थी कि तथागत बुद्ध अपने शिष्यों सहित उनके निवास पर पहुँचें एवं भोज का आमंत्रण स्वीकारें।

बुद्ध सभी के निवेदन को सुन रहे थे और स्वभावगत मुसकान के साथ आमंत्रण का आभार व्यक्त कर रहे थे।

तभी वैशाली की यात गणिका आम्रपाली भी वहाँ पहुँची। वह बुद्ध की शिक्षा से प्रेरित होकर बहुत पहले ही अपनी गणिकावृत्ति त्याग चुकी थी।

उसने भी बुद्ध को भोजन का आमंत्रण दिया। बुद्ध ने तत्काल उसे स्वीकार किया और अगले दिन भिक्षुओं सहित उसके घर आने की सहमति दे दी।

बुद्ध के एक शिष्य को यह बात अच्छी नहीं लगी कि इतने सारे वरिष्ठों के निवेदन के बावजूद बुद्ध ने आम्रपाली का आमंत्रण स्वीकारा।

शिष्य की दृष्टि में आम्रपाली गणिका होने से घृणित कर्म से जुड़ी रही थी। जब सभी लोग चले गए, तब शिष्य ने पूछा, “' भगवान्‌, इतने लोगों ने आपको न्योता दिया, फिर आपने आम्रपाली का ही आमंत्रण क्‍यों स्वीकारा? '” बुद्ध ने कहा, “माना वह गणिका थी, लेकिन पश्चात्ताप की अग्नि में तपकर वह निर्मल हो चुकी है।

यदि कोई व्यक्ति इस निर्मलता को प्राप्त कर ले तो वह उनसे भी श्रेष्ठ हो जाता है, जो ऐसे किसी घृणित कर्म में लीन न रहे हों।

ऐसे “व्यक्ति का आमंत्रण स्वीकारने में संकोच नहीं होना चाहिए।

“कोई व्यक्ति जब तक बुरे कामों में संलग्न रहता है, तब तक उससे दूरी रहे तो ठीक है।

लेकिन जो बुरे कामों को छोड़ दे, उसे स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए। इससे उसकी अच्छाई की ओर बढ़ने की भावना को बल मिलता है।