एक छोटी सी नदी थी।
उसके दोनों किनारों पर लोग रहते थे।
नदी के पानी से दोनों ओर के लोग अपना-अपना काम चलाते थे और सुखमय जीवन बिताते थे।
एक बार संयोग से पानी को लेकर दोनों पक्षों में तनातनी हो गई। वे एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे थे कि तुम ज्यादा पानी ले रहे हो।
जब आपसी बातचीत में मामला नहीं निपटा, तो वे मरने-मारने पर उतारू हो गए। उनके पास जो भी हथियार थे, उन्हें तत्काल निकाल लाए और एक- दूसरे पर टूट पड़ने को आमादा हो गए।
तभी किसी ने जाकर भगवान् बुद्ध को सूचना दी। उन्होंने दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों को बुलाया और तकरार का कारण पूछा। दोनों प्रतिनिधियों ने अपनां-अपना पक्ष रखा।
बुद्ध ने दोनों की बातें सुनीं और मुसकराकर कहा, “तो तुम लोग क्या करोगे ? दोनों प्रतिनिधियों ने आवेश में आकर कहा, “हम खून की नदियाँ बहा देंगे।
भगवान् बुद्ध ने कहा, “तो तुम्हें खून चाहिए। उन लोगों ने हतप्रभ होकर बुद्ध की ओर देखा। फिर बोले, “नहीं हमें पानी चाहिए।''
तब सहज भाव से बुद्ध ने कहा, “खून बहाकर खून मिलेगा, पानी कैसे . पाओगे ? कुछ ठहरकर आगे बुद्ध बोले, “याद रखो, हिंसा, हिंसा को बढ़ाती है; बैर, बैर को बढ़ाता है ।
नदी से ही सीख लो कि वह किसी से लड़ती नहीं । वह निश्छल भाव से अपने जल का सभी के लिए दान करती है।'' बुद्ध के शब्दों ने जादू जैसा काम किया।
और दोनों पक्षों की समस्या का सहज रूप से समाधान हो गया। दोनों पक्ष मिल-बाँटकर पानी का उपयोग करने लगे।