बौद्ध संघ के एक भिक्षु को कोई गंभीर रोग हो गया।
उसकी हालत इतनी खराब हो गई कि वह चल-फिर भी नहीं सकता था और मल- मूत्र में लिपटा पड़ा रहता था।
उसकी यह हालत देख उसके साथी भिक्षु भी उसके पास नहीं आते और घृणा से मुँह फेरकर आस-पास से निकल जाते थे।
कुछ दिनों बाद बुद्ध को यह बात पता चली तो वे तत्काल अपने प्रिय शिष्य आनंद के साथ उस भिक्षु के पास पहुँचे ।
उसकी दयनीय दशा से उन्हें घोर कष्ट हुआ। उन्होंने भिक्षु से पूछा, “तुम्हें कौन सा रोग हुआ है? भिक्षु बोला, “ भगवन्! मुझे पेट की बीमारी है।
बुद्ध ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए प्रश्न किया, क्या तुम्हारी परिचर्या करनेवाला कोई नहीं है? भिक्षु की ना सुनते ही बुद्ध ने आनंद से कहा, पानी लेकर आओ।
हम लोग पहले इसका शरीर स्वच्छ करेंगे।'' आनंद पानी लेकर आए फिर बुद्ध ने भिक्षु के शरीर पर पानी डाला और आनंद ने उसके मल-मूत्र को साफ किया।
अच्छी तरह धो-पोंछकर बुद्ध ने भिक्षु के सिर को पकड़ा और आनंद ने पैरों को । इस प्रकार उसे उठाकर चारपाई पर लिटा दिया ।
फिर बुद्ध ने सारे भिक्षुओं को एकत्रित कर उन्हें समझाया, “'भिक्षुओं! तुम्हारे माता नहीं, पिता नहीं, भाई नहीं, बहन नहीं, जो तुम्हारी सेवा करेंगे।
यदि तुम परस्पर एक-दूसरे की सेवा और देखभाल नहीं करोगे तो फिर कौन करेगा। याद रखो, जो रोगी की सेवा करता है, वह ईश्वर की सेवा करता है।
दीन-हीन के प्रति करुणा व सेवा का भाव इस जगत् को बुद्ध का सबसे बड़ा संदेश है, जो प्रत्येक देश, काल, परिस्थिति में प्रासंगिक है।