जीवन में एक अज्ञात भय ऐसा है जो ज्ञात भी है,परंतु है सबसे बड़ा और वह है मृत्यु का भय ।
उम्र, मौत और जिंदगी, इन तीनों के मामले में संसारी और साधु का फर्क देखें तो भयमुक्त हुआ जा सकता है।
संत कितना जिए, यह महत्त्वपूर्ण नहीं होता, कैसे जिए यह उपयोगी होता है।
देह त्यागने के पूर्व बुद्ध ने जो अंतिम वाक्य कहे थे, उसे समझा जाना चाहिए, “'हंद दानि भिक्खवे आमंत यामि वो, वह धमा संरवारा अप्पमादीन संपादे था इति।''
अर्थात् हर बस्तु नाशवान है, जीवन का संपादन अप्रमाद के साथ करो।
आलस्य के साथ वासना का समावेश हो जाए तो प्रमाद शुरू होता है।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को अपनी अंतिम क्रिया के बारे में भी विस्तार से समझा दिया था। मौत को उन्होंने उत्सव बनाया।
भौतिकता की आँधी में आज हम इतने भयभीत हैं कि साँप को तो मार देते हैं और रस्सी से डर जाते हैं ।
हमारी मौत अवसाद तथा संतों की मृत्यु उपदेश हो जाती है।
इसे दिव्य बनाने का प्रयास उम्र के हर पल में और जिंदगी के हर पड़ाव पर सतत करना होगा।
कहते हैं, जब बुद्ध संसार से गए तो उनकी उम्र अस्सी वर्ष थी, लेकिन संत समाज मानता है कि वे चालीस साल के थे, क्योंकि जब वे चालीस वर्ष के थे तब एक पीपल के वृक्ष के नीचे सात दिन सतत समाधि में रहे और तब ही उन्हें पूर्णिमा के दिन बुद्धत्व प्राप्त हुआ था।
उसके बाद वे चालीस वर्ष और जीवित रहे।
अध्यात्म कहता है उम्र तो उसी को मानेंगे, जिन क्षणों में आप स्वयं को जान गए।
इसलिए याद रखें “कितना जिए' यह संसार का समीकरण है, 'कैसा जिए' यह अध्यात्म का गणित है।