संदैव अपनी आँखें खुली रखो

तथागत बुद्ध उन दिनों मगध प्रवास पर थे।

साथ में शिष्यों का बड़ा समूह भी था।

प्रतिदिन बुद्ध के प्रवचन- होते, जिनका लाभ लेने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते ।

इन लोगों में साधारण जन के साथ विशिष्ट हस्तियाँ भी शामिल रहती थीं।

हालाँकि, बुद्ध सभी के प्रति समान रूप से प्रेम व आत्मीयता का व्यवहार रखते थे।

इन लोगों में नगर सेठ का पुत्र भी था, जो बड़े ध्यान से बुद्ध के प्रवचन सुनता था।

वह नित्य ही बुद्ध के शिष्यों के समक्ष बुद्ध की तारीफों के पुल बाँधता और धन्य-धन्य भाव से घर जाता ।

एक दिन प्रवचन समाप्त होने के बाद उसने किसी शिष्य से कहकर बुद्ध से मिलने की हार्दिक इच्छा प्रकट की ।

जब उसे बुद्ध के सामने ले जाया गया, तो उसने उन्हें साष्टांग प्रणाम कर कहा, भगवन ! आप जैसा तपस्वी और ज्ञानी व्यक्ति पहले न कभी हुआ था और न भविष्य में होगा ।

यह-सुनते ही बुद्ध ने उसकी बात बीच में ही रोककर कहा, वत्स ! क्या तुमने इतना अध्ययन कर लिया है कि अब तक कितने संत-महापुरुष हुए हैं ?

और क्या भविष्य भी जान चुके हो कि आगे और कोई नहीं होगा ? युवक लज्जित भाव से चुप खड़ा रहा, क्योंकि इस बात का उसके पास कोई जवाब नहीं था।

बुद्ध ने अपनी बात समाप्त करते हुए उसे सीख दी,सदैव अपनी आँखें खुली रखो । जो जैसा है, उसे वैसा ही महत्त्व दो। किसी से उसकी तुलना मत करो।

कथा का सार यह है कि किसी भी क्षेत्र के अधिकारी विद्वान्‌ की स्वतंत्र रूप से प्रंशसा करना उचित-है, किंतु सर्वश्रेष्ठ बताना अनुचित, क्योंकि श्रेष्ठता को व्यक्ति, समय व स्थान की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता।