बुद्ध का भिक्षु और वासवदंता

बुद्ध का एक शिष्य उनका उपदेश सुनकर भिक्षु हो गया।

वह एक दिन नगर में भिक्षा माँगने गया।

नियम था कि तीन घरों में भिक्षा माँगी जाती थी।

बुद्ध के लगभग सारे शिष्य युवक थे। ये भिक्षु युवक भी शरीर से गठीला और सुंदर था।

एक तो वह यौवन के रंग में रँगा हुआ था, अर्थात्‌ तन में आकर्षण था, दूसरा मन पवित्र था अर्थात्‌ मन में ईश्वरीय शक्ति भरी हुई थी।

जिसका तन और मन दोनों सुंदर है, वह परमात्मा के निकट है।

वह भिक्षु एक घर के सामने भिक्षा माँगने के लिए रुका।

वह मकान वासवदंता नाम की एक वेश्या का था।

वह भिक्षु की आवाज सुनकर तुरंत बाहर आई और द्वार पर देखा कि एक सुंदर नौजवान जिसका शरीर गठा हुआ है एवं उसका मुख एक अलौकिक आभा से युक्त है ।

उसको देखकर ऐसा लग रहा था कि वह भिक्षु युवक शांति और आनंद में डूबा हुआ है।

वेश्या उसे देखकर हैरान रह गई। जबकि वह स्वयं भी बहुत सुंदर थी।

सारा वैशाली नगर उसके पीछे घूमता था कि वह हमको स्वीकार कर ले, हमसे विवाह कर ले, पर वह किसी को भी स्वीकार नहीं करती थी।

उस बलिष्ठ और सुंदर नौजवान भिक्षु को देखते ही वासवदंता उसे अपना दिल दे बैठी।

उसने भिक्षु से कहा, “घर के भीतर आओ, तनिक बैठो ।” भिक्षु ने इनकार कर दिया, “देवी! मैं अभी नहीं आ सकता हूँ।

वेश्या ने कहा, “भिक्षु कभी इनकार नहीं करते। कोई बुलाए तो जाना चाहिए।

मेरे भवन के भीतर आओ। हे भिक्षु।! अगर भीतर आओगे तो कुछ-न-कुछ तो पाओगे ही।

भिक्षु ने कहा, “अगर कुछ देना है तो द्वार पर ही दे दो। उस वेश्या का दिल और दिमाग उस युवक के आकर्षण में बिल्कुल डूब चुका था।

उसको कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा था। वह भिश्षु कुछ क्षण रुककर आगे की ओर बढ़ गया।

दासी ने आकर कहा, “अब द्वार पर कोई नहीं है। भीतर चलो ।'' वासवदंता को तंद्रा टूटी ।

वह बहुत दुःखी और पीड़ित हुई। जब स्त्री के प्रणय निवेदन को कोई पुरुष ठुकरा देता है तो उसकी हालत बड़ी खराब हो जाती है।

वासवदंता ने अपने जीवन में एक ही बार एक ही पुरुष के प्रति लगाव रखा था।

उसने भी इनकार कर दिया, दिल टूट गया। उसने नृत्य बंद कर दिया, गाना बंद कर दिया।

जो दिन भर मुसकराती थी और लोगों का मनोरंजन करती थी, वह सुंदरी वासवदंता बिल्कुल मौन हो गई। भवन के द्वार सबके लिए बंद हो गए।

वह किसी से भी नहीं मिलती थी। कई धनाढ्य लोगों के निमंत्रण आते थे। आओ, हमारे उत्सव में खुशियाँ बिखेर दो, किंतु वह इनकार कर देती थी।

एकांत को उसने अपने जीवन का साथी बना लिया।

दासी अच्छा-अच्छा भोजन बनाती थी पर उसकी भूख और प्यास को वह भिक्षु मानो सदा के लिए ले गया हो !

वासवदंता को रात-दिन वह भिश्षु याद आता था। वह बहुत कमजोर हो गई और बीमार रहने लगी।

कहते हैं कि चिंता चिता से बड़ी होती है। चिता एक बार जलाती है और चिंता सदैव जलाती रहती है।

वह कहीं आती-जाती नहीं थी। एक ही स्थान पर लेटे-लेटे उसके शरीर में कई जख्म हो गए।

उसकी सुंदरता कुरूपता में बदल गई । अब उसे कोई देखना भी पसंद नहीं करता था।

बहुत समय के बाद फिर वही भिश्वु उस नगर में पुनः: आया। उसे मालूम पड़ा कि वासवदंता बहुत बीमार है, उसकी हालत बहुत खराब है। भिक्षु उसके द्वार पर गया।

दासी ने जाकर कहा कि वही भिक्षु आए हैं। वासवदंता ने दासी से कहा, “यहाँ पर मत आने दो।

जब मैं सुंदर युवती थी, बहुत खूबसूरत थी, तब मेरा निवेदन स्वीकार न किया, अब मैं बदसूरत और बीमार हो गई हूँ। अब मैं इनके सामने कैसे जाऊँ, नहीं जाकँगी। पर भिक्षु आ गए।

हे देवी! आज तुझे मेरी जरूरत है। उस समय तुमको मेरी जरूरत नहीं थी।

उस समय तेरी सुंदरता, तेरे नाच-गाने से मोहित होने वाले हजारों थे, किंतु दु:ख की घड़ी में सब दूर हो जाते हैं।

अब तू चिंता न कर, शर्मिंदा मत हो । मैं तेरे पास रहकर, तेरी सेवा करूँगा। भिक्षु ने पवित्र भाव से उसकी सेवा की ।

वासवदंता की वासना मिट गई। उसका विवेक जाग उठा। भिक्षु उसे बुद्ध के पास ले गए।

उसने प्रार्थना की,मुझे दीक्षा दो । बुद्ध से दीक्षा पाकर वह भिक्षुणी हो गई। अपना जीवन पतित से पावन कर लिया। बुद्धं शरणम्‌ गच्छामि !