फटेहाल व्यक्ति को सुखी बताया

एक बार भगवान्‌ बुद्ध अपने शिष्यों के साथ पाटलिपुत्र पहुँचे।

सभी लोग एक विहार में रुके ।

भोजन के बाद बुद्ध ने आनंद से अगले दिन से प्रवचन आरंभ करने को कहा।

अगले दिन बुद्ध का प्रवचन सुनने बड़ी संख्या में लोग उपस्थित थे।

बुद्ध प्रवचन देने के बाद लोगों से मिलते, उनकी समस्याएँ सुनते और नेक सलाह देते।

एक दिन प्रवचन के समय बुद्ध के शिष्य आनंद ने उनसे पूछा,भंते! आपके सामने हजारों लोग बैठे हैं।

बताइए कि इनमें सबसे सुखी कौन है ?

बुद्ध ने एक विहंगम दृष्टि भीड़ पर डालते हुए कहा, '“वह देखो, सबसे पीछे एक दुबला-पतला फटे वस्त्र पहने जो आदमी बैठा है, वह सर्वाधिक सुखी है।

आनंद सहमत नहीं हुआ। वह बोला, “यह कैसे संभव है ?

वह तो बहुत दयनीय जान पड़ता है।”' बुद्ध ने अपनी बात सिद्ध करने के लिए बारी-बारी से सामने बैठे लोगों से पूछा, “'तुम्हें क्या चाहिए ?” किसी ने संतान माँगी, तो किसी ने मकान ।

कोई रोग मुक्ति चाहता था, तो कोई अपने शत्रु पर विजय। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं था, जिसे कोई इच्छा न हो।

अंत में बुद्ध ने उस फटेहाल आदमी को बुलाकर पूछा, “तुम्हें क्या चाहिए ?” उसने हाथ जोड़कर जवाब दिया, “कुछ नहीं ।

यदि ईश्वर को मुझे कुछ देना ही है तो बस इतना कर दें कि मेरे अंदर कभी कोई चाह पैदा न हो।

मैं ऐसे ही स्वयं को सबसे बड़ा सुखी मानता हूँ।' उसकी बात सुनकर आनंद से बुद्ध ने कहा, “आनंद! जहाँ चाह है, वहाँ सुख नहीं हो सकता।

आनंद ने बुद्ध की इस शिक्षा को सदा के लिए गाँठ बाँध लिया।

सार यह है कि लालसा से लोभ बढ़ता है, जो असंतोष का जनक होता है।

यदि सही अर्थों में सुख पाना है तो किसी लालसा की बजाय उपलब्ध स्थितियों में संतुष्ट रहना चाहिए।