बुद्ध के शिष्यों में एक शिष्य था अनाथ पिंडक।
वह धनी व्यक्ति था। उसका यह नाम इसलिए पड़ गया था कि वह रोज सुबह-सुबह अपने घर के बाहर अच्छा-अच्छा भोजन बनाकर बैठ जाता था।
उसके पास जो आता था, उसे वह खिलाता था।
वह अनाथों के पिंड को भरता था, अर्थात् सबका पेट भरता था।
इसलिए उसका नाम ' अनाथ पिंडक ' पड़ गया।
वह अपने काम और नाम से प्रसिद्ध हो गया था। उसका यश दूर-दूर तक फैल गया था। बुद्ध ने भी उसकी ख्याति सुन रखी थी।
बुद्ध उन दिनों अपने हजारों संन्यासी भिक्षुओं के साथ वैशाली नगर में उपदेश दे रहे थे और लोगों को असीम शांति प्रदान कर रहे थे ।
अनाथ पिंडक को मालूम पड़ा कि मेरे नगर के पास ही बुद्ध अपने अनेक शिष्यों के साथ आए हुए हैं ।
वह उनके दर्शन करने गया। वहाँ पहुँचने पर उसे बुद्ध के दर्शन हो गए ।
बुद्ध, शांति, आनंद और प्रेम की मूरत थे । चेहरे पर मंद-मंद मुसकराहट थी। उनके वस्त्र पीत रंग के थे और सिर पर जटाएँ थीं।
वे बहुत ही मीठा और नग्नतापूर्वक बोल रहे थे।
उनको सैकड़ों लोग बिल्कुल शांत होकर सुन रहे थे। बुद्ध की शांति और आनंद उनके हृदय में उतर रहा था।
सत्संग समाप्त हुआ, अनाथ पिंडक करीब आया, बुद्ध के चरणों में नमस्कार किया और कहा, “मैं अनाथ पिंडक हूँ।'” “कहो, कैसे आए? '' “मैं चाहता हूँ कि आप मेरे नगर में पधारें। वहाँ के लोग आपके धर्म उपदेश को सुनकर लाभान्वित हों और उनका जीवन आनंद से भर जाए।
बुद्ध ने कहा, “ठीक है। मैं आऊँगा, तुम व्यवस्था बना लेना।''
अनाथ पिंडक बहुत प्रसन्न हुआ। उसने पुन: बुद्ध के चरणों में प्रणाम किया और एक ओर बैठ गए। महाकश्यप बुद्ध के शिष्य थे।
उन्होंने पिंडक को समझाया कि हम यहाँ पर हजारों भिक्षु हैं, तो किसी एक के घर में तो रुकना संभव नहीं हो पाएगा, इसलिए अच्छा यह रहेगा कि तुम किसी खुले बाग-बगीचे में व्यवस्था कर लेना।
हम जैसे लोग भगवान् के लिए एक छोटी सी झोंपड़ी बना लेंगे और हम भिक्षु उनके आस-पास रुक जाएँगे।
अनाथ पिंडक ने कहा, “'ठीक है। ऐसा ही होगा।”” वह अपने नगर लौट आया और अपने नगर में नजर दौड़ाई कि कहाँ-कहाँ पर व्यवस्था हो सकती है।
उसे एक बड़ा सुंदर बगीचा पसंद आ गया। वह उस बगीचे के मालिक के पास गया। उससे जाकर कहा, “मैं आपका बगीचा खरीदना चाहता हूँ।
मैंने बुद्ध देव को बुलाया है। उनकी सेवा के लिए मैं उनको यह बगीचा भेंट देना चाहता हूँ, ताकि वे यहाँ पर रहकर लोगों को धर्म का उपदेश देकर उनका जीवन धन्य कर दें।
बगीचे का मालिक संत-महात्माओं के प्रति श्रद्धा नहीं रखता था। इसलिए उसने साफ मना कर दिया, “मैं तो बेचूँगा ही नहीं।”” बहुत मनाने पर कहा, “चलो ठीक है।
यह बगीचा तुमको देता हूँ। पर इस बगीचे की कीमत एक साथ लूँगा। इस बगीचे की खरीददारी यूँ होगी कि तुम जितनी जमीन पर सोने के सिक्के बिछा लोगे, मैं उतनी जमीन तुम्हें दे दूँगा।''
अनाथ पिंडक के तो प्रसन्नता के मारे आँसू निकल आए।
उसने कहा, “शुक्र है तू राजी तो हुआ। मुझे बुद्ध देव को यहाँ पर लाना है और अगर इतनी बड़ी कीमत भी है तो मैं ये कीमत भी दूँगा।'” अनाथ पिंडक अपनी सारी दौलत, सारा सोना बैलगाड़ियों में भरकर ले आया।
उसने सोने के सिक्कों से सारा बगीचा पाट दिया।
सोने की तह बिछा दी।
वहाँ के लोग अनाथ पिंडक को पागल कहने लगे। इसने एक महात्मा के लिए अपनी सारी संपत्ति लुटा दी है।
लोगों को क्या मालूम कि संत, महात्मा और गुरु का सान्निध्य कितना अमूल्य होता है ! महात्मा बुद्ध चालीस साल तक देश भर के गाँव-गाँव में जाकर धर्म का उपदेश देते रहे ।
उनका यह भाव था कि जिस आनंद को मैंने पाया है वह जन-जन तक पहुँचे। शांति पाने का अधिकार सबको है।
वे घर-घर जाकर ज्ञान का दीपक जलाना चाहते थे। उन्होंने जीवन भर अनेक दीपक जलाए। उनके उपदेश से अनगिनत लोगों का मन निर्मल हो गया।
अनाथ पिंडक के मन में बस एक ही इच्छा थी कि मैं महात्मा बुद्ध का सान्निध्य प्राप्त करूँ।
अपने नगरवासियों के साथ बैठकर बुद्ध देव का उपदेश, जो अमृत है, सबके साथ बैठकर पी सकूँ।
बगीचे के मालिक ने देखा कि सारा बगीचा सोने के सिक्कों से पटा पड़ा है। वह अनाथ-पिंडक की एक महात्मा के प्रति अगाध-श्रद्धा को देखकर हैरान रह गया।
उसका हृदय पिघल गया। श्रद्धा की बुझी हुई ज्योति जल उठी।
उसने मन में कहा, मैंने बहुत ही गलत किया है।'' उसने हाथ जोड़कर अनाथ पिंडक से कहा, आप इन सारे सोने के सिक्कों को उठा लीजिए मुझे धन नहीं चाहिए।
इस सारे बगीचे को आप मेरी ओर से उपहार समझ लें।
अनाथ पिंडक ने कहा,अब तो वचन हो चुका है और अब मैं अपने वचन से नहीं गिरूँगा। अब तो तुम सारी स्वर्ण मुद्राएँ उठा लो।
मैं इस धन को स्वीकार नहीं करूँगा।'” ऐसा सुनकर बगीचे के मालिक ने अनाथ पिंडक के चरण पकड़कर कहा, “आप मुझे माफ करें। मैंने आपके साथ जो व्यवहार किया है, वह ठीक नहीं था। आज मैं पछता रहा हूँ और मुझे स्वयं पर ग्लानि हो रही है।
अनाथ पिंडक को उस पर दया आ गई।
उसने उसको एक उपाय सुझाया कि महात्मा बुद्ध जब कुछ समय बाद धर्म-उपदेश की वर्षा करके दूसरे गाँव जाएँ तो तुम वहाँ पर जाकर उनकी और उनके सारे शिष्य के रहने की व्यवस्था करना।
धन के लोभ से सत्संग का लोभ कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है।