गौतम को घर छोड़े सात साल बीत चुके थे।
वे राजगृह में प्रवचन करते थे। उनके पिता राजा शुद्धोधन ने एक वर्ष के भीतर दस दूत उनके पास भेजे थे कि एक बार दर्शन दे दो।
वे कपिलवस्तु पहुँचे। उनके साथ उनके दोनों प्रिय शिष्य सारिपुत्र और मौदगल्याण भी थे। वहीं दोनों शिष्य, जिनकी अस्थियाँ साँची के दूसरे स्तृूप से मिली थीं।
उन्होंने कपिलवस्तु के दक्षिणी छोर से भिक्षाटन शुरू किया। संघ के सैकड़ों लोग उनके साथ थे ।
उन्हें देखने पूरा नगर उमड़ पड़ा था। अपने प्रिय राजकुमार को भीख माँगता देख लोग रो पड़े थे। राजा को पता चला, तो वे अपने बेटे को देखने सड़क पर आ गए ।
बहुत आग्रह करने के बाद शाक्यमुनि ने राजा पिता का निमंत्रण स्वीकार किया और राजभवन में गए। राजा ने संघ के अन्य भिक्षुओं को भवन के विशेष परिसर में ठहराया।
जब शुद्धोधन शाक्यमुनि का हाथ पकड़कर चल रहे थे तो अवश्य ही उनके चेहरे पर पिता होने का वह भाव आया होगा, जो पुत्र का मार्गदर्शक होने के नैसर्गिक अधिकार से भरा होता है । खुद शाक्यमुनि इस अधिकार में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे।
भवन में राहुल की माता यशोधरा के पास भी तुरंत यह संदेश पहुँचा कि गौतम लौट आए हैं, वे जाएँ और अपने पति से मुलाकात करें।
लेकिन यशोधरा ने इनकार कर दिया, “गौतम उसे छोड़कर गए थे; आज लौटे हैं, तो वह क्यों जाए भला उनका सत्कार करने।'' यशोधरा ने संदेश भिजवाया, “यदि एक पल के लिए भी आर्यपुत्र ने मुझमें कोई गुण देखा हो, तो वे स्वयं इस कक्ष तक आएँगे, जहाँ से वे आधी रात बिना बताए चले गए थे।
तथागत राहुल माता का संदेश पाकर उनके कक्ष की ओर बढ़े । उन्होंने दोनों शिष्यों से कहा, वे कुछ भी कहें, कुछ भी करें, तुम दोनों शांत रहना। कोई प्रतिक्रिया मत करना। उन्हें सुरुचिपूर्ण वंदना करने देना।''
कमरे में तथागत अपनी शैली में बैठ गए। सारिपुत्र हमेशा की तरह उनकी दायीं और मौदगल्यायन उनकी बायीं और बैठे। यशोधरा आईं। वे राजकुमारी नहीं दिख रही थीं।
उन्होंने तथागत के चरण स्पर्श किए और उनके सामने बैठ गईं।
कमरे में शांति थी। तभी राजा शुद्धोधन कमरे में आए बेटे - बहू को आमने-सामने देख उन्होंने बेटे से कहा, “' भंते, यशोधरा ने. सुना,
आपने काषाय वस्त्र धारण किया है, तो उसने काषाय वस्त्र पहन लिये।
उसने सुना, आप एकाहारी हो गए हैं, वह भी एकाहारी हो गई। आपने उत्तम पलंग पर सोना त्याग दिया है, तो इसने भी त्याग दिया।
आपने माला का त्याग किया, गंध का त्याग किया तो इसने भी वह सब त्याग दिया। मायके वाले इसे संदेश भेजते हैं। वे इसे ले जाना चाहते हैं, लेकिन यह यहीं रहती है, इसी कक्ष में । यह गुण की मूर्ति है।
राजा स्नेह से अपनी बहू को देखते रहे। अचानक तथागत उठे। उस कक्ष से बाहर चले गए।
शाक्यमुनि ने शिष्यों को शांत रहने को कहा था, लेकिन वे स्वयं उस कक्ष से बाहर चले गए।
मैं हमेशा सोचता हूँ, उस पल क्या हुआ होगा, उनके मन के भीतर कैसे-कैसे विचार उठते होगे ?
क्या संबोधि एक लघु क्षण होता है या दीर्घ क्षण ? क्या संबोधि एक अनंत अभ्यास है ? क्या संयम उसका गरुड़यान है ?
धम्मपद का तेरहवाँ श्लोक बार-बार याद आता है-- यथागारं दुछेन बुट्टी समतिविबझति/एंवं अभावितं चित्तं रागो समतिविबझति।
(घर की छत मजबूत न हो, सही तरह से उसे घास-फूस से ढका न गया हो, तो बरसात के दिनों में उसमें से पानी रिसता है, घर-भर में फैल जाता है। उसी तरह ध्यान और एकाग्रता हमारे व्यक्तित्व की छत है।)
ध्यान और एकाग्रता जीवन को सार्थक करते हैं।