एक दिन एक व्यक्ति बुद्ध के पास पहुँचा।
वह बहुत अधिक तनाव में था।
अनेक प्रश्न उसके दिमाग में घूम-घूमकर उसे परेशान कर रहे थे-जैसे आत्मा क्या है ?
आदमी मृत्यु के बाद कहाँ जाता है? सृष्टि का निर्माता कौन है ?
स्वर्ग-नरक की अवधारणा कहाँ तक सच है और ईश्वर है या नहीं ?
उसे इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल रहे थे। जब वह बुद्ध के पास पहुँचा तो उसने देखा कि बुद्ध को कई लोग घेरकर बैठे हैं।
बुद्ध उन सभी के प्रश्नों व जिज्ञासाओं का समाधान अत्यंत सहज भाव से कर रहे हैं ।
काफी देर तक यह क्रम चलता रहा, किंतु बुद्ध धैर्यपूर्वक हर एक को संतुष्ट करते रहे ।
बेचारा व्यक्ति वहाँ का हाल देखकर परेशान हो गया। उसने सोचा कि इन्हें दुनियादारी के मामलों में पड़ने से क्या लाभ ?
अपना भगवद् भजन करें और बुनियादी समस्याओं से ग्रस्त इन लोगों को भगाएँ, किंतु बुद्ध का व्यवहार देखकर तो ऐसा लग रहा था मानो इन लोगों का दुःख उनका अपना दु:ख है ।
आखिर उस व्यक्ति ने पूछ ही लिया,“महाराज आपको इन सांसारिक बातों से क्या लेना-देना ?
बुद्ध बोले, मैं ज्ञानी नहीं हूँ, और इनसान हूँ।
बैसे भी वह ज्ञान किस काम का, जो इतना घमंडी और आत्मकेंद्रित हो कि अपने अतिरिक्त दूसरे की चिंता ही न कर सके ?
ऐसा ज्ञान तो अज्ञान से भी बुरा है। बुद्ध की बातें सुनकर व्यक्ति कौ उलझन दूर हो गई ।
उस दिन से उसकी सोच व आचरण दोनों बदल गए।
कथा का सार यह है कि ज्ञान तभी सार्थक होता है, जब वह लोक कल्याण में संलग्न हो।