एक सेठ निःसंतान था।
अपार संपत्ति का मालिक होने के बावजूद सेठ का लोभ बरकरार था।
संतान न होने का दुःख उसे बहुत था और इस कारण वह न जाने कितने फकीर, बाबा और पंडितों के दर पर माथा टेक चुका था, किंतु नतीजा शून्य रहा।
एक बार सेठ के नगर में बुद्ध का आगमन हुआ।
सेठ ने उनकी बहुत ख्याति सुनी तो अगले ही दिन उनसे मिलने पहुँचा।
बुद्ध को अपनी निःसंतानता के विषय में बताया तो उन्होंने सेठ के सिर पर हाथ रखकर हार्दिक आशीर्वाद दिया।
संयोग की बात कि कुछ ही समय बाद सेठ को संतान सुख प्राप्त हो गया। वह बुद्ध के प्रति आभार भाव से भर उठा।
सोचने लगा कि बुद्ध के प्रति उपकार कैसे जताए ?
विचार करने के उपरांत उसने एक बक्से में बेशकीमती हीरे- जवाहरात रखे और बुद्ध के पास पहुँचा।
बुद्ध को प्रणाम निवेदित कर सेठ बोला, “महाराज ! आपकी कृपा से मुझे संतान का मुख देखने को मिला, मैं आपके लिए कुछ करना चाहता हूँ।
सो, यह तुच्छ भेंट लाया हूँ।' बुद्ध ने हीरे-जवाहरात देखते ही अस्वीकार कर दिए।
उन्होंने कहा,मेरे लिए धन व्यर्थ है, इसे तुम ही रखो।'” जब सेठ अधिक आग्रही हुआ तो बुद्ध बोले, “मैं निर्धनों से दान नहीं लेता।
आश्चर्यचकित सेठ ने कहा, “पर मैं तो निर्धन नहीं हूँ। अपार धन-संपत्ति मेरे पास है। मेरी तिजोरियाँ सोने-चाँदी, गहनों व जवाहरातों से भरी हुई हैं ।
रात-दिन परिश्रम कर मैं इस संपत्ति को दिन-दूनी रात-चौगुनी कर रहा हूँ। फिर मैं निर्धन कैसे हूँ ?
तब बुद्ध ने समझाया, इसका आशय यह है कि तुम अपनी वर्तमान संपत्ति से तृप्त नहीं हो और अतृप्त व्यक्ति निर्धन ही तो होता है, क्योंकि सच्चा संपन्न तो वह है, जो तृप्त हो।
बुद्ध की बातों ने सेठ की आँखें खोल दीं।
संतोष सबसे बड़ा धन और संतोषी सर्वाधिक धनी होता है, क्योंकि इच्छाओं का अंत निर्लिप्तता की परम सुखमय अवस्था को लाता है।