दान में नहीं होना चाहिए अहंकार

एक अमीर आदमी था। वह निर्धनों व असहायों को पर्याप्त दान देता था, लेकिन जितना वह देता, उससे अधिक उसका बखान करता।

इस कारण लेने वाले के दिल पर उसके अहसान का भार हो जाता था।

एक दिन वह बुद्ध के पास मिलने गया।

बुद्ध के सामने भी वह काफी देर तक आत्म प्रशंसा करता रहा फिर उठते समय उसने अपने सहायक को संकेत किया।

उसने तत्काल आगे बढ़कर बुद्ध के समक्ष रुपए से भरी थैली रख दी।

बुद्ध ने अमीर की ओर प्रश्न सूचक दृष्टि से देखा, तो. वह बोला, “ पैसे की कमी के कारण आप अनेक कल्याणकारी कार्य कर नहीं पाते होंगे।

मैंने सोचा कि आपकी कुछ मदद कर दूँ।

बुद्ध ने अमीर की बनावटी विनग्रता में छिपे अहंकार को समझकर कहा, “मुझे आपके धन की नहीं, आपकी आवश्यकता है ।

अमीर के लिए यह पहला अनुभव था जब किसी ने उसके ._ दान को ठुकराया हो।

उसे बुद्ध के व्यवहार पर हैरानी भी हुई और बुरा भी लगा।

उसने कहा, ' महात्मन्‌ आपने तो मेरे दान को व्यर्थ समझकर अस्वीकार कर दिया। क्यों ?'” उसकी बात सुनकर बुद्ध मुसकराए।

फिर स्नेह से उसे समझाकर बोले, “'सेठ ! जिस दान के साथ दाता स्वयं को नहीं देता वह मिट्टी के बराबर होता है ।

दान से आशय है--सम-विभाजन । दूसरे का हिस्सा अतिरिक्त धन के रूप में तुम्हारे पास है, वही तुम दान के रूप में लौटा रहे हो।

फिर इसमें 'मैंने दिया' का अहंकार होना ही नहीं चाहिए। तुम जब इस भाव से दोगे, तो मैं अवश्य लूँगा।

बुद्ध की गहरी बातों ने अमीर का जमीर जाग्रतू कर दिया, और उसने स्वयं की सोच में आवश्यक सुधार किया।